– पाण्डेय हरिराम

काल्हु विजयादशमी ह. एह अवसर पर हमनी का विजय के बात करेनी जा. ओकर माने का होला ?

का ई सभकर मालिक होखल ह, आ कि अपना खातिर कवनो वैभव के मिलल ह ? अगर हमनी का ध्यान से पुरनका दिग्विजयन का बारे में पढ़ीं जा त तीन गो बाति सामने आई

पहिलका ई कि एह दिग्विजयन के मकसद सभपर मलिकाव जमावल कबहियो ना रहल. कालीदास एकरा खातिर “उत्खात प्रतिरोपण” कहले बाड़न. माने कि उखाड़ के फेर से रोपल. जइसे धान के बीज बोवला का बाद जब पौधा बनि जाला त ओकरा के उखाड़ के दोसरा खेत में रोप दिहल जाला आ एह धान के फसल बोवल धान से दुगुना होला. एही तरह दिग्विजय जीतल इलाकन का हित में होला जब फेर ओहिजे के कवनो सुयोग्य शासक के ओहिजा के राज सँउप दिहल जाले. एहसे ओह इलाका के कमजोरी अपनही खतम हो जाला आ ओकर ताकत फेर से अउरी मजगर हो के सामने आवेला.

दोसर बाति जवना के एह विजय यात्रा में ध्यान में राखल जात रहे ऊ ई कि आम नागरिक के सतावल ना जाव, ओकर खेती वाणिज्य बरबाद ना कइल जाव. युद्ध ओहिजा के ऊसर जमीन पर होखे आ सेना से होखे, जनता से ना. ओह युद्ध में मराइल सैनिकन के पूरा सम्मान दिहल जात रहे.

विभीषण कवनो तरह अपना भाई रावण के चिता में आगि देबे के तइयार ना होत रहन त राम कहले कि बैर मरला का बाद खतम हो जाला. रावण तोहार बड़ भाई रहले एहसे हमरो बड़ भाई रहले. इनकर उचित सम्मान का साथे अंतिम संस्कार करऽ.

तिसरका बाति ई रहे कि ओह दिग्विजय के उद्देश्य उपनिवेश बनावल ना रहत रहे, ना ही आपन रीति नीति आरोपित कइल. भारत जवने देश के जीतलसि ओकरा के अपना में मिलवलसि ना, ना ही ओह देश के संस्कृति के विनष्ट कइल गइल. बलुक ओह संस्कृति के अतना पोषक तत्व दिहल गइल कि ऊ संस्कृति भारत के कला आ साहित्य के अपना प्रतिभा में ढालि के ओकरा के अउरी निकहा खाड़ कइलस.

कंपूचिया में अंकोरवाट आ हिंदेशिया के बोरोबुदुर आ प्रामवनम एकर जियतार प्रमाण बाड़े जहवाँ के लोग भारतीय धर्म संस्कृति के अपना संस्कृति का अनुरुप बना के एगो नये रुप दे डलले. हँ, एह दिग्विजयन के एगो उद्देश्य ई जरुर रहे कि हर तहर के रंग से एगो इंद्रधनुष रचावल जाव.

अब एगो सवाल बा कि खाली रामे के विजयोत्सव अतना खास काहे हो गइल ? ओकरा बादो बहुते विजय अभियान भइले सँ. ऊ काहे ना अतना खास बन पवले ?ओकर उत्सव काहे ना मनावल गइल ?

एकर जवाब इहे बा कि राम का विजय यात्रा में राम के सहायक रहलें वानर आ भालू जाति. अयोध्या से कवनो सेना ना आइल रहे. ऊ विजय एगो निर्वासित के उत्साह रहे जवन राक्षसन से आक्रांत बहुते सामान्य लोगो में आत्मविश्वास भरलसि आ जे रथहीन रहियो के रथ पर चढ़ल रावण से लड़ाई लड़लसि.

अइसनके विजय यात्रा से प्रेरणा ले के गांधी जी स्वाधीनता के विजय अभियान में जवना चौपाइयन के उपयोग कइलन ऊ “रामचरितमानस” के रहल. “रावन रथी बिरथ रघुबीरा। देखि बिभीषन भयउ अधीरा।” अइसनका विजय में केहू के पराभव ना होखे, राक्षसन के पराभव ना भइल बस रावण के अहंकार के काटल गइल. राक्षसन के सभ्यतो नष्ट ना भइल. ओही तरह जइसे अंग्रेजन के पराभव ना भइल. अंग्रेजी सभ्यता नेस्तनाबूद करे के कवनो कोशिश ना भइल. बस ओकर मलिकाव खतम करि के जनता के स्वराज्य स्थापित करल लक्ष्य रहे. एही चलते विजयदशमी आजु अउरी खास बा.

हमनी का खेतिहर संस्कृति के लोग आजुओ जौ के अंकुर अपना चोटी में बान्हीले आ ओकरे के हमनी का अपना जय के प्रतीक मानी ले. आवेवाली फसल के नयका अंकुर हमनी के जय यात्रा के शुरुआत होले.

हमनी के विजययात्रा एहिजा पूरा ना होखे, एहिजे से शुरु होले. काहे कि भोग में अतृप्ति, भोग खातिर छीना-झपटी, भय आ आतंक से दोसरा के डेरावे के विराट अभियान, दोसरा के सुख-सुविधा के अनदेखी, अहंकार, मद, दोसरा के सुख से ईर्ष्या. ई सभ जबले बा, कम भा बेसी, “विरथ रघुवीर” के विजययात्रा खातिर निकलही के पड़ी. आत्मजयी के एह दुश्मनन पर विजय प्रावे खातिर नया संकल्प लेबही के पड़ी.

विजयदशमी के दिन लोग नीलकंठ पक्षी देखल चाहेलें. नीलकंठ सुंदर पक्षी होला. ओकर गर नीला होला. ओह पक्षी में लोग विषपायी शिव के दर्शन करल चाहेलें. आत्मजयी जब विजय खातिर निकली त ओकरा बहुते जहर पिये के पड़ी. ई जहर अपयश के होखी, लोकनिंदा के होखी, आ ओहू ले बेसी लोकप्रियता के होखी. आजु एह जहर के पिये के पचावे के केहू तइयार नइखे.

विजयदशमी के उत्सव सार्थक होला दक्षिण से उत्तर का ओर राम के वापसी यात्रा से. एहमें राम रास्ता में अपना मित्र ऋषि भारद्वाज से मिलत बाड़े, अपना मित्र निषादराज से मिलत बाड़े, गंगा फेर से पार करत बाड़े. अंत में पहिले भरत से मिलत बाड़े आ तब अयोध्या में प्रवेश कर के सिंहासन पर बइठत बाड़े.

वास्तव में कहीं त जन-जन का मन में राजा त वनवासी रामे रहले. बस सिंहासन पर बइठल ना रहले बाकिर सिंहासन पर उनकर पादुका रहे. उनके प्रतीकचिह्न से शासन चलत रहुवे. भरत त अपना के बस न्यायधारी मानत रहले. महात्मा गांधी ओही तरह के स्तुति में जनता के शासक के देखल चाहत रहले.

शासन त सनातन रामे के हऽ. उनके तरफ से प्रतिनिधि होके, धरोहरी बनि के शासन चलावले जनतंत्र के शासक के लक्ष्य होखल चाहीं. राम के राज्याभिषेक सत्य के राज्याभिषेक हऽ, सात्विक ज्ञान के राज्याभिषेक हऽ.


पाण्डेय हरिराम जी कोलकाता से प्रकाशित होखे वाला लोकप्रिय हिन्दी अखबार के संपादक हईं आ ई लेख उहाँ का अपना ब्लॉग पर हिन्दी में लिखले बानी. अँजोरिया के नीति हमेशा से रहल बा कि दोसरा भाषा में लिखल सामग्री के भोजपुरी अनुवाद समय समय पर पाठकन के परोसल जाव आ ओहि नीति का तहत इहो लेख दिहल जा रहल बा.अनुवाद के अशुद्धि खातिर अँजोरिये जिम्मेवार होखी.

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3 thoughts on “विजय माने का ?”
  1. itna utkrishth lekh bahut kam padhne ko milta hai…. thanks anjoria

  2. बहुत खूब नीमन बा .काफी जानकारी मिलल …

  3. आज दुपहरिया में हमनी के खाना खाए गइल रहनी ह स. ओहिजा बगल में दू गो नवयुवती आपस में बतियावत रहली ह स कि आखिर काहे हमनी के नवरात्र के अंतिम दिन जौ के तना के अपना कान प रखे नी जा. ओह दूनों जवना में एगो खुद बंगालिन(ओह लोगन के बातचीत से हमरा बुझाइल ह) रहली ह. हमहूं तनी सोच में पड़ गइनी ह कि आखिर एकरा पाछे का कारण हो सकेला. बाकिर अबहीं आके पांडेय हरिराम जी के ई लेख पढ़नी ह त ओकरा में हमरा कुछ हद तक एकर जवाब मिलल ह कि ‘हमनी का खेतिहर संस्कृति के लोग आजुओ जौ के अंकुर अपना चोटी में बान्हीले आ ओकरे के हमनी का अपना जय के प्रतीक मानी ले. आवेवाली फसल के नयका अंकुर हमनी के जय यात्रा के शुरुआत होले.’पाडेंय जी के एह पंक्ति से हमरा ई त बुझाइल ह कि हमनी के कान प जौ विजय के प्रतीक के रूप में रखीले जा. बाकिर अबहियों हम पूरा तरह से संतुष्ट नइखी भइल. खैर, पांडेय जी के एह आलेख से एगो दिशा त मीलिए गइल. बहुत-बहुत धन्यवाद

कुछ त कहीं......

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