भीड़ का बीच अकेला होखला के दुख..

by | Apr 30, 2011 | 0 comments

– पाण्डेय हरिराम


80 के दशक के एगो गाना हजारन दिल के छूवत ऊ तार खनका दिहले रहुवे, ओह भावना के उभार दिहले रहुवे जवना के लोग महसूस त करत रहे लेकिन या त लोग का लगे बयान करे लायक शब्द ना रहत रहे भा हिम्मत. एह गाना का साथ हर ऊ आदमी अपना के जोड़ के देखत रहुवे जे कवनो छोट शहर से आ के कवनो बड़ शहर भा मेट्रो में अपना के डूबत बिलात देखत रहुवे.

अपना के एगो महानगर का भीड़ में डूबल असहाय हो के टुकुर टुकुर देखल आ कुछ ना कर पावे के बेबसी. एगो महानगर में अपनन से कटत आ फेर ओकरा के सही ठहरावे खातिर अपने के बिसरावत रहल. हँ, ई उहे दौर रहे जब दुनिया का साथ साथ हिन्दुस्तानो का महानगरन में रहे वाला लोग बदले लागल रहे. एहसे पहिले कि बात आगा बढ़ाईं ओह गाना के मुखड़ा पढ़ लिहल जाव….

‘सीने में जलन, आंखों में तूफ़ान-सा क्यूं है. इस शहर में हर शख़्स परेशान-सा क्यूं है.. दिल है तो धड़कने का बहाना कोई ढूंढे, आईना हमें देख के हैरान-सा क्यूं
है. सीने में जलन आंखों में तूफ़ान-सा क्यूं है.’

पिछला 25 बरीसन में एह गाना के शाश्वतता में कवनो बदलाव नइखे भइल. हँ जवन बदलाव आइल बा ऊ ई कि अब ई भाव महानगरे ले सीमित नइखे रहि गइल. अब छोटको शहर कस्बा में रहे वाला लोग एह गाना के मर्म बखूबी महसूस करे लागल बाड़े आ अपना जिनिगी के बेरंग होखत देखला का बावजूद कुछ कर पावे के बेंवत नइखे.

फौरी तौर पर हमनी का एकरा के समाज के बदलत चेहरा, भारतीय संस्कारन के खतम होखे के मिसाल, परिवारन के टूटे के प्रक्रिया, ‘एकला चलो रे’ के हमनी के चाहत, न्यूक्लियर परिवारन के चलन, कंज्यूमर कल्चर के प्रचलन अउर ना जाने का का कहि के कन्नी काट सकीलें. कुछ लोग, खासकर के मनोवैज्ञानिक, एह अकेलापन के एहसास के भा फेर एकरा से पीड़ित आदमी के मानसिक रूप से कमजोरो मान सकेलें.

बाकिर का इहे साँच बा ? का इहे ऊ कारण रहली सँ जवना चलते नोएडा में दू गो बहिन छह महीना ले अपना आप के पूरा दुनिया से काट के रखली सँ. खाइल बन्द कर दिहली सँ. कंकाल बनि के मौत के इंतजार करत एह दुनु बहिनन के टीवी पर देखके का रउरा इहे लागल कि अपना एह हालत खातिर ऊ खुद जिम्मेदार रहली सँ. का ई दुनु बहिन मानसिक रूप से अतना कमजोर हो गइल रहीं सँ कि मउअते एकमात्र रास्ता बाचल रहे ? का रउरा मानत बानी कि इंजीनियरिंग अउर अकाउंटिंग की पढ़ाई कर चुकल दुनु बहिनन में जिनिगी जिए के कवनो जज्बा बाचले ना रहे. महज बाप महतारी के मौत आ भाई से नाता टूटला का चलते ऊ दुनु अपना के मेटा दिहल बेहतर मनली सँ.

ना. ई साँच त कतई ना हो सके.

कम से कम एक बात त दावा से कहल जा सकेला – अपना-आपके तिल-तिलके, रोज मरत देखे खातिर जवना हिम्मत के जरूरत होखेला ऊ कवनो मानसिक रूप से कमजोर भा विकृत आदमी में ना हो सके. सामान्य जिनिगी जिये के आदी एह दुनु बहिनन में जिये के चाहत पुरजोर रहल होखी. एकनियो के तमन्ना रहल होखी कि आपन एगो घर होखो, मरद होखसु, बाल बच्चा होखऽ सँ, सास ससुर होखसु, भरल पूरल परिवार होखे, नौकरी होखे, दोस्त होखसु, रिश्तेदार होखसु – ऊ सबकुछ, जवन हर केहू अपना जिनिगी में चाहेला. लेकिन कहीं ना कहीं कवनो खता रह गइल होखि आ फेर शुरु भइल होखी जिनिगी में खालीपन के ऊ सिलसिला जवना में ई दुनु बहिन एहतरह बिलात चल गइली सँ कि अपना आपे के मेटा देबे के ठान लिहली सँ. आ ई उहे बाति बा जवना पर हमनी सब के गौर करे के जरूरत बा.

हमनी के ई सोचे के चाहीं कि आखिर हमनी के आसपास जे लोग बा, जे हमनी के करीबी दोस्त ह, जे हमनी के हित मित बा, ऊ लोग का अब अतना बेजाँय बेकार हो गइल बा कि ओह लोग का तरफ ध्यान देबे खातिर हमनी का लगे समये नइखे रहि गइल ? हमनी सब अपना काम में अउर अपना पारिवारिक उलझन में का अतना अझूरा गइल बानी जा कि केहु दोसरा खातिर समय निकालल हमनी खातिर बहुते बड़हन बाति हो गइल बा ? हमनी का त अपना दफ्तर के तनाव के परिवार पर हावी कर लिहिला जाँ आ फेर परिवार के दबाव से खुद के बचावे खातिर बाजार के रास्ता धर लेनी जा. टीवी चलाके पूरा परिवार टकटकी लगवले अपने अपने दुनिया में डूबल बिलाइल रहेला अगर ओकरा से फुरसत मिले त कंप्यूटर पर भा आईपॉड पर लागल रहेनी जा. आ अगर ईहो ना होखे त हमनि का सूतत रहेनी जा.

अरे भाई, जब हमनिये का अपना-आपसे फुरसत नइखीं पावत त फेर केहू दोसरा खातिर वक्त कहाँ से निकाल सकीलें. हमनी का खुद ही अकेले रहल चाहत बानी जा आ जब अपना अकेलापन से मन उबियाले तब जा के आसपास पर नजर पड़ेला. अपना परिवार के, अपना दोस्तन के, अपना हिताईमिताई के तूड़े खातिर जतना हमनी का खुद जिम्मेदार बानी जा ओतना ऊ लोग नइखे जे हमनी का आसपास बा.

तनी याद करीं, पिछला बेर कब हमनी में से केहू अपना महतारी, बापर, बीबी, बेटा भा बेटी का साथ बइठ के बेतरती के गप मरनी जा. कब हमनी में से केहू ई जाने के कोशिश कइल कि ऊ बहिन जे अपना पारिवारिक उलझन का बावजूद हमनी का हाथ पर राखी बान्हेले ओकर घर कइसे चलत बा. ऊ भाई जेकर बीवी काम का सिलसिला में कुछ दिन खातिर कवनो दोसरा शहर गइल बिया ओकर बच्चा घर पर आपन काम कइसे करत बाड़न सँ. फोने पर बेटा के आवाज सुनके दिनभर खुशी से गावे गुनगुनावे वाली महतारी से कब हमनी में केहु ई पूछल कि माई तोर गोड़ के दर्द बढ़ल त नइखे. हमनी का ई सब ना पूछीं. हँ ई जरूर कहीलें सँ कि आजु का जमाना में परिवार बाचल नइखे.

अगर नोएडा के दुनु बहिनन से ओकनी के भाई हर दिन बतियवले रहीत, पूछले रहीत कि तू सब ठीक बाड़ू सँ नू, ना होखे त कुछ दिन खातिर बंगलुरु आ जा सँ – 6 महीना में एकहू बेर वक्त निकालके ओकनी से भेंट करे नोएडा आइल रहीत त का ऊ दुनु एही तरह टकटकी लगवले मउवत के इन्तजार करती सँ ? अगर ओकनी के कवनो सखी दोस्त ओकनी से बतियवले रहीत, ओकनी के मानसिक स्थिति समुझे के कोशिश कइले रहीत, त का ई दुनु खाइल-पियिल एह तरह छोड़ले रहती सँ ? अगर आसपास रहे वाला ओकनी के कवनो संबंधी ओकनी के पीड़ा, ओकनी के दर्द समुझे के कोशिश कइले रहीत त का आजु ओकनी में से कवनो के जान गइल रहीत, शायद ना.

एह हादसा के सिर्फ एगो नाम दिहल जा सकेला – हमनी के खुदगर्जी.

एको बेर सही, एह दुनु बहिनन के दिमाग अगर हमनी का पढ़े के कोशिश करीं, त का कुछ ना बितल होखी एकनी पर. सबसे पहिले दुनिया से खुद के काटल. हर तरह के मनोरंजन से खुद के महरूम कइल. हर रिश्ता से अपना-आपके अलगा कर लिहल. अपना हर चाहत के सिरे से कूंच दिहल. ख्वाहिशन के खून कर दिहल. तन्हाई के चादर एह तरह से ओढ़ल कि ओकरा पार कुछ न आ पावे. फेर एह सदमा के अपना भीतर एगो जख्म का तरह पोसल कि बाप-महतारी के मौत का बाद ओकनी का जिनिगी में कुछ ना बाचल. ओकरा बाद अपना आप के अतना मजबूत कइल कि अब तिल-तिल के मुअले ओकनी के नियति बा. भूख से कुलबुलात आंतन के दर्द के दिमाग के एकजुटता से मेटा दिहल. कमजोर पड़त पसलियन आ कांपत हाथन के थरथराहट के इरादा के एकाग्रता से नजरअंदाज कर दिहल आ फेर कंकाल बनके अपना बिगड़त चेहरा पर मौत के झुर्रियन के गँवे-गँवे गहिरात देखल. एहिजा त लिखल मुश्किल भइल बा, ई बह‍िन जवन झेलले होखीहन सँ ओकरा के महसूस कर सकल शायद हमनी में से केहू खातिर नामुमकिन बा.

आ एह बेतरत जिनिगी आ बेवजह मौत के जिम्मेदार बानी सँ हमनी का – हमनी का जे एतना खुदगर्ज हो चुकल बानी सँ कि हमनी का लगे केहू खातिर वक्त हइये नइखे.

आज 80 के दशक के ओह गाना के मुखड़ा होखल चाहीं… ‘सीने में जलन आंखों में तूफ़ान-सा क्यूं है. इस शहर में हर शख़्स इतना खुदगर्ज सा क्यूं है.’


पाण्डेय हरिराम जी कोलकाता से प्रकाशित होखे वाला लोकप्रिय हिन्दी अखबार “सन्मार्ग” के संपादक हईं आ ई लेख उहाँ का अपना ब्लॉग पर हिन्दी में लिखले बानी.

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(1)


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(3)


24 जून 2023
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(4)

18 जुलाई 2023
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सहयोग राशि - एगारह सौ रुपिया


(7)
19 नवम्बर 2023
पाती प्रकाशन का ओर से, आकांक्षा द्विवेदी, मुम्बई
सहयोग राशि - एगारह सौ रुपिया


(5)

5 अगस्त 2023
रामरक्षा मिश्र विमत जी
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