बढ़ावन – 2 : भोजपुरी लोक के गृहस्थ-संस्कृति

by | Aug 23, 2015 | 0 comments

– डाॅ. अशोक द्विवेदी

AKDwivedi-Paati
गंगा, सरजू, सोन का पाट में फइलल खेतिहर-संस्कृति दरसल “परिवार” का नेइं पर बनल गृहस्थ संस्कृति हऽ. परिवार बना के रहे खातिर पुरुष स्त्री क गँठजोरा क के बिवाह संस्कार से बान्हल आ मर्यादित कइला का पाछा सृष्टिकारी कर्म के गति देबे क भावना रहे. घर के कल्पना बे घरनी संभवो ना रहे. एही से जेकर बियाह ना होय भा जे अकेल रहे ओके बाँड़ (वांण) आ बंड कहल जाव. सिरजन आ मानवी विकास खातिर पोथी पुराण आ रामायण-महाभारत जुग के लोकजीवन में एह परिवार-संस्कृति का दिसाईं आस्था आ विश्वासे लउकेला. हमन का भोजपुरी क्षेत्र में अब तऽ कृषि-संस्कृति क मय पाया धीरे धीरे थसके-भिहिलाए लागल बा. नया जुग के नया बयार आ मशीनी प्रभाव संवेदना आ आस्था प टिकल तंत्रे के ढाहे में लागल बा. खेत जोते, बिदहे, दँवरी करे, रहट-मोट वाला सिंचाई करे भा तेल आ रस निकाले खातिर पेराई करे वाला बैलन के जगहा टेक्टर, थ्रेसर, क्राशर ले लिहले सऽ. साँच पूछीं त ऊ बैल त हमन के संग साथ देबे आ गाड़ी घींचे वाला हमन के भाई रहले स. ऊ महादेव के नन्दी गृहस्थ जीवन क धुरी बन के परिवार क गाड़ी घींचे खातिर बैल बन के सँगे रहसु. महादेव हमन का धारना आ विश्वास में भोला आ औढरदानी रहलन बाकि ऊ अपना परिवार का कारने लोकदेव बनलन.

गनेश आ गउरी शुभ, शान्ति आ सुख समृद्धि क वाहक बन के हमन का गृहस्थ-लोक में समाइल रहे. एही से नन्दियो महराज बैल रूप में हमन क सहायक आ संरक्षक बन गइलन. उनहीं का चलते उनकर गऊ माता गृहस्थ क माता हो गइली. लड़िकन के अपना दूध से युवा बनावसु त बृद्धन के पोसन क के अरदुवाइ बनवले राखसु. पहिले बैल गृहस्थ का पुरुषारथ, शक्ति आ सामरथ क पहिचान रहले सऽ आ गाय ओकरा धन में गिनल जासु. गऊ रूप में ऊ धरती का ऊपर दूसर माता रहली. एहीसे उनकर गोबर होखे भा मूत; कुल्हि पवित्र मनात रहे. एतना पवित्र कि बरिजल जगहो प उनकर गोबर मूत छिरिक के पवित्र क लियाव; घर दुआर त लिपइबे पोतइबे करे; गृहस्थ का हर पहिल क्रिया आ अनुष्ठान में गाइ क गोबरे कामे आवे आ सुखाइयो गइला पर पवित्र ईंधन बने खातिर गोइंठा आ चिपरी बन जाय.

खेत से फसल कटाइ के खरिहाना आवे ओकरा पहिलहीं गोबर से धरती लिपाव. दँवरी हो गइला प अन्न का राशि पर इहे गोबर “बढ़ावन” बन के रखाव. बढ़ावन राखे का बेरा ना कवनो पंडित के ना पोथिये पतरा क जरूरत पड़े. “बढ़ावन” (वृद्धिकर्ता) खाली एगो टोटका ना रहले, सरधा बिश्वास से बनल बिघिनहर्त्ता गनेसजी रहले. महादेव पारबती पुत्र गनेसजी “बढ़ावन” बनके जहाँ बइठि जायँ; बिघिन बाधा आ उपदरो के का मजाल जे गृहस्थ का उपराजन के कवनो क्षति पहुँचे ? लरिकाईं में आ फेर बड़ो भइला पर हमहन के ना बुझाव. दरसल लोक व्यवहार आ ओकरा आचार बिचार क रहस्य समुझले पर बुझाला.

गोबर क गनस आ गोबरे क गउरी अच्छत-जल दूबि चढ़ते मूर्तिमान हो जाला लोग. लोक विश्वास के ई दृढ़ता आजु ले काहें बनल बा ? कारन बा कि गृहस्थ लोक के अधिष्ठात्री गौरी ‘परिवार’ का पालन खातिर अनपुरना (अन्नपूर्णा) बन गइली आ पहरा देबे खातिर गणेश जी बढ़ावन बन गइले. कृषि समाज आ खेतिहर संस्कृति उनके अनपुरना माई मनलस त बनवासी आ आश्रमन के रिसि-मुनी लोग उनके शाक पात फल फूल कंद मूल तरकारी क देवी “शाकम्भरी” मान के सरधा देखवलस. हमनी किहाँ चइत का नवरात में मइया हमहन का गृहस्थी के कुशल क्षेम जाने आ मंगल करे आवेली. लोक उनकर अगवानी धधाइ के करेला. कुवार का नवरात में इनका पूजन के अउरियो निहितार्थ बा. अनपुरना रूप हरियर साड़ी वाला उनकर गृहस्थ रूप ह. लाल साड़ी में उनकर पूजा दुर्गा रूप में होला. गौरी पारबती रूप गृहिणी वाला पारिवारिक रूप हऽ. केश बिखेरले करिया कलूठ, जीभि कढ़ले उनकर काली रूप प्रकृति रूप हऽ; जवन अनेत आ अत्याचार से क्रुद्ध दंड देबे में ना हिचकिचाय. लोक उनका प्रकृति रूप का निरंकुश आ क्रोधी सभावो क ओइसहीं मनलस जइसे उनका गृहस्थ गौरा पारबती वाला रूप के मनलस. गउरा महादेव गृहस्थ संस्कृति क आदर्श जोड़ी मानल गइलन. अड़भंगी शिव के शमशान से गृहस्थ जीवन में ले आवे वाली इहे गौरा करिया प्रकृति रूप छोड़ के गोर सुन्दर घरनी बन गइली. उनका बिना जइसे कैलाश सून रहे ओइसहीं काशी. ‘बे घरनी घर भूत क डेरा’ वाला कहाउत बुझला एही से बनल.

खेतिहर संस्कृति के आदिदेव महादेव आ गृहस्थ संस्कृति क आदिदेवी गउरा भलही़ शास्त्र आ पोथी पुराण मे़ं ‘पुरुष’ आ’प्रकृति’ भा शिव आ शक्ति रहे लोग बाकि लोक उनके अपने ढंग से अपना गृहस्थी आ पारिवारिक जीवन में अपनवलस. दूनों का संयोग आ मिलन के अपना गिरहस्ती क अधार मनलस.

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