साल २०२५ में कहल जाई : एगो लोक भाषा होखत रहुवे


बाजार के दबाव में तिल-तिल कर के मरत भोजपुरी भाषा के दुर्दशा लेके हम कुछ समय पहिले एगो उपन्यास लिखले रहीं “लोक कवि अब गाते नहीं.” इंडिया टुडे में एकर समीक्षा लिखत मशहूर भाषाविद् अरविंद कुमार तारीफ के पुल बान्हत एगो सवालो लिख दिहलन कि अगर लेखक के भोजपुरी से अतने लगाव रहुवे आ भोजपुरी के अतने चिंता बावे त ई उपन्यास भोजपुरिये में काहे ना लिखलें? हिंदी में काहे लिखलें? हमरा खातिर ई सवाल ना तमाचा रहुवे. बाकिर सवाल ई रहे कि अगर हम ई उपन्यास भोजपुरी में लिखबो करतीं त ओकरा के पढ़ीत भला के? एहू ले बड़हन सवाल रहुवे कि ओकरा के छापित के आ काहे? हम उनुका के ई बाति बतावत बहुते तकलीफ से लिखनी कि घबराईं जिन, उहो दिन दूर नइखे जब हिंदी के दुर्दशा पर कवनो उपन्यास अंगरेजी में लिखल जाव. त फेर रउरा पूछब कि ई हिंदी में काहे ना लिखाइल? अरविंदजी हमार तकलीफ समुझनी आ मननी कि ई त बा!

अइसनका में ई सवाल बहुते गूढ़ बा कि साल २०२५ में भारतीय लोक भाषावन के हालत का होई? लेकिन शायद ई दुसरका सवाल होखी. पहिला सवाल त ई होखी कि साल २०२५ में हिंदी के हालत का होई? आ फेर ओकर हैसियत का होई? अबही त आलम ई बा कि हर छठवाँ मिनट एगो हिंदीभाषी अंगरेजी बोले लागत बा. चउँकावे वाली ई बाति एंथ्रोपोलिजकल सर्वे आफ इंडिया अपना ताजा रिपोर्ट में बतवले बिया. संतोष अतने बा कि हर पाँचवा सेकेंड पर हिंदी बोले वाला एगो बच्चा पैदा हो जा ता. कहे के मतलब ई कि हिंदी बाचल रही. बाकिर सवाल ई बा कि ओकर हैसियत का रही? काहे कि ई रिपोर्ट एह बाति के तसल्ली त देत बा कि हिंदी भाषियन के आबादी हर पांच सेकेंड में बढ़त बा. लेकिन साथही इहो चुगली करत बा कि हिंदी भाषियन के आबादी बेतहाशा बढ़त बा. आ जवना परिवार में सवांग बेसी होले, ओकर दुर्दशा कइसे आ कतना होला इहो हमनी का जानत बानी. आजु के तारीख में दावा बा कि २० करोड़ से अधिका लोग भोजपुरी बोलेला. लेकिन ई आंकड़ा ह. जमीनी हकीकत एकरा से कोसों दूर बा. हकीकत ई बावे कि तमाम माँग का बावजूद आजु ले भोजपुरी संविधान के आठवीं अनुसूची नइखे आ सकल. जबकि दू अढाई लाख लोग के भाषा डोगरी भा कुछ लाख लोग के भाषा नेपाली एह अनुसूची में बाड़ी सँ.

आजु गाँवो-देहात में भोजपुरी आ अवधी जइसन भाषा बिलाइल जात बाड़ी स. लोग अंगरेजी फेंटल खड़ी बोलौ बोलत बा. “दो साल तक टॉक टाइम फ्री” आ “लाइफ टाइम प्रीपेड” जइसन विज्ञापन गाँवों में लहालोट बा. एके साथ अंगरेजी आ बाजार के दबाव अतना बेसी बा कि लोक भाषा त का हिंदी जइसन बड़हनो भाषा अपना के बचा ले जाव, इहे बहुत रही. हालांकि बाजार पर नजर डालीं आ अखबारी रिपोर्टन पर गौर करीं त पता चलत बा कि एह घरी मुंबई तक ले भोजपुरी फिलिमन के बहार बा. भोजपुरी सीडी आ कैसेटन से बाजार अटल पड़ल बा. बाकिर अश्लीलता, फूहड़ता अउर लंपटई के सगरी हद तूड़त ई फिलिम, कैसेट आ सीडी भोजपुरी के दाग लगावत ओकरा के बेमौत मारत बाड़ी सँ. हालांकि अमिताभ बच्चन जइसन लोगो भोजपुरी फिलिमन में काम करत बा, ई बतावल जात बा. अमिताभ बच्चन के कुछ फिलिम भोजपुरी में डबो भइल बा. लेकिन भोजपुरी के ई बाजारु छवि ह. सचाई त ई बा कि भोजपुरी अवधी समेत तमाम लोक भाषा एह तरह उपेक्षित बाड़ीं कि अगर इनकर तुलना करे के होखो त कहब कि अधिकतर मध्यवर्गीय घरन में जइसे बुढ़वा-बुढ़िया महटियावल आ अपमानित एगो कोना में खांसत-खंखारत बोझ बनल पड़ल रहेले, हमहन के लोको भाषा के उहे गति बा. जइसे कमजोर बूढ़ हर घड़ी अपना मौत के इंतजार करत रहेले. हमहन के लोक भाषा के हाल ओहू ले खराब बा. का पता साल २०२५ से पहिलही हमनी के लोक भाषा एक एक कर आपन प्राण छोड़त जा सँ. आ हमनी के सरकार ओहनी के बचावे खातिर परियोजना बनावत लउके. जइसे कि पाली आ संस्कृत का संगे भइल बा.

बाकिर का परियोजना भाषा बचा पावेले? आ कि सरकारी असरे भाषा बाच जाली सँ? अगर बाच सकती सँ उर्दू कबे बाच गइल रहीत. साँच त ई ह कि कवनो भाषा बाचेले त सिर्फ एह चलते कि ओकर बाजार का बा? ओकर जरूरत कतना बा? आ ओकर डिमांड कतना बा? ऊ रोजगार दे सकेले का? अगर ना त कवनो भाषा के हम आप का, केहू ना बचा सके. अगर संस्कृत, पाली आ उर्दू जइसन भाषा बेमौत मरली सँ त सिर्फ एह चलते कि ओ रोजगार आ बाजार के भाषा ना बन पवली सँ. चाहे उर्दू होखो, संस्कृत होखो भा पाली जब ले ऊ कुछ रोजगार दे सकत रहल, चलल. पाली के त अब केहू नामोलेबे वाला नइखे रहि गइल. बहुते लोग के त इहो ना जानत होखी कि पाली नाम के कवनो भाषा रहुवे. इतिहास के पन्ना के बात हो गइल पाली. लेकिन संस्कृत? ऊ पंडितन के भाषा मान लिहल गइल आ जनता छोड़ दिहलसि. एहू चलते कि ऊ बाजार में ना पहिले रहुवे ना अब कवनो उमेद रहि गइल बा. उर्दू एक समय देश के मुगलिया सल्तनत में माथे चढ़ के बोलती रहे. ओकरा बिना कवनो नौकरी मिलल मुश्किल रहुवे. जइसे आज रोजगार आ बाजार में अंगरेजी के धमक बा तब उहे धमक उर्दू के होखत रहुवे. बड़हन-बड़हन पंडित लोग तब उर्दू पढ़त-पढ़ावत रहुवे. मुगलन का बाद अंगरेज अइले त उर्दू गँवे-गँवे हाशिया पर चल गइल. फेर जइसे संस्कृत के पंडितन के भाषा मान लिहल गइल रहे, वइसहीं उर्दू मुसलमानन के भाषा मान लिहल गइल. आजु का तारीख में उत्तर प्रदेश आ आंध्र प्रदेश में राजनीतिक कारणन से वोट बैंक का फेर में उर्दू दूसरकी राजभाषा के दर्जा भलही पा गइल होखे, रोजगार के भाषा अब ऊ नइखे रहि गइल. आ ना ही बाजारे के भाषा बिया. से, उर्दूओ अब इतिहास में समात जात लउकत बिया. उर्दू बचावे खातिर राजनेता आ भाषाविद् योजना-परियोजना के बतकही करत रहेले. पुलिस थाना आ कुछ स्कूलो में मूंगफली का तरह उर्दू-उर्दू भइल. बाकिर ई नाकाफी बावे आ मरलो से बाउर बा.

हँ, हिंदी एने होश सम्हरले बिया आ होशियारी देखवले बिया. रोजगार के भाषा आजू भलही अंगरेजी होखो, बाजार के भाषा त आजुओ हिंदीए बिया. आ लागत बा कि आगहू बनल रही का, दउड़बो करी. कारण ई बा कि हिंदी विश्वविद्यालीय हिंदी के खूंटा उखाड़ दिहले बिया. शास्त्रीय हद तूड़त हिंदी अपना के बाजार में उतार लिहले बिया. आ हमनी का विज्ञापन देखत बानी कि “दो साल तक टॉक टाइम फ्री” , “लाइफ टाइम प्रीपेड”. “दिल माँगे मोर” त हमनी का कहही लागल बानी. एतने ना अंगरेजी अखबार अब हिंदी शब्दन के रोमन में लिखत आपन अंगरेजी हेडिंग बनावे लागल बाड़े. अरविंद कुमार जइसन भाषाविदो कहे लागल बाड़न कि विद्वान भाषा ना बनावसु. बाजार से भाषा बनेले. व्यापार आ संपर्क से बनेले. हिन्दी बहुते सगरी अंगरेजी, पंजाबी, कन्नड़, तमिल वगैरह शब्दन के आपन बना लिहले बिया. एहसे हिंदी के बाचल रहला के आसार त लउकत बा. बाकिर लोक भाषा सब ई लचक अबही ले नइखी देखवले सँ. गोस्वामी तुलसीदास अगर अवधी में रामचरित मानस ना लिखले रहितन त हम पूछत बानी कि आजु हौखित कहवाँ? एही तरह अगर भिखारी ठाकुर भोजपुरी में “बिदेसिया” आ “आरा हिले बलिया हिले छपरा हिले ला. हमरी लचके जब कमरिया सारा जिला हिले ला”, जइसन कुछ लोक गीत ना लिखले रहीतन त भोजपुरी कहाँ होखीत? भोजपुरी, अवधी, ब्रज, बुंदेलखंडी, मैथिली, मगही, वज्जिका, अंगिका, कन्नौजी, कुमाऊंनि, गढ़वाली, छत्तीसगढ़ी वगैरह तमाम लोक भाषा तेजी से बिलाए का राह पर बाड़ी सँ.

आजु त हालात ई बा कि लोक भाषा सभ के जवन सबले बड़हन थाती रहुल ऊ रहल संस्कार गीत आ श्रम गीत. आजु हमनी से संस्कार गीतो बिला गइल बा. शादी ब्याह में, मुंडन निकासन में तमाम अउरी सगरी मौकन पर गावल जाए वाला संस्कार गीतन के जगह अब फिल्मी पैरोडी ले लिहले बाड़ी सँ. लेडीज संगीत ले लिहले बिया. भजन आ पचरा का जगहा अश्लील फिल्मी पैरोडियन वाला भजन आ देवी गीत सुनाए लागल बा. श्रम गीत ते कब के विदा हो चुकल बा. गरज ई कि सगरी लोक भाषा लोग का ठेंगा पर आ गइल बा. त अइसना में अचरज का साल २०२५ ले लोक भाषा सभ अपना के सरिहावे खातिर भीख मांगे लागऽ सँ. निश्चिते ई हमनी के आ हमहन के समाज के सबले दुखदाई बाति होखी. ठीक वइसने जइसे कि कवनो बहुते पढ़ल-लिखल कैरियर प्रेमी लड़िका अपना महतारी के माई कहे से कतराए लागे. का त ओकर माई पढ़ल-लिखल ना हिय. ओकर फिगर ठीक नइखे. ऊ समाज में उठे-बइठे लायक नइखे. त जइसे कवनो कैरियर प्रेमी लड़िका एह कारणन से अपना महतारी के माई ना कहे आ लजाला, ठीक वइसहीं का हमनियो सभ अपना मातृभाषा का साथ आजु उहे नइखीं करत जा? मातृभाषा जवन हमनी के लोक भाषा हईं सँ. जवना के बोले-बरते से हमनी का लजात बानी जा. जियते जियत मारत बानी जा. एह पर हमनी के सोचे का चाहीं कि आखिर अइसन काहे करत बानी जा? अपना महतारी के जान काहे लेत बानी जा?

सरोकारनामा पर प्रकाशित लेख के भोजपुरी उल्था


लेखक परिचय

अपना कहानी आ उपन्यासन का मार्फत लगातार चरचा में रहे वाला दयानंद पांडेय के जन्म ३० जनवरी १९५८ के गोरखपुर जिला के बेदौली गाँव में भइल रहे. हिन्दी में एम॰ए॰ कइला से पहिलही ऊ पत्रकारिता में आ गइले. ३३ साल हो गइल बा उनका पत्रकारिता करत, उनकर उपन्यास आ कहानियन के करीब पंद्रह गो किताब प्रकाशित हो चुकल बा. एह उपन्यास “लोक कवि अब गाते नहीं” खातिर उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान उनका के प्रेमचंद सम्मान से सम्मानित कइले बा आ “एक जीनियस की विवादास्पद मौत” खातिर यशपाल सम्मान से.

वे जो हारे हुये, हारमोनियम के हजार टुकड़े, लोक कवि अब गाते नहीं, अपने-अपने युद्ध, दरकते दरवाजे, जाने-अनजाने पुल (उपन्यास, बर्फ में फंसी मछली, सुमि का स्पेस, एगो जीनियस की विवादास्पद मौत, सुंदर लड़कियों वाला शहर, बड़की दी का यक्ष प्रश्न, संवाद (कहानी संग्रह, सूरज का शिकारी (बच्चों की कहानियां, प्रेमचंद व्यक्तित्व और रचना दृष्टि (संपादित, आ सुनील गावस्कर के मशहूर किताब “माई आइडल्स” के हिन्दी अनुवाद “मेरे प्रिय खिलाड़ी” नाम से प्रकाशित. बांसगांव की मुनमुन (उपन्यास) आ हमन इश्क मस्ताना बहुतेरे (संस्मरण) जल्दिये प्रकाशित होखे वाला बा. बाकिर अबही ले भोजपुरी में कवनो किताब प्रकाशित नइखे. बाकिर उनका लेखन में भोजपुरी जनमानस हमेशा मौजूद रहल बा जवना के बानगी बा ई उपन्यास “लोक कवि अब गाते नहीं”.

दयानंद पांडेय जी के संपर्क सूत्र
5/7, डाली बाग, आफिसर्स कॉलोनी, लखनऊ.
मोबाइल नं॰ 09335233424, 09415130127
e-mail : dayanand.pandey@yahoo.com

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2 thoughts on “साल २०२५ में कहल जाई : एगो लोक भाषा होखत रहुवे”
  1. रउरा बिचार आ भोजपुरी से ए लगाव- जुराव पर हमरा संदेह नइखे। बाकी आपन बिचार, अबहीं ना रखेम काहे कि तनी समय कम बाऽ आ बात ढेर बढ़ जाई। बहुते बात बिना सबूत के बस बिद्वान लोगन के कहला भर से मानल चलल जाता, ई ठीक नइखे बुझात। एहूजा अरविन्द कुमार माने का हिन्दी आ भोजपुरी होला ? एक दू आदमी के चाहे बिद्वान लोगन के प्रभाव में साँच बात के, तर्क के, यथार्थ के, सबूत के नजरअंदाज कइल तनिको नीमन नइखे।

    जब सब लोग इतिहास लिखे लागे तऽ इतिहास बकवास मे बदल जाए के डर हो जाला, अइसन हमरा लाग रहल बाऽ।

    हर बात पर बहस कइला से अब हमरा फाएदा नइखे बुझात काहे कि केतनो चिल्ला के आ दोहरा के साँच बात कहला के फल पिछला एक साल में (भले ई समय बहुते कम होखे ) ईहे भइल बा कि जेकरा से बात कइनी चाहे कुछ जानहूँ के चहनी ऊ सर्वग्यानी बने के फेर में अपना के भारी भासा- सेवक आ बिद्वान- महान मानते रहल।

    जेकरा के देखीं, ऊ भासा में आपन नाया प्रयोग चला रहल बा, ऊहो बिना सहिस्नुता के।

    हमरा तरफ से अबहीं बिराम!

  2. आदरणीय पाण्डेय जी,

    रउरा एगो प्रतिष्ठित लेखक उपन्यासकार हईं आ रउरा लेखनी के हम बड़हन प्रशंसको हईं. राउर लेख रचना अकसर अंजोरिया पर प्रकाशितो करत रहीले. बाकिर एह लेख में लिखल रउरा कुछ बाति से हमरा विरोध बा. एह मुद्दा पर आपन बाति हम पहिलहूं कह चुकल बानी बाकिर जरूरी लागत बा कि फेर से ओह बाति के रेघरियावल जाव.

    महाराज जी, भोजपुरी के भोजपुरिये रहे दीं सभे. ओकरा के विद्वानन, श्लील लोगन के भाषा मत बनाईं सभे. भोजपुरिया संस्कार घुमा-फिरा के आपन बाति ना कहे. जवन कहे ला छाती ठोक के कहेला. नीमन लागो त ठीक, बाउर लागो त ठीक. हमार, माफ करीं, हम ना त विद्वान हईं ना विद्वता के कवनो दावा करीले. हम त बस एगो भोजपुरिया प्रेमी हईं जेकरा अपना भाषा से बेहद लगाव बा. आजु हम उहे कहे जात बानी.

    आपन बाति कहे से पहिले हम चाहब कि लड़िकाईं में पढ़ल एगो कहानी दोहरा दीं. एगो राजा के बाज एक बेर उड़त जा के एगो बुढ़िया का घरे बइठ गइल. हारल थाकल रहुवे से बुढ़िया ओकरा के पकड़ लिहलसि. देखलसि कि एकर चोंच टेढ़ बा, पंजो टेढ़-बाकुर बावे. से ऊ नोहरनी से बाज के सगरी नोह सोझ कर दिहलसि आ चोंचो के रेती मार के सपाट बना दिहलसि. अब ऊ बाज कवनो काम के ना रह गइल रहे. ना त बेचारा कवनो डाढ़ी पर बइठ सकत रहुवे ना कवनो शिकार के अपना पंजा से दबोच सकत रहे. चोंच त एह लायक रहिये ना गइल रहे कि कुछ खा सको.

    एह कहानी के बुढ़िया के नेकनीयति पर कवनो संदेह ना कइल जा सको. ऊ बेचारी त अपना जाने में ओह चिरई के निमन करे के काम कइलसि. ठीक ओही तरह भोजपुरी के सुधारे, ओकरा हालात पर दया दरसावे, ओकरा फूहड़पन के गरियाए वालन के नेकनीयति पर हमरा कवनो संदेह नइखे बशर्ते ओ लोग खुदहु भोजपुरिया होखे, भोजपुरी बोलत-बरतत होखे, भोजपुरी में कुछ लिखत पढ़त होखे. बाकिर फैशन परस्ती में भोजपुरी के “अश्लीलता” के विरोध करे वालन से हमार विनम्र विनती बा कि दया करीं जा. भोजपुरी श्लीलन के भाषा ना ह. एकरा के बोले बतियावे वाला लोग अश्लीले हवे, अश्लीले रही. काहे कि जे पढ़-लिख गइल बा से त भोजपुरी के हमेशा हीन मानी, बोली, समुझी आ कहल करी. भोजपुरी सिनेमा हमनी के श्लील समाज देखे ना जाव. भोजपुरी कैसेट ऊ सुने ना, भोजपुरी पढ़े लिखे ना. बस भोजपुरी के गरियावे जानेला. भोजपुरी अगर जिंदा बिया त ओही अश्लील लोग का चलते जे अबहियो अपना गँवार महतारी के आदर देला, ओकरा से प्रेम करेला.

    अब भोजपुरी के बात एक एक मुद्दा पर

    १. भोजपुरी के संविधान के आठवीं अनुसूची में जगहा नइखे मिलल.

    एकर सबले बड़का कारण बा कुछ हिंदी विद्वानन के विरोध. भोजपुरी समेत कुछ भाषा सभके आठवीं अनुसूची में शामिल कइल जाव कि ना एह खातिर केन्द्र सरकार सीताराम महापात्र कमिटी बनवले रहल. डा॰ सीताराम महापात्र कहेलें कि भोजपुरी के एह अनुसूची में शामिल करे के विरोध दोसरा भाषा वाला केहू ना कइल बाकिर हिंदी के बहुते विद्वान एकर सख्त खिलाफत कइलन.

    ओही हिंदी प्रेमियन का चलते भोजपुरी के आठवीं अनुसूची में राखे के के कहो ओकरा के भाषा तक ना मानल जाव. सरकार का नजर में ऊ त हिंदी के एगो उपभाषा हिय जवना के कवनो स्वतंत्र अस्तित्वे नइखे. आ जवना भाषा के स्वतंत्र अस्तित्वे नइखे ओकरा के कवनो अनुसूची में राखल जाव त कइसे. भोजपुरी के राजनीति करे वाला तमाम संगठन आ बड़हन विद्वान लोग एह बात के माँग ना करसु कि भोजपुरी के हिंदी से आजाद कइल जाव. ढेर दिन ले एकरा के हिंदी के चेरी बना के राख लिहल गइल अब त आजाद कराईं सभे. बाकिर ना. एह बात के माँग कवनो मंच से उठत होखो, कवनो सम्मेलन में प्रस्ताव पारित होखत होखो कि भोजपुरी के हिंदी से अलग भाषा मानल जाव. ई कम से कम हमरा जानकारी में नइखे. इहो जानत बानी कि हमार जानकारी बहुते सीमित हवे आ हो सकेला कि लोग एकर बात कइले होखे बाकिर ओहू हालत में हम चाहब कि एकर जानकारी दिहल जाव.

    २. भोजपुरी रोजी रोजगार के, कमाई के भाषा ना हिय.

    झूठ. सरासर झूठ. भोजपुरी से त अतना लोग कमात खात बा, कमाए खाए में लागल बा कि हिसाब नइखे. कमाई के भाषा ना हियऽ भोजपुरी त एकरा में अतना फिलिम कइसे बनत बाड़ी स, अतना कैसेट कइसे निकलत-बिकात बा? माफ करीं, भोजपुरी त बाजार के हिसाब से अतना ढर गइल बिया कि हिंदी वाला लोग बेचैन हो गइल बा. वाहत बा कि कइसहूं होखो एकर बाजार खराब कइल जरूरी बा. अगर भोजपुरी कमाई के भासा ना रहीत त अतना गैर भोजपुरिया एकरा पीछे ना भगते.

    ३. भोजपुरी फिलिम आ संगीत में अश्लीलता बहुते बा.

    भोजपुरी के “अश्लीलता” के सबले बेसी विरोध उहे लोग करत बा जिनका कमाई के भोजपुरी के बजारू भइला से नुकसान होखत बा. अगर हम झूठ कहत बानी त हिंदी फिलिमन के “अश्लीलता” के विरोध काहे नइखे होखत? शीला के जवानी आ मुन्नी बदनाम हुई हिंदी में त ठीक बा बाकिर भोजपुरी में ना? हिंदी में एकरा के हद से हद उत्तेजक गीत कह दिहल जाई बाकिर भोजपुरी में सीधे “अश्लीलता” के आरोप मढ़ दिआई. अरे भाई पहिले अश्लीलता के मतलब त समुझीं. अश्लील जे सभ्य ना होखो, अंगरेजी के वल्गर के समानार्थी हवे. वल्गर माने गँवार, गवई. अश्लीलता के इहे मतलब हमरा मालूम बा. एह हिसाब से भोजपुरी अश्लीलन के भाषा हवे आ हमरा एह अश्लीलता पर गर्व बा. बाकिर रूकीं. एहसे पहिले कि रउरा हमरा के गरियावल शुरू करीं हम चाहब कि बात साफ कर दीं. समाज जइसे-जइसे विकसित होखेला तइसे-तइसे ऊ अपना के तोपे ढाँके लागेला. आदिवासी समाज में छाती उघरले घर-बाजार करे वाली मेहरारूवन के देखल जा सकेला काहे कि ऊ अबहीं ले अतना नीचे नइखे गिरल कि ओकर सगरी धेयान ओहिजे टिकल रहे. भोजपुरी समाज गँवे‌-गँवे बढ़त त बा बाकिर एकर विरोध ओही लोग का तरफ से होखत बा जे भोजपुरी के इस्तेमाल ना करे. रहल बात फिलिमन के अश्लीलता के त दक्खिन भारत के मांसल देह वाली नायिकन का सहारे जइसन फिलिम चलल बनल करेली सँ वइसन त हमरा जानकारी में अबही ले भोजपुरी में नइखे बनल. आ भोजपुरी सिनेमा देखे वालन के भीड़ कवनो पार्न फिल्म देखेवाली भीड़ से बेसी होले कम ना. पार्न जायका बिगाड़ देला, घिन आवे लागेला थोड़िका देर का बाद. बाकिर रसगर, रसिक भाव में बनल फिलिम देख के मन में घिन ना उपजे.

    भोजपुरी के डोमकच, फगुआ, चइता जे ना सुनले होखे से त कह सकेला कि भोजपुरी में अश्लीलता बहुते बा. बाकिर हमरा हिसाब से भोजपुरी समाज में खुलापन बा, नंगई नइखे. परमिसिवनेस बा, न्यूडिटी नइखे.

    साथ ही सामाजिक परंपरा रहल बा कि महफिल में पूरा परिवार ना बइठे. बाकिर अगल बइठल बा त केहू के दोषो ना दिहल जाव. हँ भोजपुरी में कला फिलिम बने, बढ़िया वृतचित्र बने ई के ना चाही? हमहू चाहब. भोजपुरी में कुछ लोग अइसन निकलो जे रेणु के तीसरी कसम जइसन आंचलिक पृष्ठभूमि पर बनल भोजपुरी फिलिम बना सके. बाकिर ई मत कहल जाव कि वइसन होखे चाहे भा ना, “अश्लील” फिलिम मत बनो.

    ४. भोजपुरी लोक भाषा जल्दिये मर जाई.

    हमरा नइखे लागत. हँ, अगर एकर नोह दाँत चोंच काट दिहल जाव त जरूरे मर जाई. एह चलते हमार हमेशा से ई कहना रहल बा कि भोजपुरी के बकस दिहल जाव सरकार. ई जइसन बिया तइसने रहे दिहल जाव. ना त एकर हाल कौव्वा चला हंस की चाल जइसन हो जाई. ना एने के रही ना ओने के. श्लील समाज त एकरा के अपनावे से रहल, अश्लीलो समाज से एकरा के काट दिहल जाई. पाली, संस्कृत, लैटिन, ग्रीक वगैरह एहीसे मर गइली सँ कि ओहमें विद्वान बेसी हो गइले. व्याकरणाचार्य अतना हो गइले कि वल्गर समाज ओकरा से कटि गइल आ वल्गर अंगरेजी के अइसन अपनावल गइल कि आजु ऊ सबले बेसी बोले वाली भाषा बन गइल. भाषा के विकास के इतिहास त इहे बतावेला कि भाषा हमेशा श्लील से अश्लील का तरफ बढ़त जाले. श्लील भाषा व्याकरण का बंधन में, लाज का आवरण में तोपात दबात जाले आ अश्लील भाषा छाती उघरले आगा बढ़त जाले.

    ५. भोजपुरी बोले वालन के गिनिती कतना बा?

    अब ई बीस करोड़ बा कि बाइस करोड़ एकर त अंदाजे लगावल जा सकेला काहे कि जनगणना करत घरी भोजपुरी के भाषा का तरह गिनले ना जाव. आ जब गिनल ना जाई तब अंदाजे नू कइल जा सकेला..

    अब हम आपन बाति एहिजा खतम करत बानी एह उमेद का साथ कि एह पर व्यक्तिगत हमला ना कर के वैचारिक बहस चले.
    सादर,
    राउर,
    संपादक, अँजोरिया

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