-डाॅ. अशोक द्विवेदी

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आज दुनिया के बहुते भाषा मर-बिला रहल बाड़ी सऽ. एकर मतलब ई ना भइल कि जवन भाषा कवनो क्षेत्र-विशेष आ उहाँ के जन-जीवन में जियतो बाड़ी सऽ उन्हनियो के मुवल-बिलाइल मान लिहल जाव, जवन आजुओ अपना सांस्कृतिक समाजिक खासियत का साथ अपना ‘निजता’ के सुरक्षित रखले बाड़ी सऽ. सोच-संवेदन आ अनुभूतियन के सटीक, प्रासंगिक अभिव्यक्ति देबे में सक्षम आ शब्द-संपन्न अइसन भाषा-सब के सम्मान सहित सकारे में बहुतन के अजुओ हिचक बा. इन्हन कऽ स्वाभाविकता गँवारू आ पछुवाइल लागत बा आ भद्रजनन (?) का अंगरेजियत का आगा भाषा के संपन्नतो उपेक्षित हो जातिया. अइसनका ‘शिष्ट-विशिष्ट’ नागर लोगन का जमात में लुगरी वाला ‘लोक’ के अर्थे पिछड़ापन रहल बा. ऊ लोग अपना बनावटी आडंबर आ बड़प्पन में लोकभाषा के सुभाविक सिरजनशीलता के क्षणिक-मनरंजन के चीजु मानला. ई अंगरेजी दाँ अभिजात हिन्दीवादी लोग ‘अनेकता में एकता’ के गान करत ना अघाला, बाकि आपन भाषाई वर्चस्व आ दबंगई बनवला रखला खातिर, अनेकता के ‘अस्तित्व’ आ ‘निजता’ के नकरले में आपन शान-गुमान बूझेला.

ई ऊहे हिन्दी-प्रेमी (?) हउवे लोग जेके खुदे हिन्दी का दुर्दशा के परवाह नइखे रहल. ई अंग्रेजी के बनावटी आदर देई लोग बाकि अपना देश के लोकभषन के सम्मान पर हाय-तोबा मचावे लागी. भाषा का दिसाई गंभीर लउके वाला ई लोग तब तनिको विचलित ना होला, जब उनहीं के गाँव-शहर में उनहीं के आत्मीय लोग अपना भाषा का प्रति लगातार अगंभीरता के प्रदर्शन करेला. संवाद आ जनसंचार माध्यमन में भाषा के जवना तरह से लिहल जाये के चाहीं, वइसन ना भइला के कुछ वजह बाड़ी स. हमनी का खुद अपना बात-व्यवहार आ अभिव्यक्ति में भाषा के चलताऊ बनावत जा रहल बानी जा. अपना सुविधा आ सहूलियत का मोताबिक भाषा के अचार, मुरब्बा आ चटनी बना लिहल प्रचलन में आ गइल बा. ववाट्स ऐप आ फेसबुकिया ‘शार्ट कट’ के मनमानी के त बाते अलगा बा. हिन्दी के अंगरेजी में लिखे के फैशन भा मजबूरी बा. ‘एस एम एस’ आ ‘मेल’ भाषा का दिसाई हमन का लापरवाही आ हड़बड़ी के अलगे दरसावत बा. कवनो नियम, कवनो अनुशासन नइखे. भाषा के भितरी सांस्कृतिक चेतना नष्ट हो रहल बिया. ओकरा सुभाविक प्रवाहे के बदल दिहल जाता.

लोकभाषा त ओह दूब नियर हवे, जवन अपना माटी के कस के पकड़ले जकड़ले रहेले. ऊ बोले वालन के जीवन-संस्कृति आ चेतना के आखिरी दम तक बचवले रहेले आ ज्यों तनी खाद-पानी-हवा मिलल ऊ आपन हरियरी आ ताजगी लिहले जीवंत हो उठेले. भाषा के इहे गुन-धर्म लोक का गतिशीलता आ विशेषता के पहिचान देला. अपना देश में कतने अइसन लोकभाषा बाडी सऽ जवना में लोक के अंतरंग खुलेला आ खिलेला. जवना में अनुभव, बोध आ ज्ञान के अपार क्षमता-बल-बेंवत बा. ई परस्पर एक दुसरा से घुललो-मिलल बाड़ी सऽ, जइसे भोजपुरी-अवधी, भोजपुरी मैथिली, भोजपुरी छत्तीसगढ़ी, राजस्थानी, भोजपुरी अंगिका. ई कूल्हि लोकभाषा मिलिये-जुल के हिन्दी के जातीय विकास में सहायक भइल बाड़ी स आ हमन का राष्ट्रीय एकता के अउर पोढ़ बनवले बाड़ी सऽ. तबो का जने काहें जब एह भाषा-सब के निजता, सम्मान आ समानता क बात आवेला त कुछ कथित हिन्दीवादी राष्ट्रभक्तन (?) के खुजली होखे लागेला. मातृभाषा से विलग होखे के सबक ऊ लोग सिखावेला, जेके राजभाषा के तिजारती, दफ्तरी आ बाजारू घालमेल में बेपटरी भइला के तनिको चिन्ता नइखे, जे अंग्रेजी में हिन्दी-डे, ‘सेलिब्रेट’ करऽता. मीडिया चैनल, फिल्मकार आ नवकलाकार अपना कमाई खातिर, लोगन के चटोरपन का तुष्टि खातिर भाषा के जब जइसन चाहत बा तोड़-मरोड़ लेता. विज्ञापन से लगायत साहित्य तक भाषा के देसी-विदेसी खिचड़ी, चटनी, अचार सिरका बनावल जा रहल बा.

एने हिन्दी-भाषा में ‘अराजकता’ खुल के अठखेली करत लउक रहल बिया. गली-सड़क चौराहा के लंपट-लखैरा, भांड़ आ मसखरा भाषा-साहित्य में सदवचन आ सत्साहित्य उगिल रहल बाड़न सऽ आ हिन्दिये के कथित महान साहित्यिक लोग उन्हनी का उगिलला के साहित्य बना देत बा. लोकप्रियता खातिर भाषा में चमत्कारी घालमेल आ उटपटांग हरकत के पूरा छूट बा. ‘कचरा’ फइलावे वालन के महिमामंडनो होत बा, बस ऊ अपना ‘गोल’ भा ‘दल’ क होखे. एह अराजक-अभियान के हिन्दी भाषा-साहित्य के समझदारो लोगन क नेह-छोह-शह मिल रहल बा.

कुछ अपवाद छोड़ के भाषा के जिये आ प्यार करे वाला लोग पहिलहूँ कुछ करे का स्थिति में ना रहे आ अजुओ नइखे. भाषा के ठीकेदार, व्यापारी आ महन्थ पहिलहूँ तिरछा मुसुकी काटत रहलन सऽ आ आजुओ काटत बाड़े सऽ. हिन्दी में, तकनीकी आ व्यवहारिक शब्दन का आड़ में कतने देसी-विदेशी शब्द आ मोहावरा, पढ़े वालन खातिर अजब-गजब अर्थ उगिल रहल बाडन सऽ. भाषा के हिंग्लिसियावत जवन नव बाजारू हिन्दी बिया ओमें बोलियन क तड़को बा. कुछ विद्वान त एके हिन्दी के बढ़त-‘ग्राफ’ आ ओकरा ‘वैश्विक विस्तार’ से जोडत छाती फुला रहल बा लोग. माने हिन्दी में रउवा आपन मातृभाषा लेके घुर्सि आईं आ एकर ऐसी-तैसी करत अपना के ओही में विलय क दीं, बाकि खबरदार अपना मातृभाषा के मान्यता के नाँव मत लीं.

‘सत्ता’ आ ‘राजनीति’ दूनो – शिक्षा, संस्कृति आ भाषा के ठेका कुछ खास संस्था, अकादमी आ संस्थानन के देके आपन पल्ला झार चुकल बाड़ी सऽ. कुछ विश्वविद्यालयी विभागो एह दायित्व के पेशेवर ढंग से निभा रहल बाड़न सऽ. मीडिया चैनल आ भाषा-साहित्य के महोत्सव करे वालन क दखल अलग बा. करोड़न का कमाई खातिर कुछ फिल्मकारो ‘भाषा’ के ऐसी-तैसी करे क अधिकार पवले बाड़न सऽ. अब एमे भाषा खातिर गंभीरता देखावे, ओके संस्कारित-अनुशासित करे, के आगा आई? केहू का लगे अतना फालतू टैम नइखे. अगर बटलो बा त ऊ चिचियाइल करस. प्रलाप-रूदन आ विलाप-मिलाप खातिर साल में एगो दिन तय क दिहल बा. ओह दिन, याने ‘हिन्दी-डे’ पर रउवों आई-कुछ कहीं, कुछ सुनीं-फेरू घरे जाईं.

ई सब कहला-गवला क मतलब केहू क विरोध नइखे. दरसल भाषा-संस्थान आ अकादमियन क आपन विवशता भा आंतरिक-राजनीति आ कर्म-धर्म हो सकेला. एही तरे राजनीतिक दलन के आपन निजी स्वारथ आ फायदा-नोकसान क चिन्ता बा. ‘सत्ता’, सुविधा, पद, सम्मान आ पुरस्कार केके ना लोभावे? हमनी का खुदे अपना निजी स्वार्थ, जाति-धरम, क्षेत्र आ गोलबन्दी में बाझल बानी जा. आपुसी जलन, विखराव-विघटन आ हमनी क निजी पूर्वाग्रह सबसे बड़ रोड़ा बा. भाषा के कुछ पुरान-नया पैरोकारो चुप बाड़न सऽ. ऊ उहाँ जरूर बोलिहन सऽ, जब कवनो लोकभाषा के भारतीय भाषा-श्रेणी में-आठवीं अनुसूची में मान्यता देबे के बात आई. ओघरी हिन्दीवादियन के हिन्दी के बाँहि कटत लउके लागी आ राष्टं भाषा का रूप में राष्ट्रीय ता खतरा में नजर आवे लागी. ऊ ए सत्य के बेल्कुले भुला जइहें सऽ कि हिन्दी के एही लोक-भषन से संजीवनी आ शक्ति मिलल बा. ब्रजी, अवधी, मैथिली, भोजपुरी, राजस्थानी जन-भाषा के साहित्य से हिन्दी-साहित्य संपन्न भइल बा. आपन क्षेत्रीय भाषा-संस्कृति आ पहिचान भइलो पर, हिन्दी पट्टी के राज्य राष्ट्रीय एकता आ राष्ट्रीय संकल्पना के आकार देले बाड़न सऽ.

राष्ट्रीय भाषा का रूप में, आठवीं अनुसूची में जनभाषा भोजपुरी के शामिल भइला पर कुछ हिन्दीवादी लोगन द्वारा बार-बार विरोध समझ से परे बा. अनजाने अब ई विरोध भोजपुरी खातिर आवाज उठावे वालन का भीतर, हिन्दी का प्रति असहिष्णुता के जन्म दे रहल बा. ई शुभ नइखे. अगर हिन्दी के समृद्ध आ संपन्न होत देखे के बा त हिन्दी पट्टी के प्रतिष्ठित आ संपन्न भोजपुरी भाषा के आठवीं अनुसूची में ना शामिल भइल, अन्याय-पूर्ण बा. ‘भोजपुरी’ करोड़न हिन्दी-प्रेमियन के मातृभाषा हऽ. ओके समानता आ सम्मान के दरकार बा. करोड़ो भोजपुरिहा समानता आ स्वाभिमान का साथ, हिन्दी का भाषाई राष्टंवाद में शामिल रहल बाड़न सऽ. सामाजिक-सांस्कृतिक समरसता में ऊ बँगला, मराठी, गुजराती, तमिल, तेलगू, मलयाली, असमिया सबका साथ खड़ा बाड़न सऽ, फेर उन्हनी के आपन समृद्ध मातृभाषा काहें उपेक्षित रही ?

सभे जानत बा कि हिन्दी अपना बोलियन आ जनपदीय-भाषा सब से तत्व ग्रहण करत आइल बिया. कूल्हि हिन्दी-राज्य अपना भाषाई खासियत आ विविधता का साथहीं संगठित भइल बाड़न सऽ त साहित्यिक रूप से समृद्ध आ शब्द संपन्न लोकभाषा भोजपुरी के छल-पाखंड से उपेक्षित क के, भा धौंस जमाइ के, भा अपना वर्चस्व से, ओके रोके क प्रयास कइल करोडन भोजपुरिहन में क्षोभ आ आक्रोश के जनम देई. सब अपना भाषा में पलल-बढ़ल बा आ ओकरा अपना मातृभाषा से लगाव बा. एकर मतलब ई थोरे भइल कि ओके हिन्दी भा दोसरा राष्ट्रीय भाषा से विरोध बा. जेकरा भोजपुरी भावेला ओके हिन्दियो भावेला. एगो ओकर मातृभाषा हऽ दुसरकी राजभाषा.


(भोजपुरी दिशा बोध के पत्रिका पाती के 76 व‌ां अंक से साभार)

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