भोजपुरी लोक-रंग के प्रतीकःभिखारी

– डॉ0 अशोक द्विवेदी

अपना समय सन्दर्भ में भिखारी ठाकुर, अपना कला-निष्ठा आ कबित-विवेक वाला रंग-कर्म से अपना समय के सर्वाधिक लोकप्रिय कलाकार रहलन। ऊ लोकनाट्य-परम्परा का संगति (यूनिटी) से सँवारल, कतने नाट्यरूप-रूपकन के रचना कइलन, जेके ऊ बोलचाल के भाषा में ‘तमासा’ कहस। ई ‘तमासा’ उनकर ‘नटरंग’ रहे, जवन ओघरी सर्वजन-मन-रंजन के साधन बनल। ‘साटा’ पर जाए वाला, उनका मंडली के नाच आ तमासा (नाट्य-रूपक) बेटिकट बे पइसा के सरबजन-सुलभ रहे। हम अपना लड़िकाई में देखले रहलीं कि ‘भिखारी के नाच’ के खबर फइलते ‘नाच’ का दिने आसपास के गाँव आ अरियात-करियात के बूढ़, जवान, लड़िका सबकर भीड़ उमड़ परल रहे। हजारन लोग भिखारी का नाँव पर सूर बन्हले, साँझि होखे का पहिलहीं, नाच वाला गाँव का ओर जाए वाला राह-छवरि पकड़ लेव। दरअसल उमिर से बुढ़ात भिखारी के नाच से बेसी, भिखारी रचित-निर्देशित नाट्य-रूपक आ नाटके रहे। भिखारी कबिताई, नाच आ अभिनय सबमें प्रवीन रहलन आ उनका हर प्रस्तुति में दर्शकन का, अपना भाषा के गंध आ सवाद मिलत रहे। भोजपुरी ‘टोन’ आ बात-ब्योहार में काम आवे वाली भाषा में रचल-बनावल नाट्य-रूपक अपने जन-जमीन आ खित्ता (क्षेत्र) में काहे ना लोकप्रिय होइत? भिखारी अपना सुभाविक, (मौलिक) प्रस्तुति आ अभिनय कला से सगरी भाषा-समाज के व्यापकता से प्रभावित कइलन त एकरा पाछा इहाँ के जन प्रचलित भाषा के बड़ जोगदान रहे।

सुरूआत में भिखारी भलहीं गाँव-घर के ‘अनेरिया’ कहाय वाला लड़िका रहलन, बाकिर उनका भीतर भावी कलावन्त के बीजतत्व त रहबे कइल। खानदानी पेशा-हजामत बनावे आ लोगन का सेवा-टहल में उनकर रुचि ना रहे – कीर्तन आ गावे-बजावे वाला गोल बेसी रुचे। अच्छर ज्ञान का बाद कवनो खास लिखन्त-पढ़न्त ना भइल। कम्मे उमिर में बियाहो हो गइल। छूरा, कइँची, नोहरनी वाला खनदानी रोजिगार खाए-निबाहे के साधन।

कुछ दिन अइसहीं चलल, बाकि गीत-गवनई, भजन-रमायन आ स्वाँग-प्रहसन वाला नाच का दिसाईं रुझान का कारन, भीतर उदबेग बनल रहे। गाँव से कम, ननियउरा से ढेर लगाव का पाछा उनके उहाँ मिले वाला बिसेष सुतन्त्रता आ छूट, जवना में ऊ अपना रुचि वाला दोहा-कबित आ चौपाई लिखस-गावस आ एगो सपना कि उनकर आपन एगो मण्डली बने, जवना में उनका अनुसार स्वाँग-नाटक भा तमासा होखे। एतना आमदनी होखे कि उनकर आ उनका मण्डली के खरच-बरच सुबिधान चले। तुक बइठाव वाला साधारन कबितई उनका आवते रहे। बहुत कुछ जानल-सुनल का आधार पर लिखइबो-कइल। सपना पूर करे के चाह-चिन्ता कलकत्ता-बंगाल खींच ले गइल।

ओघरी भोजपुरी क्षेत्र अभाव आ गरीबी के शिकार रहे, मेहनत-मजूरी भा पइसा वाला नोकरी के सोत कलकत्ता-बंगाल रहे। अशिक्षा आ सोझबकई वाला बहुसंख्यक समाज के चन्हाँक, बनिया, सूदखोर धनपति आ जर-जमीन वाला वर्ग त शोषन करबे करे, चोर आ ठगो अलगा से लूटें स ऽ। भिखारी के बियाह लड़िकइये में भइल रहे, मन-मनाव में दुसरो बियाह हो गइल। रुपया-पइसा कमाए का लालच में ऊहो बंगाल के राह ध’ लिहले। ओ समय खड़गपुर-मेदिनीपुर, धनबाद, बरदवान के इलाका भोजपुरियन के जमावड़ा रहे। भिखारी गइलन त सँघतियन-सँग जगरनाथोपुरी घूमि अइलन। अइसन बात खोजी-विद्वान लोग बतावेला। महेन्दरो मिसिर कलकत्ता गइल रहलन। भिखारी के आदर्श आ गुरुतुल्य कहासु – उनका लोकधुन आ पारम्परिक लय धुन वाला गीतन से भिखारी बहुत प्रभावित रहले। बाकिर भिखारी का भीतर जवन लोकरंग आ रंगकर्म का प्रति गहिर लगाव आ जनून रहे, ओकरा कारन उनकर धेयान साज-बाज वाला मण्डली बान्हि के नाच-नाटक खेले के रहे। बंगाल-जात्रा से उनके बहुत बल मिलल-नाच-तमासा खातिर अनुभव आ मसाला मिलल। परोसे के लूर-सहूर आ कला में निखार अलगा से आइल।

कहल जाला कि भिखारी ठाकुर अपना गाँवें कम, ननियउरा ज्यादा रहसु – ननियउरा चन्ननपुर में, उनका लाएक साधन-सुबिधा आ स्वतन्त्रता तीनू रहे। बंगाल से वापसी का बाद, उनका तिसरकी बियाह के भी चरचा मिलेला। तुक-बइठाव वाला गीत-कबित लिखे आ गावे-सुनावे के भटक खुल चुकल रहे। कुछ साजो-बाज वालन से मेल-मुहब्बत हो गइल रहे। नतीजा में छोट-मोट मण्डली त बनिये गइल रहे। आतमकथ शैली में ऊ खुदे लिखले बाड़न-

तीस बरिस के उमिर भइल। बेधलस खूब कलिकाल के मइल।
घर पर आके लगलीं रहे। गीत-कबित कतहूँ केहु कहे।
अरथ पूछ-पूछ के सीखीं। दोहा छन्द निज हाथे लिखीं।।
निज पुर में करके रमलीला। नाच के तब बन्हनी सिलसिला।।

अपना साधन-संपर्क आ कुछ धनी लोगन का मदद से भिखारी आपन नाच-मण्डली बना लिहलन। साज-बाज आ गावे-बजावे वालन का साथ, नचनियो मिल गइले स ऽ। कुछ दिन अभ्यास आ रियाज का बाद उनके सार्वजनिक मंच पर नाच आ तमासा के ‘साटा’ मिले लागल। ई उनका मन जोग काम रहे। धीरे-धीरे लोकरंजन का एह काम में उनकर लोकप्रियता बढ़े लागल। आगा जाके ईहे ‘नाच’ उनका जीवन-निबाह आ कला-प्रसिद्धि के माध्यम बनल।

भिखारी के बिनयशीलता आ वाक्पटुता अइसन सुभाविक गुन रहे, जवना का बदउलत ऊ अपना जीवन काल में बहुत कुछ हासिल कइलन। अपना समकालीन कवि कलाकारन नेह-छोह, सीख-सहूर त पइबे कइलन, सहजोग आ साथो मिललं । साइत ई उनकर संस्कारगत विशेषता रहे। ऊ धरम-करम, नेत-बरक्कत, ईमान के बचावे के हमेसा कोसिस कइलन। अपना समय का समाज के अशिक्षा, ढोंग-ढकोसला, स्वारथजनित-छल-छहन्तर, नैतिक स्खलन सब कुछ जनला-बुझला का बावजूद, समाजिक मरजादा के विरुद्ध कुछ अइसन ना कइलन, जवन अनुचित कहाय। अपना नाच-गाना के लेके उनकर निजी प्रतिबद्धता जरूर रहे, जवना का चलते –

”छूरा छूटल, कइँची छूटल
बाबू लोग के हजामत छूटल
नाच के करनियाँ।

उनके इहे बुझाइल होई कि हजामत से दू-चार पइसा आ छोट-मोट मान-गुमान में भुलाइल रहला से नीक ई बा कि कुछ अलग ढंग से, जवन मन के भावे, ओही में कमाइल जाव। लोकरंजन का एह काम में यानी ‘नाच-गाना’ में, ना त उनकर विनयशीलता छूटल, ना भक्ति ना ‘भाव’ ना सरधा-विश्वास में कवनो कमी आइल। रामचरित मानस का चउपाई आ भजन-कीर्तन से जवन नीखि भेंटाइल ऊ उनका नाच-तमासा के मंगलाचरन आ गीत-गवनई में अन्त ले बनल रहल। ऊ कबि-हृदय रहलन, एसे अपनहूँ गीत-कबित बनाइए लेस। एह कुल उतजोग में उनके जवन, जहाँ से भेंटाइल ओके दिन खोल के अपना लिहलन। समकालीन कवियन में 1900 का आसपास अम्बिकादास, विश्वनाथ (बलिया वाला) शिवमूरत जी के चेला बीसू जी (‘बिरहा बहार’ के रचयिता), काशीनाथ, लालमणि, रसिक कवि आदि बहुत लोग रहे। ‘सुनु ए सजनी’ के लय-धुन रसिक कवि के एह दू पांतियन में देखल जा सकेला –

”अवध नगरिया से अइले बरियतिया ए सुनु सजनी
जनक, नगरिया भइले सोर ए सुनु सजनी।“

ओह काल खंड में कवियन के कुछ प्रचलित ‘टेक’ रहे – ‘ए देवरवा मोरा’ ‘ए ननदी मोरी’, ‘धरि लेहु ना!’, ‘जगाई गइले ना’, ‘सुरतिया ए हरी!’ भिखारी घूमत-फिरत, गवइयन से सुनले-सिखले रहले, निरगुनिहा-शिवदास, देवीदास कवि पन्नू के नाँवों ओह काल-खण्ड का कवियन में चर्चा में आवेला। बाबू रघुबीर नारायण के ‘बटोहिया’ गीत त अति प्रसिद्ध भुइल रहे। महेन्दर मिसिर जी के रमायन आ विरल लय-धुन वाला प्रसिद्ध ‘पूरबी’ गीतन के भिखारी ठाकुर पर गहिर असर रहे। ‘विदेसिया’ के गीत में ई असर स्पष्ट झलकत बा –

‘गवना कराइ सैंयाँ घर बइठवले
से अपने लोभइले परदेस रे विदेसिया!’
‘पिया गइलन कलकतवा ए सजनी!’

एही तरे भिखारी ठाकुर के राम-कृष्ण सम्बन्धी भक्ति-गीत आ भजन, निरगुन पर समकालीन रचनात्मक शैली के असर देखे के मिल जाई। साँच पूछीं त ओह काल खण्ड में महेन्दर मिसिर अपना गीत-गवनई आ मरम-छूवे वाला प्रेम, भक्ति गीत आ निरगुनिया-धुनो के ‘मास्टर पीस’ रहले। भिखारी ओही जवार के रहले आ ऊ मिसिर जी के बहुत आदर देसु, उनसे भेंट करे जासु, सीख-सलाहो लेस। भिखारी का कवि-व्यक्तित्व का निर्मान में महेन्दर मिसिर का उल्लेखनीय जोगदान के नकारल ना जा सके। एह सम्बन्ध में शोधकर्त्ता विद्वान आ मर्मी लोग- ( यथा महेश्वराचार्य, डा0 तैयब हुसैन, सुरेश कुमार मिश्र, डा0 जवाहर सिंह आ भगवती प्रसाद द्विवेदी) के विचार महत्वपूर्ण बा। महेश्वराचार्य जी का मोताबिक ‘महेन्द्र मिसिर जी, भिखारी ठाकुर के ‘रचना गुरु’ आ ‘शैली गुरु रहले।

‘कलिजुग बहार’, ‘राधेश्याम-बहार’, ‘बिरहा बहार’ आदि का साथ, सुमिरन-कीर्त्तन सम्बन्धी रचना का पाछे भिखारी के मूल कवि-सुभाव आ बिवेक के परिचय मिल जाई। चउपाई आ दोहा सोझ-सपाट वर्णनात्मक बा, गोस्वामी तुलसीदास जी लेखा काव्य-सुघराई आ सौष्ठव एहसे नइखे काहें कि भिखारी ढेर पढ़ल-लिखल ना रहले। कल्पनाशीलता जरूर रहे, बाकि ओहमें भाव आ कथ्य प्रबल रहे। तुक मिलाव से छन्द के ताल-मतरा बइठा लिहल, एहसे महत्वपूर्ण बनल कि लोक से उनकर सीधा भाव-संप्रेषन हो जाव –

‘बिरहा बहार’ प्रथम मैं गावा।
तब ‘कलिजुग बहार सुधि आवा।।
राधेश्याम बहार हो गइलन।
बेटी-बियोग के चरचा भइलन।।

ई सहज-सुबोध कथ्य बा उनकर। अपना रचना क्रम का बारे में। अपना अनुभव, बोध आ संवेदन-ज्ञान से सजल-सँवारल गीतन के लयात्मक उदभावना आ उरेह ऊ अपना नाट्य-रूपक आ नाटकन में बढ़िया आ प्रभावी ढंग से कइले बाड़न। अशिक्षा, अज्ञान आ कुरीतियन में फँसल समाज आ ओह में नारी के दुरगति आ पीड़ा के अपना नाटय-रूप आ गीतन का जरिए दरसावे के उतजोग त ठाकुर कइबे कइलन, बाकि अपना ढंग, अपना अंदाज से। अपना नाच तमासा के मंडली का जरिए, ऊ चर्चित आ लोकप्रिय भइलन, ‘साटा’ पर नाच-तामाशा देखाइ के रूपयो कमइलन, बाकि एह सबमें, सबसे महत्वपूर्ण उनकर कलानिष्ठा आ विनयशील सुभाव रहे, जवन कवि-कलाकार भा रंगकर्मी के मशहूर बनावेला। ऊ आपन बखान सुनला के अपेक्षा ना रखले रहलन, तबे नू बिनय से कहलन –

”एह पापी का कवन पुन्न से
भइल चहूँदिसि नाम।
भजन-भाव के हाल न जनलीं
सबसे ठगलीं दाम।।

भिखारी ठाकुर अपना सोचल-गुनल तमासा आ नाटकन के खुदे सूत्रधार रहलन। निर्देशक, समाजी, अभिनेता आ नचनिया कूल्हि खुदे परोसे में समरथ रहलन। ऊ कला का एह क्षेत्र में, दर्शक आ श्रोता समाज से अपना के आ अपना नाट्य शैली से जोर लेत रहलन। इहे कारन रहे कि ऊ अपना रंगकर्म आ लोक शैली का भाव सम्प्रेषण से पचीसन बरिस ले जन-रुझान कै अपना मण्डली से जोरले रहलन। जन मन रंजन आ रंग-कला के लोकज प्रस्तुति का कारन, भोजपुरी भाषा-समाज में दू-ढाई दशक तक लोकप्रियता में बनल रहल, समय-संदर्भ का लेहाज से महत्वपूर्ण रहे। राहुल सांकृत्यायन जी एही कारन ”भोजपुरी के अनगढ़ हीरा“ कहले होइहें उनके।

नाट्य-रुपक आ नाटक के विषयवस्तु

कवनो तरह के अतिश्योक्ति आ अतिरेक से बच के, कुछ सुधी जन आ शोधकर्त्ता समालोचक लोग भिखारी का नाट्य-रूपक आ नाटक के विषयवस्तु (कन्टेन्ट) पर लगभग समान विचार रखले बा – जइसे भिखारी ठाकुर अपना क्षेत्र में स्त्री के असहाय-अबला स्थिति आ शोसन के देखावे के प्रयास कइलन। नारी के बेबस-करुन अवस्था उनके आन्दोलित कइलस। ऊ एकरा साथ इहो दरसावे के कोसिस कइलन कि नारी के गँवई-रूप-रसिकन के दिल बहलाव के चीझु रहे आ कामपिपासु मरदन खातिर लूट के खाय वाली मिठाई। एकरा पाछा के कारन-बहरवाँसू लोग के घरे अकेल रहे वाली नवही औरत रहे। ऊ अपना परिवेश का विसंगतियन से जूझत पति के इन्तजारी में वियोगिनी का दसा में कलपल करे। ”घिचोर बहार“ (गबर घिचोर) में ऊ पड़ोसिहा का नाजायज बेटा के महतारियो बन जातिया। ‘गंगा असनान’ में, मेहरारुवे का चक्कर में मलेछू अपना बुढ़िया माई के नदी में धसोर देत बा। ‘बेटी-बियोग’ में बेटी बेच दिहल जातिया। ‘कलियुग बहार’ में नशेड़ी आ पियक्कड़ अपना मेहरारू के मारत-पीटत, वेश्या से नाता जोरले बा। ‘बिधवा विलाप’ में बेमेल बियाह से औरत बिधवा हो जात बिया। फेर ओके घर के लोग मुआवे के उपाइ करत बा आदि। कुछ अउरी गौर करीं त मानव चितवृत्ति लोभ, मोह मत्सर आ काम विषय-वस्तु में मूल कारक के रूप में उभरत लउकत बा। बाकिर एह लोभ, मोह, ईर्षा आ काम से खाली अपढ़े ना, कुपढ़ आ शिक्षितो लोग पीड़ित बा। ई तीनू चित्तवृत्ति असन्तुलित करे वाली आ विकृति पैदा करे में आगा बिया। भिखारी ठाकुर पारिवारिक-समाजिक सम्बन्धन का बीच इरिषा, लोभ से उपजल विकृतियन के अपना नाट्य-रूपक/नाटकन में दरसावे के कोसिस करत लउकत बाड़े। अपवादे सही, बाकि ई विकृति बा। ”भाई-बिरोध“ में भाइए भाई के हत्या कर देत बा, नाँवों ओकर उपदर बा। ‘पुत्र बध’ में खेती, पइसा, आभूषण के लोभवे कारक बा। ओही का चलते पुत्र के बध होत बा। ‘बेटी बेचवा’ (बेटी वियोग) में ई लोभवे मूल कारक बा। पुत्र-बध नाँव के एगो नाटक में, धन के लोभे बेटउवे के मार दिहल जाता।

भिखारी के विषय-वस्तु का रूप में ‘बहरा-बहार’ भा ‘बिदेसिया’ के कथानक में, कमाए खातिर कलकत्ता-बंगाल जाए वाला नवहा पति आ ओकर नवही मेहरारू ‘प्यारी सुन्दरी’ के चरित उभारे के साथ, भोजपुरी-क्षेत्र के तत्कालीन परिस्थिति आ समाजिक स्थिति के मनोविज्ञान बतावें के उतजोग बा। एह तथ पर आलोचको विचारक लोग लमहर समाजशास्त्री-विवेचना कइले बा। हमके इहो आलोचकी-अतिरंजना नियर लागेला। भिखारी के रचना अवदान पर विचार कइल जाव त पता चली कि उनका कुछ रूपक आ नाटकन के सुरूआती नाँव बदल दिहल गइल बा। जइसे ‘बेटी बेचवा’ के नाँव से मसहूर कृति ‘बेटी बियोग’ का नाव से बतावल गइल बा। श्री दुर्गाशंकर प्रसाद सिंह जी का ”भोजपुरी के कवि और काव्य“ में भिखारी के प्रकाशित रचना के बरनन कइल गइल बा- (1) बिदेसिया (2) भिखारी चउजुगी (3) नाई-पुकार (4) कलिजुग बहार (5) बिरहा-बहार (6) जशोदा-सखी संवाद (7) बेटी बियोग (8) बिधवा बिलाप (9) हरि कीर्त्तन (10) भिखारी भजनमाला (11) कलजुग बहार नाटक (12) बहरा-बहार (13) राधेश्याम बहार (14) घिंचोर-बहार (15) पुत्र बध नाटक (16) श्री गंगा असनान (17) भाई बिरोध (18) ननद-भौजाई (19) चौवर्ण पदवी (20) बुढ़शाला एह में कुछ अउर रचना शामिल कइल बाड़ी सन। ”घिंचोर बहार“ के नया नाँव ”गबरघिचोर“ पर गइल बा। भिखारी ठाकुर के सामान्य विषय चयन बा- अपवाद में घटल कवनो घटना का आधार पर सामान्य, कल्पनाशीलता से कथानक बना लिहल आ अपना लोकशैली में नाटकीय रूप दिहल अपना समय-समाज के देखे-सुने वालन खातिर सवदगर बना लिहल कलाकारिये नू कहाई! जन-मन-रंजन खातिर भोजपुरिया-अंचल में इहे लोकप्रिय भइल। काहेंकि ओह जमाना में सामान्य लोकरंजन, के दूसर साधने ना रहे।

नाट्य कला

नाट्य रूप भा काव्यकला ‘लोक’ आ शास्त्र से एहसे जुड़ल मानल जाले, काहेंकि ‘लोक’ आ ‘पूर्ववर्ती काव्य साहित्य’ कवनो कवि-कलाकार के रचनाशीलता खातिर ‘आधार’ बनेला। कवि-कलाकार ‘लोक’ आ पूर्ववर्ती कवि-साहित्कार के कल्पना-सामग्री आ काव्यनुभूतियन के अपना समय-संदर्भ का मोताबिक अभिनव ढंग से इस्तेमाल करेला। एह दिसाईं, रचना-क्षमता के विकास आ वैशिष्ट्य महत्वपूर्ण होला। ‘कवि-प्रतिभा’ का साथ ‘कवि-समय’ के जिकिर एही में आवेला। प्रतिभा-संपन्न कवि भा कलावन्त परम्परा आ ‘लोक’ तत्त्व का सफल सनतुलन-विनियोजन वाली रचना से अपना समय-समाज में प्रसिद्धि पावेला।

भिखारी ठाकुर भलहीं पढल-लिखल ना रहलन बाकि उनकर संवेदन-ज्ञान आ अनुभव ज्ञान लोक-परम्परा आ समकालीन कवियन, नाटक कारन, तमासा-मण्डलियन से मिलके पुष्ट भइल रहे। लोक नाच (धोबिया, गोंड़ऊ नट कला) आ औरतन में प्रचलित डमकच-जलुआ आदि के ऊ नीक से जानत रहलन। समकालीन प्रसिद्धि वाला कवियन के कवित-गीत सुनत रहलन। महेन्दर मिसिर जइसन ख्यात कवित गायक से उनकर आम-दरफत आ सलाह मिले के संयोग रहे- विशेष रूप से गीति-रचना आ लोक लय-धुन में रचना करे के प्रेरना त मिलले रहे। अइसन गीतन के भिखारी आपना नाट्य रूपक भा नाटक में सुघर संगति बइठवलन। ‘विदेसिया’ परम्परा के जानकारी उनका बंगाल-जात्रा में मिलले रहे। उनका समय में, पहिलहीं से सुन्दरी बाई के नाच आ नाट्य रूपक लोकरंजन खातिर जानल-बखानल जात रहे। भिखारी का रचनात्मक व्यक्तित्व में एह सबकर समावेश रहे। कुछ शोधकर्त्ता विद्वान लोगन का मुताबिक सुन्दरीबाई नाच का साथ-साथ कई तरह के नाटक करसु। भिखारी ठाकुर पर एकर प्रभाव- ”राधेश्याम बहार“ बहरा-बहार, सुन्दरी-बिलाप जइसन कृतियन में झलकेला। सुन्दरीबाई के मण्डली – राधेश्याम बहार, बहरा बहार आ ननद-भौजाई-संबाद आदि नाटक खातिर मशहूर रहे। डा0 तैयब हुसैन जी भिखारी ठाकुर पर सुन्दरी बाई के नाट्य शैली का प्रभाव के चर्चा कइले बाड़न। ‘बहरा-बहार’ दुसरा रूप में ‘बिदेसिया’ रहे।

लोक-परम्परा के गीत-संगीत के लोकप्रिय चासनी में पागल, ”बिदेसिया“ के ख्याति आ लोकप्रियता का पाछा भिखारी ठाकुर के परिवर्द्धित-शोधित नाट्यकला रहे। गीत-संगीत के लोकरुचि का अनुसार परोसला का साथ, पात्रन का अभिनय में स्वाभाविक संगति बइठावल रहे। संस्कृत में ‘गुरू वन्दना’ आ भजन-शैली के गीत का बाद ‘सूत्रधार’ मंचित होखे वाला नाटक के भूमिका बान्हे। समाजी के सार संक्षेप पीढ़ा धरे क काम करे। भिखारी एही नाट्य-क्रम में सद्गुरु, आत्मा-परमात्मा आदि के अध्यात्मिक सम्बन्धों का बारे में बतावस।

‘बिदेसिया’ में जवन कथावस्तु बा- बस अतने कि मुख्य पात्र विदेसी अपना बियहुती प्यारी सुन्दरी के गौना कराके ले आवत बा आ अपना मेहरारू से कलकत्ता जाए के जिकिर करत बा। प्यारी सुन्दरी का लाख चिरउरी-मिनती का बादो ऊ बहाना मार के परदेस भाग जाता। ई सब पहिलका भाग (दृश्य) में चटक रंग का साथ मंच पर प्रस्तुत होता। फेरु क्षेपक रूप में गीत होता- ”पिया गइले कलकतवा ए सजनी“ दुसरा दृश्य में विदेसी कलकत्ता में एगो दुसरी औरत का फेरा में फँस जाता। ओकरे मोहपाश आ काम सुख में ऊ अपना बियहुती प्यारी सुन्दरी के बिसार देता। तिसरका दृश्य प्यारी सुन्दरी के बिरहाकुल पीर आ बेदना के बा। ऊ रोवत-कलपत बिया। एही मधे, एगो कलकत्ता जाए वाला बटोही से ओकर भेंट आ बतकही होता। गीतात्मक ढंग से ऊ आपन बिरह बिथा सुनावत, कलकत्ता चल गइल अपना पति का बारे में बतावत बिया आ ओकर नाक-नक्स, चाल आदि के चिन्हासी बतावत, निहोरा करत बिया कि ऊ ओकरा प्रियतम के ढूँढ के ओकर हाल जरूर बतावे।, चउथा दृश्य में कलकत्ता के ऊ जगह बा, जहाँ बटोही घूमत-घामत ओही नाक-नक्श हुलिया वाला बिदेसी के पहिचान लेता। उहाँ ऊ अपना दुसरकी मेहरि आ ओसे पैदा भइल लड़िका का संग मउज से पान चाभत लउकत बा। बटोही ओकरा के, गाँव में विरह-बियोग में रोवत कलपत बियहुती ‘प्यारी सुन्दरी’ के हाल-बेहाल सुनावत, गाँवे जाए के नसीहत देत बा। बिदेसी के सुतल आत्मा जागु जात बिया आ ऊ गाँवें लौटे के विचार बनावत बा। पाँचवाँ दृश्य में अकेल-असुरक्षित जवान ‘प्यारी सुन्दरी’ पर पड़ोसी के डोरा डलला के बरनन बा। चोर-चाई के डरे ऊ किल्ली ठोंक के घर का भितरी आशंका में कुलबुलात रहत बिया। बिदेसी अपना रखेलिन के धोखा देके भाग चलत बा, बाकि ऊहो, ओकरा पाछा लड़िका लेके, पिठियवले चल देत बिया। राह में चोर चाई ओकर सर-समान लूट लेत बाड़े स ऽ। बिदेसी रात खा, जब प्यारी सुन्दरी बिदेसी के केंवाड़ी बजवलो पर नइखे खोलत त ऊ आपन परिचय देत बा। पहिचनला का बाद केंवाड़ी खुलत बा। बिदेसी अभी प्यारी से आपन हाल-बेहाल बतियावते बा, तले पाछा से दुसरकी मेहरारू- अपना लड़िका सँग पहुँच जात बिया। बिदेसी ओकरा बारे में, बतावत समझावत बा कि ओकरे सँगे कलकत्ता में रहत रहे आ लड़िका ओकरे जामल हवे। फेरु प्यारी सुन्दरी, अपना सवत के सँग रहे खातिर राजी हो जात बिया।

समाज में जरि सोरि फेंकले स्थापित मान-मूल्य-मरजादा का स्खलन भा गिरावट में ‘काम’ के बहुत प्रभाव बा। भिखारी ठाकुर एह प्रवृत्ति के चित्रित करत बतवले बाड़े कि परदेस में जाके दुसरा औरत का चक्कर में फँस जाए वाला अधिकांश लोग कइसे पतित हो जाला। एकरा ठीक उलट ”घिचोर बहार“ में अकेल पर जाए वाली औरतो, पति से लमहर दूरी का बाद, कइसे पतित हो जाले। ऊहो ‘घिचोर’ के पैदा करे में ना हिचके। नाजायज वाला सम्बन्ध के सुभाविक आ सामान्य बतावे में भिखारी तनिको हिचकत नइखन। धरम-करम के गहिराई का चक्कर में ना जाके, भिखारी एगो सुभाविक-चलताऊ रस्ता निकलले बाड़े – ई समाज में निम्न मध्य वर्गी तबका में प्रचलितो रहे। एक तरह से ऊ एह तरह के सम्बन्ध-स्वतन्त्रता के मान्यता देबे क काम कइले बाड़न।

भिखारी का नाटक के लोकप्रिय आ सरस बनावे में, कथा के तार जोरे आ आगा बढ़ावे में लोक प्रचलित लय-धुन वाला वर्णनात्मक गीतन के बड़हन भूमिका रहे। भिखारी का मण्डली के ‘समाजी’ साज बाज का साथ समवेत सुर में कथा-सूत समझावत फरियावत चलें सऽ। नाटक में विदूषक, भा जोकर के भूमिका में भिखारी ‘लबार’ के उतरले ऊ चेहरा-मोहरा, पोशाक आ क्रिया-ब्यापार में अइसन रहे कि ओकरा मंच पर आवते हँसी बर जाव। नाटक का कथा-गति के बढ़ावे-फरियावे में ऊ अपना हाजिर जबाबी से दखल करे वाला पात्र का रूप में बदल जात रहे। संस्कृत नाट्य कला का अनुसार भिखारी सूत्रधार भा परदा का पाछे के निर्देशक रहले। ई सूत्रधार घुमा फिरा के धरम-अध्यात्म के अपना समझ का लेहाज से, मरमो समझावे। जइसे बिदेसी ब्रह्म आ प्यारी सुन्दरी जीव आ रखेलिन माया हवे। हालांकि ई उटपटाँग आ अतार्किक लेखा लागी कि बिदेसी जइसन कुपात्र ‘ब्रह्म’ आ प्यारी सुन्दरी जइसन नायिका ‘जीव’ का श्रेणी में कइसे रखा गइल। अइसहीं माया कहाए वाली रखेलिन सवत हो गइल। भिखारी का नाटकन के कलात्मक पैटर्न अलग, स्वतंत्र आ प्रयोगात्मक रहल। ओकर उद्देश्य साफ-साफ लोकरंजन रहे – ओही में कुछ समाज सुधारो के भाव रहे। आपुसी संबाद पद्यात्मक आ संगीत से सँवारल रहे। साँच ई कि भिखारी का नाटकन के अइसन कुसल प्रस्तुति, ओह जमाना में कइल जाव कि अभिनय, भाव, गीत-संगीत आ क्षेपक का मिक्सचर से तुरन्त साधारनीकरन हो जाव। रस-परिपाक का कारन संवाद आ गीतन के दर्शक-श्रोता भुला ना पावे। देसी आ ठेठ अन्दाज वाली नाट्य भाषा भोजपुरी-समाज के अपना से तत्काल जोड़ि लेत रहे। गीति-काव्य शैली के नाटकन में प्रसंगानुकूल भाव से, रस परिपाक करे में, भिखारी एहसे सफल भइलन कि श्रृंगार के दूनों पक्ष, करुण रस आ हास्य रस के सुभाविक रूप में उतारे के सफल उतजोग का साथे, उनका में ओकरा व्यंजकता के उभारे वाला गीत-संगीत के लोकप्रिय संगति बइठावे
के लूर आ कला रहे।

अन्त में ‘थोरे लिखना, अधिक समझना’ वाला उक्ति का अनुसार अतने कि हम सार-संक्षेप में जेतना समझ पवनी, भिखारी ठाकुर का नाट्य-रूप आ रचनात्मकता के, ओही के इहाँ बतावे के कोसिस कइलीं। विद्वान, आलोचक आ समय-समाज के कला-पारखी लोग भिखारी ठाकुर पर पहिल विस्तृत चर्चा कइले बा आ आगा करबे करी। भिखारी भोजपुरी के जुग-पुरुष आ लोक-पुरुष त ऽ रहबे कइलन।

(पाती के दिसम्बर 2022 अंक से साभार)

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