लोक कवि अब गाते नहीं – ३

by | Feb 11, 2011 | 0 comments

(दयानंद पाण्डेय के लिखल आ प्रकाशित हिन्दी उपन्यास के भोजपुरी अनुवाद)


दुसरका कड़ी से आगे…..

बाजार में लोककवि के कैसेटन के बहार रहे आ उनुकर म्यूजिकल पार्टी चारो ओर छवले रहे. उनुकर नाम बिकाव. गरज ई कि ऊ “मार्केट” में रहले. बाकिर मार्केट के साधत-साधत लोक कवि में ढेरे अंतर्विरोधो उपजे लागल रहे. ई अंतर्विरोध उनुकर गायकियो के ना छोड़लसि. लेकिन लोक कवि हाल-फिलहाल हिट आ फिट चलत रहले से कवनो सवालो उठे-उठावे वाला ना रहुवे. हँ कबो-कबो उनुकर उद्घोषक उनुका के जरुरे टोक देव. बाकिर जइसे धरती पानी के असहीं सोख ले ले, वइसहीं लोको कवि अपना उद्घोषक के जब तब के टोका-टाकी घोंट जासु. जब कबही टोका-टोकी बेसी हो जाव त लोक कवि “पंडित हईं नू रउरा” जइसन जुमला उछाल देस. आ जब उद्घोषक कहसु कि, “हईं तऽ” तब लोक कवि कहसु, “तबहिये अतना असंतुष्ट रहीले.” आ ई कहि के लोक कवि ओह उद्घोषक के लोक लेसु. दोसर लोग हें हें हीं हीं कर के हँसे लागे. उद्घोषक, जिनका के सभे दुबे जी कहे, से अपने त कवनो नौकरी ना करत रहले बाकिर उनुकर पत्नी डी॰एस॰पी॰ रहली आ कबो कबो मुख्यमंत्री के सुरक्षो में तैनात हो जात रहली, खास कर के एगो महिला मुख्यमंत्री का सुरक्षा में. लोक कवि जब-तब मंच पर उद्घोषक दुबे जी के तारीफ करत एहु बात के घोषणा कर देसु त दुबे जी बिदक जासु. अनसा के पूछसु, “का हमार कवनो आपन पहिचान नइखे ?” ऊ बिफरसु “हमार पत्नी डी॰एस॰पी॰ हई, का इहे हमार पहिचान बा ?” पूछसु, “का हम बढ़िया उद्घोषक ना हईं ?” लोक कवि, “हईं भाई हईं” कह के बला टार देसु. दुबे जी उद्घोषक साचहू बहुते बढ़िया रहलन बाकिर एकरो से बेसी किस्मतवाला रहलन. बाद में उनुकर एकलौता बेटो आई॰ए॰एस॰ हो गइल त लोक कवि उद्घोषक दुबे जी का तारीफ में पत्नी डी॰एस॰पी॰ का साथे आई॰ए॰एस॰ बेटो के पुल बान्ह देसु. शुरु-शुरु में बेटा के उपलब्धि के बात दुबे जी हाथ में माइक लिहले एगो खास अंदाज में मुड़ी झुका के सकार लेसु. बाकिर बाद का दिन में दुबे जी के एहू पर एतराज होखे लागल. एह तरह गँवे-गँवे दुबेजी के एतराज के ग्राफ उपर चढ़ते गइल. लोक कवि का टीम में कुछ “संदिग्ध” लड़कियन के मौजूदगी पर उनुकर एतराज बेसी गहिरा गइल आ एतराज ओहु ले बेसी गहिराइल लोक कवि के गायकी पर. एतराज एह पर रहे कि लोक कवि भोजपुरी अवधी के मिलावे का नाम पर दुनो के बरबाद करत बाड़न. बाद में त ऊ लोक कवि से कहे लगलन, “अब आप अपना के भोजपुरी के गायक त मते कहल करी.” फेर जोड़सु, “कम से कम हमरा से ई एलान मत करवावल करीं.”
“काहे भाई काहे ?” लोक कवि आधा सुरे में रहसु आ पूछसु, “हम भोजपुरी गायक नहीं हुं त का हूं ?”
“रहनी कबो आप !” दुबे जी किचकिचासु, “कबो भोजपुरी गायक ! अब त आप खड़ी बोली लिखत गावत बानी.” पूछसु, “कहीं-कहीं भोजपुरी शब्द ठूंस दिहला भर से, भोजपुरी कहावत ठोंक दिहला से, आ सँवरको, गोरको गूँथ दिहला भर से गाना भोजपुरी हो जाला ?”
“भला भोजपुरी जानबो करीले का आप ?” लोक कवि आधा सुरे में भुनभुनासु. साँच ई रहे कि दुबे जी के भोजपुरी से ओतने वास्ता रहे जतना मंच पर भा रिहर्सल में ऊ सुनसु. उनुकर मातृभाषा भोजपुरी ना रहे. लेकिन तबहियो ऊ लोक कवि के ना छोड़सु. कहसु, “मातृभाषा हमार भोजपुरी ना ह”, एह बात के ऊ पहिले अंगरेजी में कहसु, फेर संस्कृत में, आ फेर जोड़सु, “बाकिर बाति त हम एह अनपढ़ से करत बानी.” फेर ऊ हिन्दी में आ जासु,”लेकिन एकर मतलब ई ना भइल कि एगो औरत जवन हमार महतारी ना हिय ओकरा साथे हो रहल बलात्कार देखतो हम चुप रहीं कि ई हमार महतारी त ना हिय !” कहसु, “देखीं लोक कवि जी, अपना तईं त हम ई ना होखे देब. हम त एह बाति के पुरजोर विरोध करबे करब.”
“ठीक बा ब्राह्मण देवता !” कहि के लोक कवि उनुकर गोड़ छू लेसु. कहसु, “आजुवे बनावत बानी भोजपुरी में दू गो गाना, फेर आपके सुनावत बानी.” लोक कवि आगा जोड़सु, “बाकिर बजरियो में त रहे के बा ! खाली भोजपुरी गायब, कान में अँगुरी डालि के बिरहा गायब, त पब्लिक भाग खड़ा होई.” पूछसु, “के सुनी खालिस भोजपुरी ? अब घर में बेटअ त महतारी से भोजपुरी में बतियावे ना, अंगरेजी बूकेला त हमार खाँटी भोजपुरी गाना के सुनी ?” ऊ कहसु, “दुबे जी, हमहू जानतानी कि का करत बानी. बाकिर खालिस भोजपुरी गायब त केहू ना सुनी. बाजार से फेंका जायब. तब राउर अनाउंसरीओ बहि-गलि जाई आ हई बीस पचीस लोग जे हमरा बहाने रोजी-रोजगार पवले बा सभकर रोजगार बन्द हो जाई. तब का खाई ई लोग ? एह लोग के परिवार कहाँ जाई ?”
“जवनो होखे, अपना तईं त ई पाप हम ना करब.” कहिके दुबेजी उठ खड़ा होखसु. बहरा निकलि के अपना स्कूटड़ के अइसे किक मारसु कि मानो लोके कवि के “किक” मारत बाड़न. एह तरह दुबे जी के असंतोष बढ़ते रहल. लोक कवि आ उनुकर वाद-विवाद-संवाद बढ़ते रहल. कवनो फोड़ा का तरह पाकत रहल. अतना कि कबोवकबो लोक कवि बोलसु, “ई दुबवा त जीउ माठा कर दिहले बा.” आ आखिरकार एक समय उहो आइल जब लोक कवि दुबे जी के “किक” कर दिहले. बाकिर अचके में ना.
गँवे-गँवे.
होखे ई कि लोक कवि कहीं से प्रोग्राम करि के आवसु त दुबेजी शिकायत दर्ज करावत कहसु, “आप हमरा के त बतवनी ना ?”
“फोन त कइले रहीं. पर आपका फोनवा इंगेज चलत रहे.” लोक कवि कहसु, “आ प्रोग्रामो अचानके में लाग गइल रहे. जल्दी रहे से हमनी का निकल गइनी. बाकिर अगिला हफ्ता बनारस चले के बा, आप तइयार रहब.” कहि के लोक कवि उनुका के एगो दूगो प्रोग्राम में ले जासु आ फेर आठ-दस प्रोग्राम में काट देसु. बाद में त कई बेर लोक कवि दुबे जी के लोकलो प्रोग्राम से “कट” कर देसु. कबो “अचानक” बता के त एकाध बेर “बजट कम रहे” कहि के. संघतियन से लोक कवि कहसु, “लोग नाच गाना देखे-सुने आवेला. अनाउंसिंग सुने ना !” फेर त गँवे-गँवे दुबे जी लोक कवि से प्रोग्रामन का बाबत पूछलो बन्द कर दिहले बाकिर लोक कवि के पोस्टमार्टम ना बंद कइले. हँ, लेकिन एगो साँच इहो रहे कि दुबेजी “मार्केट” में अब लगभग नाहिये रहि गइल रहन. छिटपुट लोकल प्रोग्रामन में, कबो-कभार सरकारी कार्यक्रम में लउक जासु. लोक कवि त दिल खोल के कहसु, “दुबे जी के मार्केट आउट कर दिहलसि. असल में ऊ पिंगल ढेरे झाड़त रहले.”
बाकिर जवने होखो कुछ बढ़िया कार्यक्रमन में दुबेजी के कमी लोक कवि के जरुरे अखरल करे. कार्यक्रम का बाद कहसु, “दुबवा रहता त एकरा के अइसे पेश करीत !” बाकिर दुबेजी त आखिर लोके कवि का चलते “मार्केट” से आउट रहले. आ लोक कवि के जब-तब खुदे अनाउंसिंग सम्हारे पड़े. ऊ एगो बढ़िया अनाउंसर का तलाश करत रहले. बीच-बीच में कई गो अनाउंसरन के अजमवलन. बाकिर दुबे जी जइसन संस्कृत, हिन्दी, अंगरेजी, उर्दू ठोंके वाला केहू मिलत ना रहे. लोक कवि कहसु, “कवनो में सलीका सहुर नइखे.” फेर एगो बाँसुरी बजावे वाला के ऊ ई काम सिखवलन बाकिर उहो ना चलल. ऊ बाँसुरियो से गइल आ अनाउंसिंगो से. लोक कवि के एगो अनाउन्सर अइसनो मिलल जवना के आवाजो नीमन रहे, हिंदीओ अंगरेजी जानत रहे. बाकिर दिक्कत ई रहे कि ऊ कार्यक्रम से बेसी अनाउंसिंग करे. दस मिनट के कार्यक्रम खातिर ऊ पन्द्रह मिनट के अनाउंसिंग कर डाले. मैं-मैं करत ऊ पाँच छह गो शेर ठोंक देव आ तब हम ई कइनी, तब ऊ कइनी कहि-कहि के अपने के प्रोजेक्ट करे में लागल रहे. आखिरकार लोक कवि ओकरो के हटा दिहले. कहलन कि, “ई त कार्यक्रम के गोबर-लीद सगरी निकाल देला.” ओहि घरी लोक कवि के एगो टी॰वी॰ सीरियल बनावे वाला भेंटा गइल. लोक कवि के गाना चूंकि कुछ फिलिमो में पहिलही आ चुकल रहे, कुछ चोरी-चकारी का मार्फत त कुछ सीधे. से ऊ टीवी सीरियल बनावे वाला के ग्लैमर में त ना अझूरइले बाकिर ओकरा राय में आ गइले. ऊ एगो लड़की के प्रोजेक्ट कइलसि जवन हिन्दी अंगरेजी दुनु जानत रहुवे. “लेडीज एड जेन्टिलमेन” वाली अंगरेजिओ “हेलो सिस्टर्स एंड ब्रदर्स” कहिके बोलत रहे आ बेसी करिके अनाउंसिंग अंगरेजिये में ठोकत रहुवे.

आखिरकार ऊ लोक कवि के मंच के एनाउंसर बन गइल. गँवे-गँवे ऊ “डाँड़ उछालू” डांसो जान गइल. से एक पंथ दू काज. एनाउंसर‌-सह-डांसर ओह लड़की से लोक कवि के म्यूजिकल पार्टी के भाव बढ़ि गइल.

एक बेर केहू लोक कवि से कहबो कइल कि, “भोजपुरी के मंच पर अंगरेजी एनाउंसिं ! ई ठीक नइखे.”
“काहें ठीक नइखे ?” लोक कवि बिदकत गरजले.
“अच्छा चलीं, शहर में त ई अँगरेजी एनाउंसिंग चलियो जाला बाकिर गाँवन में भोजपुरी गाना सुने वाला का समुझिहें ई अंगरेजी एनाउंसिंग ?”
“खूब समुझेले !” लोक कवि फइल गइले, “अउर समुझें ना समुझें, मुँह आँख दुनु बा के देखे लागेलें.”
” का देखे लागे लें ?”
“लड़िकी ! अउर का ?” लोक कवि बोलले, “अंगरेजी बोलत लड़की. सब कहेले कि अब लोक कवि हाई लेबिल हो गइल बाड़े. लड़की अंगरेजी बोलेले.”
“अच्छा जवन ऊ लड़की बोलेले अंगरेजी में, आप समुझिलें ?”
“हँ समुझिलें.” लोक कवि बहुते सर्द आवाज में कहले.
“का ? आप अब अंगरेजियो समुझे लगनी ?” पूछे वाला भौंचकिया गइल. बोलल. “कब अगरेजीओ पढ़ लिहनी लोक कवि जी रउरा ?”
“कब्बो ना पढ़नी अंगरेजी !” लोक कवि बोलले, “हिंदी त हम पढ़ ना पवनी, अंगरेजी का पढ़ब !”
“बाकिर अबहिये त आप बोलत रहीं जे अंगरेजी समुझिलें ?”
“पइसा समुझिलें.” लोक कवि कहले,”अउर ई अंगरेजी अनाउंसर हमार रेट हाई कर दिहले बिया, त अंगरेजी हम ना समुझब त के समुझी ?” ऊ बोलले, “का चाहत बानी जिनिगी भर बुरबके बनल रहीं. पिछड़े बनल रहीं. अइसहीं भोजपुरिओ हरदम भदेसे बनल रहे ?” लोक कवि चालू रहले, “संस्कृत का नाटक में लोग अंगरेजी सुन सकेला. कथक, भरतनाट्यम, ओडिसी, मणिपुरी में त लोग अंगरेजी सुन सकेला. गजल, तबला, सितार, संतूर, शहनाई पर अंगरेजी सुन सकेला त भोजपुरी का मंच पर लोग अगर अंगरेजी सुनत बा त का खराबी बा भाई ? तनि हमहूं के बताईं !” लोक कवि के एकालाप चालू रहल,”जानीले आप, भोजपुरी का हऽ?” ऊ तनिका अउरी कड़कड़इले, “मरत भासा हियऽ. हम ओकरा के लखनऊ जइसन जगहा में गा बजा के जिंदा रखले बानी आ आप सवाल घोंपत बानी. ऊ भोजपुरी जवन अब घरो में से बहरिया रहल बिया.” लोक कवि खिसियाइलो रहले आ दुखिओ रहले. कहे लगले,”अबहीं त जबले हम जिंदा हईं अपना मातृभाषा के सेवा करब, मरे ना देब. कुछ चेलो-चाटी तइयार करा दिहले बानी़ उहो भोजपुरी गा-बजा के खात-कमात बाड़े. बाकिर अगिला पीढ़ी भोजपुरी के का गत बनाई ई सोचिये के हम परेशान रहीले.” ऊ बोलत गइले, “अबहीं त मंच पर पॉप गाना बजवा के डांस करवावत बानी, इहो लोग के चुभऽता, भोजपुरी में खड़ी बोली मिलावत बानी त लोग गरियावत बा, आ अब अंगरेजी अनाउंसिंग के सवाल घोंपल जा रहल बा.” ऊ कहत गइले,”बताईं हम का करीं ? बाजारू टोटका ना अपनाईं त बाजारे से गायब हो जाईं. अरे, नोंच डाली लोग. हमार हड्डियो ना मिली.” कहत ऊ छटकत खाड़ हो गइले. शराब के बोतल खोलत कहे लगले,”छोड़ीं ई सब. शराब पीहीं, मस्त हो जाईं. एह सब में कुछ नइखे धराइल. बाजार में रहब त चार लोग चीन्ही, नमस्कार करी, जवना दिने बाजार से बहरिया जायब त केहू बातो ना पूछी. ई बाति हम नीमना से जानत बानी. रउरो सभे जान लीं.”
लोक कवि अबले पियत-पियत टुन्न हो गइल रहले त लोग जाये लागल. लोग जान गइल अब रुकला के मतलब बा कि लोक कवि के गारी सुनल. दरअसल दिक्कत इहे रहल कि लोक कवि अब खटाखट लेसु आ जल्दिये टुन्न हो जासु. फेरु या त ऊ “प्रणाम” उचारसु भा गायन भरल गारियन के वाचन भा फेरु सुंदरियन के ब्यसन खातिर बउरा जासु. दरअसल, एह सगरी कामन के मकसदे रहत रहे कि “तखलिया !” माने कि एकांत ! “प्रणाम” ओह आदरणीय लोग खातिर होखे जे उनुका संगीत मंडली से अलग के मेहमान (नेता, अफसर, पत्रकार) रहसु भा जजमान होखस. अब्यस्त लोग लोक कवि के “प्रणाम” के संकेत समुझत रहे आ उठ चलत रहे. जे लोग नया रहत रहे ऊ ना समुझत रहे आ बइठल रहि जाव. लोक कवि ओह लोग के रह-रह के हाथ जोड़-जोड़ के दू चार बेर अउरी प्रणाम करत रहले. बात तबहियो ना बने त ऊ अदबे से सही कह देत रहले़ “त अब चलीं ना !” बावजूद लोक कवि के तमाम अदब के एहसे कुछ नादान टाइप लोग आहत आ नाराज हो जाव. बाकिर लोक किव के एह सब से कुछ फरक ना पड़े.


फेरु अगिला कड़ी में


लेखक परिचय

अपना कहानी आ उपन्यासन का मार्फत लगातार चरचा में रहे वाला दयानंद पांडेय के जन्म ३० जनवरी १९५८ के गोरखपुर जिला के बेदौली गाँव में भइल रहे. हिन्दी में एम॰ए॰ कइला से पहिलही ऊ पत्रकारिता में आ गइले. ३३ साल हो गइल बा उनका पत्रकारिता करत, उनकर उपन्यास आ कहानियन के करीब पंद्रह गो किताब प्रकाशित हो चुकल बा. एह उपन्यास “लोक कवि अब गाते नहीं” खातिर उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान उनका के प्रेमचंद सम्मान से सम्मानित कइले बा आ “एक जीनियस की विवादास्पद मौत” खातिर यशपाल सम्मान से.

वे जो हारे हुये, हारमोनियम के हजार टुकड़े, लोक कवि अब गाते नहीं, अपने-अपने युद्ध, दरकते दरवाजे, जाने-अनजाने पुल (उपन्यास), बर्फ में फंसी मछली, सुमि का स्पेस, एक जीनियस की विवादास्पद मौत, सुंदर लड़कियों वाला शहर, बड़की दी का यक्ष प्रश्न, संवाद (कहानी संग्रह), सूरज का शिकारी (बच्चों की कहानियां), प्रेमचंद व्यक्तित्व और रचना दृष्टि (संपादित), आ सुनील गावस्कर के मशहूर किताब “माई आइडल्स” के हिन्दी अनुवाद “मेरे प्रिय खिलाड़ी” नाम से प्रकाशित. बांसगांव की मुनमुन (उपन्यास) आ हमन इश्क मस्ताना बहुतेरे (संस्मरण) जल्दिये प्रकाशित होखे वाला बा. बाकिर अबही ले भोजपुरी में कवनो किताब प्रकाशित नइखे. बाकिर उनका लेखन में भोजपुरी जनमानस हमेशा मौजूद रहल बा जवना के बानगी बा ई उपन्यास “लोक कवि अब गाते नहीं”.

दयानंद पांडेय जी के संपर्क सूत्र
5/7, डाली बाग, आफिसर्स कॉलोनी, लखनऊ.
मोबाइल नं॰ 09335233424, 09415130127
e-mail : dayanand.pandey@yahoo.com

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