– देवेन्द्र कुमार

DevendraKumar

गुलजारी लाल जी आपन संघतिया मनमौजी के संगे साप्ताहिक बाजार मंगला हाट में हफ्ता भर के जरूरी सामान के खरीदारी करे खातिर गइल रहलें. दूनो संघतिया बाजार में घूमत-फिरत आपन जरूरत के मुताबिक सर-सामान खरीदत रहलें. गुलजारी लाल जी हाट में दू गो मुरगी पसंद कइलें. मोल-भाव तय क के खरीदियो लिहलें. फेर ऊ आगे बढ़ गइलें.
जूता के एगो दोकान के सामने जा के ऊ कहलें, “ए मनमौजी, हमार जूतवा त अब एकदमे से जवाब दे देले बा. एगो काम करऽतानि, नया जूता खरीद लेत बानी.”
“ठीके बा. चलऽ चल के देखी जा.” मनमौजी कहलें.

फेर दुनो संघतिया जूता के दोकान में जा धमकलें. ढेर देरी तक ले माथापच्ची कइला के बाद गुलजारी लाल जी के एक जोड़ा जूता पसंद आ गइल. ऊ तुरंते जूता खरीद लिहलें.
दोकानदार जइसहिं जूता के डिब्बा में बंद करे लागल त गुलजारी लाल जी फरमइलें, “अरे भाई, जूता के डिब्बा में बंद करे खातिर खरीदले बानी का ? लाईं एकरा के हम पहिरिये के जाइब.”
दोकानदार पूछलस, “त फेर ई पुरनका जूता के डिब्बा में बांध दिहीं का ?”
“अरे नाही भाई. अब ई जूतवा ले के हम का करब ? एकरा तूही रख लऽ न.” गुलजारी लाल जी ढेरी उदारता के साथ कहलें.
दोकानदार नाक चढ़ा के ओह लचर-पचर जूता के देखलस आ गुलजारी लाल आउर मनमौजी के दोकान से उतरला के तुरंते बाद ऊ जूता के दोकान के बाहरे फेंक दिहलस.

गुलजारी लाल आउर मनमौजी खरीदारी खतम कइला के बाद आपन गांव के तरफ चल दिहलें. गुलजारी लाल जी तऽ खूबे खुश रहलें. ऊ नया-नया जूता जे पहिरले रहलें. आपस में बोलते-बतियइते दुनो संघतिया चलल जात रहलें.

सामने में ‘रोरो‘ नदी रहे. बरसात-बूनी के मौसम रहे. पहाड़ी नदी होखे के चलते नदिया पानी से भरल रहे आउर धारो बहुते तेज रहे. गुलजारी लाल जी जूता समेते नदिया में जाए लगलें. एह प मनमौजी उनका के टोकलें, “इयार, कम से कम जूतवा त उतार लऽ.”
“तूहूँ कइसन बात करत बाड़ऽ यार. पूरा अढ़ाई सौ रोपया लागल बा एह जूता में. त का एकरा के हाथ में ढोवे खातिर खरीदले बानी. हम त एकरा के पहिरिये के नदिया पार करब. का मालूम नदिया में कवनो अइसन-वइसन चीज हमार गोड़ में चुभ जाई त हम का करब ? अगल-बगल में त कवनो अस्पतालो नइखे. तू त एकदमे मूरख बाड़ऽ. तू खुल्ले पांव नदिया पार करऽ. हम जूता काहे उतारब ?”

आउर ई कहत-कहत गुलजारी लाल जी नदिया में घुस गइलें. कुछ दूरी तक ले त ऊ ठीक-ठाक चललें. बाकिर जब ऊ नदिया के बीच में पहुंचलें त एकाएके ऊ बड़ी जोर से चिल्लइलें, “अरे मनमौजी, हमार एगो गोड़ के जूता खुल गइल बा. पकड़-पकड़. ई देखऽ बहत चलत जात बा.”

ई कहत-कहत ऊ जूता पकड़े खातिर आपन दाहिना हाथ नदिया में डुबा दिहलें आउर झुक के जूता खोजे लगलें. बाकिर जूता भला मिले वाला रहे ? हड़बड़ी में उनका इहो याद ना रहल कि उनकर दाहिना हाथ में एगो मुरगी रहे. मुरगी बेचारी पानी में डूबे के चलते टें बोल गइली. तबहीं उनकर दोसरको जूता खुल गइल. ऊ फेर चिचियइलें, “अरे मनमौजी, पकड़. हमार दोसरको जुतवा खुल गइल.”

आउर ई कहत-कहत आपन बँयवरो हाथ नदिया में डुबा के जूता खोजे लगलें. बाकिर जूता मिलल त दूर, ओहू हाथ वाली मुरगी स्वर्ग सिधार गइल. अब जा के ऊ देखलें कि जूतवा त गइल से गइल, दुनो मुरगियो चल बसली. त ऊ आपन माथा धुने के शुरू कर दिहलें. लगलें जोर-जोर से रोवे, हाय रे हमार मुरगी, हाय रे हमार जूता.

जइसे-तइसे गुलजारी लाल जी खाली हाथे आउर खुल्ले पांव गांव लौट क अइलें. गांव के लोगो के सगरी हाल मालूम हो गइल. अब त गांव के कुल्हे लोग उनका पाछे पर गइलें. उनका के खूब चिढ़कावे लगलें, “अरे मरदे, तहार नयका जूतवा कहवां गइल ?”


अनेके संस्थानन से प्रशस्ति पा चुकल देवेन्द्र कुमार जमशेदपुर पुलिस अधीक्षक कार्यालय में रीडर हईं. नालंदा जिला के मूल निवासी होखला का बावजूद भोजपुरीओ में रचना करीलें. इहाँ के लिखल हिन्दी आ भोजपुरी रचना अनेके पत्र पत्रिकन में प्रकाशित होखत रहेला.

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