समय-संदर्भ आ सामाजिक परिवेश में कवि के चिन्ता आ बेचैनी सिरजन के प्रेरक होले त कवि के निरपेक्ष दृष्टि ओके ‘लोकहित’ आ ‘लोकचिन्ता’ से जोरेले. एही के उजागर करत डा॰ अशोक द्विवेदी आ डा॰ भगवती प्रसाद द्विवेदी के कुछ कविता लोगन के बरबसे बाह बाह करे पे पजबूर कइलस.
जियल कठिन चिरई चुरुंग के / गरहन लागल डाढ़ि पात पर !
तुहीं बतावऽ जागीं कबले, केकरा खातिर, रात रात भर !केकरा खातिर जगल कबीरा / केकरा धुन में जोगिन मीरा
केकरा मंगल खातिर तुलसी, “मानस” रचलें सहि सहि पीरा
जोति जरवलें भीतर बाहर / अपना कवना हीत नात पर ?
तुहीं बतावऽ जागीं कबले, केकरा खातिर, रात रात भर !
एही क्रम में भगवती प्रसाद जी के गजल के कुछ शेर बेहद ‘अपील’ कइलस –
चाह बहुत बा राहे नइखे / कतनो पँवरीं, थाहे नइखे.
कुम्हिलाइल सिरिजन के बिरवा, लहलह पतई काँहे नइखे.
डा॰ शत्रुघ्न पाण्डेय राष्ट्रमाता के प्रतीक बना के ओकरा ओह दारुन वेदना के चित्रित करुवन, जवना में ओकरे जामल लड़िका ओके आजु नोचत खसोटत बाड़न स – “ए बाबू, कतना करबऽ हमार फजिहतिया”. बदलत समय में गाँव आ ओकर समूचा परिवेश बदल रहल बा आ ई बदलाव सबसे पहिल सांस्कृतिक चेतना आ मूल्यन के खा रहल बा. एही के उजागर करत हीरालाल ‘हीरा’ के गीत बहुत सराहल गइल
अब मुँड़ेर ना कागा उचरे, ना देला संदेश
गौरइया अँगना ना फुदुके, बदलि गइल परिवेश.
कन्हैया पाण्डेय श्रमजीवी वर्ग के ओह जागरण के उजागर करुवन जवन शोषक वर्ग के खुला चुनौती देत बा -
ना भईया ! अब ई ना होई !
गटकऽ ले के हक हमार तूँ
हम छछनी छीछियाईं
तूँ सूतऽ गद्दा मसनद पर
हम भुइंयाँ लोटियाईं !
ना भईया ! अब ई ना होई !
शशि प्रेमदेव, रामेश्वर सिंह, त्रिभुवन प्रसाद सिंह प्रीतम, रमेशचन्द आदि कवियन के गीत, गजल आ फ्री वर्स सुनि के श्रोता लोग भाव विभोर हो गइल.
काव्य गोष्ठी के संचालन डा॰ शत्रुघ्न पाण्डेय आ अध्यक्षता शंभुनाथ उपाध्याय कइलन. एह सार्थक कवि गोष्ठी का बाद अंत में डा॰ श्रीराम सिंह आइल कवि आ प्रबुद्ध लोग के धन्यवाद दिहलन.