बतकुच्चन – ५०

by | Mar 7, 2012 | 0 comments


पिछला बेर बत्ती जरावे भा चालू करे भा रोशन करे के बाति निकलल रहुवे. आखिर ले कवनो राह ना लउकल कि बत्ती के का कइल जाव. एक हफ्ता ले सोचलो पर कवनो दोसर राह ना भेंटाइल. ले दे के इहे बुझात बा कि बत्ती अबही कुछेक साल ले जरबे करी काहे कि कवनो दोसर विकल्प बुझात नइखे. लाख विकास के बहार का बादो बहुते गाँव जवार आजुवो वइसन बा जहाँ बत्ती बारले जाला. काहें कि ओहिजा अबही ले बिजली नइखे चहुँपल. हालांकि कुछ लोग के सलाह रहल कि बत्ती रोशन कइल कहल जाव त काम चल सकेला. बाकिर एह से काम नइखे चले के. काहे कि कवनो जरूरी नइखे कि बत्ती अन्हार भइला का बादे जरावल जाव. आ फेर अगर रोशन कइयो दीं त बुतावे का बेर त अन्हार कर द कहे के पड़ी. फेर तबहियो कवनो जरुरी नइखे कि बत्ती बुतला का बाद अन्हार होइये जाव! त ई मामिला त लटकि गइल. फेर कबो देखल जाई भा सीधे महटिया दिहल जाई. कहले जाला कि भाषा तबहिये ले जियेले जबले ओकरा के व्याकरण में चउर ना दिहल जाव. भाषा के शुरुआत हमेशा जनता करेले बाकिर विद्वान लोग ओहमें आपन फच्चर तबले फँसावत जाले जबले ऊ संस्कृत ग्रीक लैटिन ना बनि जाव ! जियतार भाषा के अंगरेजी लेखा होखे के चाहीं कि जवने मिले तवने के पचा जाव. एह बीचे मौसम होरी के आ खेत बधार में बूंट के होरहा खाये के आ गइल बा. एही होरी आ होरहा से मिलत जुलत शब्द हवे होरिल. त काहे ना एह हफ्ता होरी होरहा आ होरिल के बाति कर लिहल जाव. होरी के बाति निकलल त शुरू कइल चाहब कि “सदा आनन्द रहे रउरा द्वारे मोहन खेले होरी हो, एक ओर खेलें कुँवर कन्हाई, एक ओर राधा गोरी हो.” होरी गावे वाला आ होरी खेले वाला होरिहारन का टोल में बहुते लोग के होरिलवो शामिल रहेले. होरी गावे वाला आ खेलेवाला के त होरिहार कहल जाला आ नन्हका दुलरउआ बबुअवा के होरिल. सभे अपना होरिलवा के कुशल मंगल चाहेला. बाकिर संजोग देखीं कि पौधा के होरिल के, माने कि काँच फसल के चाहे ऊ मटर होखो, बूंट भा चना होखो, इहाँ ले कि गेंहूओ के नयका बाल के जब जरत आग में पकावल के होरहा बना के सभे बहुते चाव से खाला. अब शहर में रहे वालन के त ई होरहा भेंटाये से रहल. हालांकि कबो कबो बाजार में होरहा बिकात लउक जाला बाकिर ओह होरहा में ऊ सवाद ना मिले जवन खेत में जरा के पकावल टटका होरहा से मिलेला. मकई के पकावल बाल के होरहा ना कहल जाव ऊ त बस भुट्टा होला. मटर भा बूंटे के होरहा में सबले बेसी सवाद होला. बाकिर पाकल फसल के होरहा ना पकावल जा सके. अबही हाल का चुनावो में कुछ होरिल आपन आपन ताकत अजमवले बाड़न. अब ओह लोग के जनता होरहा बना दिहलसि कि ऊ लोग होरिहार बन के होरी गाई अब ई देखे के समय आ गइल बा. केकरा पर होरी के रंग पड़ी आ केकरा पर मोरी के काँदो. अब एह होरी आ मोरी का फेर में सब करीं बाकिर सीनाजोरी मत करीं. फगुआ के आनन्द लीं. जे खेलल चाहे ओकरा से खेलीं जा ना खेलल चाहे ओकरा के छोड़ीं.

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(3)


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(4)

18 जुलाई 2023
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(7)
19 नवम्बर 2023
पाती प्रकाशन का ओर से, आकांक्षा द्विवेदी, मुम्बई
सहयोग राशि - एगारह सौ रुपिया


(5)

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सुतला मे, जगला में, चेत में, अचेत में। बारी, फुलवारी में, चँवर, कुरखेत में। घूमे जाला कतहीं लवटि आवे सँझिया, चोरवा के मन बसे ककड़ी के खेत में। - संगीत सुभाष के ह्वाट्सअप से


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