बतकुच्चन – ९७

by | Feb 13, 2013 | 1 comment


मन में एगो सवाल उठल बा कि पोसल आ पोसुआ में फरक होला कि ना? आ होला त का फरक होला. सवाल एह से उठल कि आजु चारो ओर पोसल आ पोसुआ लोग के भरमार हो गइल बा. केहू अपना चेला चाटी के पोसत बा त कुछ चेला चाटी पोसुआ होखत जात बाड़ें. अब देखीं केहू केहू के पोसे त ओहसे कवनो विरोध के जरूरत नइखे. आ लोग बाग त अपना बाल बच्चा, घर परिवार के, जन बनिहार के हमेशा से पोसत आइल बाड़े आ एहमें कवनो बुराई नइखे. बुराई बा त पोसुआ बनला से. आ जान जाईं कि पोसुआ बनावल ना जाला लोग खुद बखुद पोसुआ बन जाला. एक जमाना भइल जब दुनिया से दास प्रथा, गुलाम प्रथा कें नाजायज बता के खतम कर दिहल गइल. दास भा गुलाम जबरिया बनावल जात रहे. दास भा गुलाम बनल ओह गुलामन के मरजी कबो ना रहत रहे. ऊ त बस अपना मजबूरी में दास बन जात रहलें. बाकिर आजु खात पियत, पढ़ल लिखल समूझदार लोगो में पोसुआ बने के होड़ लागल बा. लोग बतावे में लागल बा कि सबले बड़का पोसुआ हम हईं राउर. आ ई पोसुआ आजु समाज के हर वर्ग में मिल जइहें. आफिस में बास के पोसुआ, मीडिया में केहू संपादक के पोसुआ त केहू मालिक के, आ बहुते सारा लोग सरकार के पोसुआ बन गइल बाड़ें.

पहिले का जमाना में गुलाम बनत रहले गरीब आ मजबूर आपन पेट चलावे खातिर. बाकिर आजु के पोसुअन का सोझा एह तरह के कवनो मजबूरी नइखे. ऊ कुछ धन, कूछ भाव का फेर में पोसुआ बनल बाड़न. अब देखीं पोसेवाला एह ला ना पोसे कि पोसाएवाला ओकर पोसुआ बन के रही. ऊ त बस आपन जिम्मेदारी, आपन कर्तव्य पूरा करे ला अपना पर आश्रित आदमी के पालन पोषण करे के काम ऊ हँस के करे भा रो के बाकिर पोसाई से अलग ना होखे. एह पोसे में पोसे वाला के कवनो तात्कालिक लोभ लालच ना रहेला. हँ घर परिवार, बाल बच्चा, जन बनिहार के पाल पोस के ओकरो के काम लाएक बनावे के तमन्ना जरूर रहेला. बाकिर पोसुआ बन जाए वाला आदमी सामने वाला के एक तरह से मजबुर करे ला कि ऊ ओकरा के पोसे पाले. एहिजा पोसुआ गुलाम नइखे, ऊ त असल में शोषक बा. ओकरा पर कवनो मजबूरी नइखे, ऊ त अपना उपर वाला के मजबूर करे में लागल बा. पोसुआ के हरकत से, काम से पोसे वाला के कवनो फायदा हो जाव त ऊ अलग बात बा, पोसुआ त बस अपना फायदा ला पोसुआ बनल बा. पोसल खातिर पोसे वाला खास होला जबकि पोसुआ अपना के पोसेवाला के खास बनावे बतावे में लागल रहेला. एह तरह से गुलाम भा दास के सम्मानित नजर से देखीं त देखीं बाकिर पोसुआ से सावधान रहीं. ओकरा से सहानुभूति राखब त उहे हाल हो जाई जवन बस ट्रक का पीछे लिखल भेंटा जाला कि “लटकले त गइले बेटा.” दोसरे पोसल खाली जीवे जन्तु के ना जाला विचारो के पोसल जाला. चीझो बतुस के पोसल जाला बाकिर विचार भा चीज बतु्स पोसुआ ना बने. कहल गइल बा कि बिलाई कबो पोस ना माने, कुकुर जरूर पोस मानेला आ एही से ओकरा के आदमी के सबले बढ़िया दोस्त कहल जाला पश्चिमी समाज में. हालांकि पोसुआ के सबसे बढ़िया नमूना कुकुरे होलें. मुँह उठवले, जीभ निकलले, लार टपकावत, दुम हिलावत ऊ अपना मालिक के तिकवत रहेला. गाय, बैल, घोड़ा,गदहा में एह तरह के पोसुआपन देखे के ना मिले. हँ उहो अपना पोसेवाला के देख खुश जरूर हो जालें आ आपन खुशी कवनो ना कवनो तरीका से देखावे लागेले बाकिर ऊ सहज होला दिखावटी ना.

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1 Comment

  1. प्रभाकर पाण्डेय

    बहुते नीमन अउर वैचारिक, यथार्थ बतकही…वइसे आजकल हमरी घर (देस) में पुसुआ खटमलन के बहार हो गइल बा..अउर इ खटमल निफिकिर होके चूस रहल बाने सन…ए कुल के भारत के इतिहास पता बा…..मुट्टीभर, मुगल, अंगरेज आदि कुल के चूसल ए कुल के इयाद बा….ए कुल के इहो पता बा की भारतीय जनता के कठिनाई (हर परकार की) में जीए के आदत बा…भारतीय गमाइल रहल ही प्रभु के सच्चा सेवा समझेने…त केतनो रकत पियल जाई केहू पूछे ना आई..अउर अगर केहू अइबो करी त ओ हू के अपनी में सामिल क लेहल जाई।। जय हिंद।

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