Banachari-cover-final

– डा॰ अशोक द्विवेदी

गंगा नदी पार होत-होत अँजोरिया रात अधिया गइल रहे. दुख आ पीरा क भाव अबले ओ लोगन का चेहरा प’ साफ-साफ देखल जा सकत रहे. छछात मृत्यु का सामने से, सुरक्षित लवटि आइल साधारन बात ना रहे. संजोग अच्छा रहे कि असमय आ अकाल आवे वाला मउवत परछाहीं छूइ के निकल गइल रहे. ओकर कल्पना रोआँ खाड़ करे वाला रहे त भला जे ओकर साक्षात्कार क के आइल होई, ऊ अतना जल्दी कइसे सहज हो पाई? भीतर के असहजता, ओह लोगन के बोली रोकि के कुछ घड़ी खातिर गूँग बना देले रहे.

नाव से उतरि के पूरा परिवार, ठंढा पानी से हाथ-मुँह धोवल, दू-चार अँजुरी पानी पीयल आ अभी मुँह पोछते रहे, तले नाइ वाला ओह लोगन का ओर एगो मोटरी बढ़ावत बोलल, ‘एह मोटरी में कुछ पहिरे-ओढे़ के बस्त्र आ खाये-पिये क समान बा! आ पानी पिये खातिर एगो कमंडल बा.’ जब एक जना हाथ बढ़ाइ के मोटरी लिहलन त ऊ फेर बोलल, ‘सामने क बालू-पाट पार कइ के, सोझे दक्खिन रउवा सभ बन में पहुँचि जाईं. फजीर होखे से पहिले रउवा सभ के राज क सीमा पार क लेबे के चाहीं! बस, हमके अतने आदेश रहल, भूलचूक माफ करीं आ हमके अनुमति देईं.’ फेरू ऊ फुर्ती से नाइ घुमवलस आ चप्पू चलावत बहत धार में पहुँचि गइल.

ओहू लोग के जइसे परिस्थिति आ समय के पूरा ज्ञान रहे, केहू कुछ ना बोलल, बाकि ओ लोगन का संगे उतरल ऊ तेजवान अधेड़ औरत गंगाजल उठाइ के हाथ जोड़त बिनती कइली, ‘माई! तोहार दया आ ममता हमरा लड़िकन पर बनल रहे, रउरा कृपा से ई फरत-फुलात रहें सऽ!’

बालू के ऊ लमहर चाकर पाट आ दूर-दूर ले रात के निर्जन-नीरव सन्नााटा. गर्मी, थकान आ नीन तीनू से बेहाल ऊ टोली हाली-हाली आगा बढ़े लागल. बालू में धँसत गोड़, जात्रा के अउर भारी बनावत रहे, बाकि कहल जाला नऽ कि जब जान प संकट आवेला, त संकट से बाँचे खातिर अदिमी का गोड़ में पाँख लागि जाला.

आखिरस ऊहो लोग लमहर बलुअर-पाट लाँघत बन में पहुँचिये गइल.

– ‘तीन कोस के लगभग इ लमहर पाट दिन में पार कइल बहुत कठिन होइत!’ सबसे आगा चलत सदस्य रुक गइल,
– ‘हमसे अब नइखे चलल जात बेटा!’ थकान से निढाल औरत बइठि गइल,
– ‘चिन्ता मत करीं माता हम आपके अपना पीठि पर ले चलब.’ कद काठी में सबसे हृष्ट-पुष्ट आ बलशाली लउके वाला युवक बइठि के महतारी के पिठइंयाँ चढ़ा लिहलस,
– ‘हँ, कहीं आगे साफ जगह देखि के सुस्ता लिहल जाई; नऽ बड़का भइया?’ पाछा वाला युवक चलते-चलत बोलल,

अबहीं अकास साफ ना भइल रहे. महतारी के पीठ पर लदले आगा-आगा तेज चलत युवक हँस के बोलल, ‘जे ज्यादा थाकि गइल होई, ओके हम अपना कान्ह पर बइठा के चल सकीला, लेकिन अधिका से अधिका दू आदमी के!’

सब हँसत ओकरा पाछा-पाछा फाल डाले लागल. भोर होते रहे, बाकिर लगातार पैदल चलला का हरांसी आ जागरन का कारन ओ लोगन के देंहि लरुवाइ गइल रहे. ‘हमके बड़ी जोर से पियास लागल बा बेटा.’ माता के मद्धिम आवाज सुनते सब रुकि गइल. कुछ आगा, बायाँ अलंगे एगो पीपर का फेंड़ तर महतारी के उतारत, युवक बोलल, ‘तोहन लोग माता का लगे बइठऽ, हम पता करत बानी. इहाँ आस पास जरूर कवनो जलाशय होई.’

– ध्यान से सुनीं मझिला भइया… कहीं जलचर आ सारस चिरइन के आवाज आ रहल बा… जरूर ओने जलाशय होखे के चाहीं. सुकुवार लउके वाला रूपवान भाई आपन राय दिहलस.
– ‘हई मोटरी खोल के कमंडल निकाल लऽ आ तूहूँ सँगे जा. सबेर होखे में अभी दू घरी बाकी बा;संभव होई त सब जल्दी से जल्दी नहाइ के आपन थकान त मेटाइ ली.’ जेठ भाई, एगो युवक का ओर ताकत निर्देश दिहलन.

जलचर जीवन का कुलबुल आ चह चह के ऊ आवाज आसे पास से आवत रहे. बलिष्ठ शरीर वाला युवक के टोकत, पछिला बोलल ‘भइया, हम तनी एगो डंडा तूरि लीं, देखीं…. जलाशय का किनार पर बेंत लेखा कई गो फेंड़ क झुरमुट बा… बाकि ना, पहिले कमंडल में पानी भर के माता के दे आईं, तब देखल जाई.’

मझिला भाई कुछ ना बोललन, चुपचाप जलाशय का भितरी हेल गइलन, मुँह हाथ धोइ के कुल्ला कइला का बाद दू अँजुरी पानी पी के कहलन- ‘पानी त ठंढा आ मीठ बा, तूँ कमंडल में पानी भर के दउड़ जा, माता जब जल पी लेस त सबके इहें बोलाइ लियइहऽ. तबले हम नहा लेत बानी.’

तीन ओर से ऊँच, ढलान पर जमीन सूखल आ पथरीला रहे, बाकि जलाशय साफ-सुथरा आ जीवन से भरल रहे. गहिराई ओतना ना रहे, बाकि जल कमर भर रहे. सब केहू हाली-हाली नहाइल-धोवल आ मोटरी में धइल धोती, गमछा पहिरल. पुरान पहिरल वस्त्र तहियाइ के रखाइ गइल. साड़ी बदलला का बाद माता पुरुब मुँहे खड़ा होइ के पाँच अँजुरी जल देत सुरुज नरायन क सुमिरन कइली, ‘हे देव! हमरा लड़िकन के अतना शक्ति-सामरथ दऽ कि ऊ हर बिपदा क सामना धीरज से कर सकँ सऽ. उनहन क आपुसी प्रेम आ एकता जीवन भर बनल रहे.’

फेर पारा-पारी पाँचो लड़िका उनकर चरन छूइ के असिरबाद लिहलन स. आस पास का बँसकठ आ बेंत से सुरक्षा खातिर कुछ हथियार बनावल गइल. एह काम में युवकन का करिहाँव में खोंसल कटार आ छुरी बहुत कामे आइल ओह बेरा. एगो जुवक मोट लचीला लमहर बेंत काटि के कामचलाऊ धनुष बना लिहलस. बँसकठ के एगो छोर चोख क के भालानुमा बनावल गइल.

– ‘अब जल्दी से जल्दी पयान करऽ लोग! ई क्षेत्रा सुरक्षित नइखे. पता ना कब, केहू कहाँ से आ जाव?’ जेठ भाई आपन आशंका प्रगट करत कहलन
– ‘हँ हँऽ राज के सीमा में एक जगह ढेर देर ले रुकलो ठीक नइखे! भोरे-भोरे जतना दूर जा सकीं जा, निकल जाये के चाहीं. धनुहा के डोर कसत युवक खड़ा होत, जेठ भाई क समर्थन कइलस.’

सब केहू चीझ-समान सरिहा लिहल, कमंडल में पिये खातिर साफ जल भरा गइल आ यात्रा सुरू हो गइल. भोर के आहट से वन-पक्षियन में जागरन क संकेत मिले लागल. स्नान का बाद ओह लोगन में ताजगी आ उर्जा आ चुकल रहे, एही से ऊ लोग फलगरे बढ़ल जात रहे.

अबहीं ऊ लोग कोस-दू कोस गइल होई कि आकास उजराये लागल. लाल आभा लेले सुरुज नरायन, पुरुब के पह फारत उपराये लागल रहलन. ठंढा हवा में टटकापन के अनुभूति होत रहे. सबेर के बेरा, नइहला-धोवला से आइल ताजगी आ ओकरा बाद लगातार यात्रा से ओह लोगन क शारीरिक-भाखा बदल चुकल रहे. एगो संकल्प आ उछाह भरल नया आभा से दमकत ओह टोली का चाल से ई ना लागत रहे कि ऊ जल्दी बिलमाव ली. सघन-बन का किनार वाला ओह बींड़र बनक्षेत्रा में अदिमिन का अइला गइला से बनल डहर, एतना आसान आ सुगमो ना रहे कि ओके मार्ग आ राह कहल जाव; काहें कि नीचे जमीन ऊबड़-खाबड़ रहे आ झरल पतई का साथ बीच-बीच में नोकदार जंगली घास, उघारे गोड़ चले वाला खातिर कठिन रहे. राह का दूनो बगल बनइला झाड़ी, झरबेर, मकोय, आ टप्पा-टोइंयाँ एकाध गो कँटइला फेंड़. कबो कबो कवनो छोट फेंड़न पर परजीवी लतर आ बेल से बनल मंडप में दुबकि के बइठल खरहा, बानर भा खेंखर सियार जरूर लउकि जात रहलन स!

साधारन धोती-गमछा में, गँठल देह वाला ओह गेहुँवाँ-गौरांग वर्ण वाला दिव्य युवकन का बीचे चौड़ा किनार वाली उज्जर साड़ी पहिरले गोर रंग क अधेड़ औरत अपना शान्त भाव में कवनो तपस्विनी लेखा लागत रहे. सामान्य दृष्टि में इहे लागत रहे, जइसे कवनो नेमी धर्मी बाह्मन-परिवार कवनो सुदूर जतरा पर निकलल होखे. कुछ घरी पहिले एगो जटहवा बरगद का नीचे बइठि के जलपान करत खा, ओ लोगन में आपुसी निर्णय इहे भइल रहे कि अब विश्राम ना कइल जाई आ दिने-दिने राज्य के सीमा से बहरियाये के पूरा कोसिस कइल जाई. समय आ परिस्थिति दूनो अइसने रहे कि राह में कहीं रुकलो ना जा सकत रहे. जेठ भाई का रूप में आगा हाली-हाली डेग डाले वाला युवक का एक हाथ में भालानुमा चोख लाठी आ दुसरा हाथ में कमंडल रहे, बीच में महतारी का आगा-पाछा चले वाला युवकनो का हाथे छोट छोट डंडा आ भोजन-कपड़ा के गठरी रहे. आ ओकरा पाछा धनुहा-बान कान्ही में टँगले गोर-युवक से हँसि-हँसि बतियावत ऊ बलिष्ठ आ कसल सुडौल देह वाला जुवक रहे. धीरे धीरे आपुस में बोलत-बतियावत ई परिवार इत्मीनान से चलल जात रहे कि घोड़न के हिनहिनइला का साथ टापन के आवाज सुनाये लागल. पूरा परिवार झट से गोलिया गइल. आपुस में कुछ तय भइल आ ऊ लोग दहिनी ओर सघन बन में घुसि के दू भाग में बँट गइल. लतर से तोपाइल एगो बनइला सीसम का पाछा तीन आदमी छिप के बइठ गइल बाकी तीन आदमी आसपास के फेंड़न के ओट लेके सावधान खड़ा हो गइल.

घोड़न के टाप के आवाज उहें आके रुकल जहाँ ऊ लोग अबे खड़ा होके बतियावत रहे. तकरीबन दस गो हथियारबन्द घुड़सवार रहलन. ”आखिर कहाँ गायब हो गइलन सऽ?“ नायक के झुँझलात बोली सुनाइल – ‘हो सकेला ऊ दहिने का गझिन बन में समा गइल होखन सऽ. एम्मे त आजु ले जे ढुकल, आज ले ना लवटल!’ एगो सैनिक आशंका जतवलस
– ‘काहें? एकर कवना गारंटी बा?’ नायक फेरू सवाल दगलस.
– ‘ना सरकार ई मायावी बन हऽ, एम्मे राछस रहेलन सऽ.’ दुसरका सैनिक नायक के बतवलस.

अइसन ना कि सैनिक नायक एसे नावाकिफ रहे. ऊ ओइसहीं रोब में डपटलस, ‘भीतर घुस के देखऽ जा, कुछ न कुछ आहट जरूर मिली.’

सैनिक मजबूरी में भीतर घुस के देखलन सऽ जइसे आफत में जान बचावे आ कोरम पूरा करे खातिर देखल जरूरी होखे. फेड़न का पाछा सपटल युवक सतर्क आ सावधान रहलन स. हार-थक के जब सैनिक जंगल से बहरियइलन स त छिपल परिवार बहरा निकलि आइल. पहिले त जगहे पर ऊ लोग कुछ पल थथमल रहे फेरू एक अदिमी राय दिहल कि जंगल में घुसि के गइला से पकड़इला के डर ना रही आ दुसरा राज के दूरियो बहुत कम हो जाई. फेर त ई सुझाव एकराय में बदल गइल. अन्दाजन दिशा के अनुमान लगावत लोग भितरी घुसत चलि गइल. आगा बन अउर गझिन रहे. ओम्मे सुरुज क रोसनी बहुत कम आवत रहे. काँट-कूस, झरबेर, झाड़ी क पसरल लसराइल डाढ़ि आ टेढ़ ओढँघल झँगाठ फेड़न के झलाँसी काटत-तूरत, फाँफर जगह बनावे के रहे. गनीमत ईहे भइल कि एक घंटा बाद एगो फाँफर राह लउकल. ऊ लोग ओनिये घूमि गइल. कुछ दूर तक राह सरल रहे, बाकि आगा फेर ऊहे बीहड़ बन.


दुसरकी कड़ी


डा॰ अशोक द्विवेदी के परिचय

DrAshokDvivedi
जन्म – 01 मार्च 1951
जन्म स्थान – ग्राम- सुलतानपुर, पो॰- गौसपुर, जिला – गाजीपुर (उ॰प्र॰)
पिता
– स्व॰ (श्री) धर्मराज द्विवेदी,
माता – स्व॰ (श्रीमती) देवरानी देवी
शिक्षा – एम.ए. (हिन्दी), पीएच. डी. (काशी हिन्दू विश्वविद्यालय), वर्ष 1975

प्रकाशित कृति –

भोजपुरी में :
1. अढ़ाई आखर (कविता संग्रह) 1978
2. रामजी के सुगना (निबंध संग्रह) 1994
(अखिल भारतीय भोजपुरी साहित्य सम्मेलन से पुरस्कृत)
3. ‘गाँव के भीतर गाँव’ (कथा संग्रह) 1998
(उ॰प्र॰ हिन्दी संस्थान से ‘राहुल सांस्कृत्यायन’ पुरस्कार)
4. ‘आवऽ लवटि चलीं’ (कथा-संग्रह ) 2000
8. ‘फूटल किरिन हजार’ (गीत-गजल संकलन) 2004
9. मोती बी.ए. रचना संसार (मोनोग्राफ) 2014

हिन्दी में :
1. घनानन्द और उनकी कविता (समीक्षा) 1975
2. ‘मीसा’ में बन्द देश (कविता-संग्रह) 1977
3. समीक्षा के नए प्रतिमान (आलोचना) 1992
4. हिन्दी एवं भोजपुरी की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में सैकड़ों रचनाएँ प्रकाशित

संपादन –
1. भोजपुरी दिशाबोध के पत्रिका ‘‘पाती’’ का वर्ष 1979 से निरन्तर संपादन
2. ‘समकालीन भोजपुरी साहित्य’ के प्रारंभिक संपादक-मंडल में, 5 अंक तक
3. हिन्दी त्रैमासिकी ‘ग्राम्या’ का संपादन, 12 अंक

सम्मान –
1. ‘साहित्य श्री’ (कन्हैयालाल प्राग्दास हिन्दी संस्थान, लखनऊ) 1994
2. ‘भोजपुरी-शिरोमणी’ (अखिल भारतीय भोजपुरी परिषद, उ॰प्र॰)
3. ‘राहुल सांस्कृत्यायन पुरस्कार, 1998 (हिन्दी संस्थान, उ॰प्र॰)
4. ‘लोकपुरुष’ (विश्व भोजपुरी सम्मेलन एवं स्वदेशी मंच, वाराणसी)
5. ‘भिखारी ठाकुर स्मृति सम्मान (भोजपुरी एसोसिएशन ऑफ इण्डिया एवं सन्डे इन्डियन, नई दिल्ली)
आदि कई संस्थानों से सम्मानित

वर्त्तमान आवास –
टैगोर नगर, सिविल लाइन्स, बलिया- 277001 (उ॰प्र॰)
एवं
एफ 1118, चित्तरंजन पार्क, नई दिल्ली- 110019

मोबाइल नं॰ – 08004375093, 9919426249


(दिसंबर 2014)

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2 thoughts on “बनचरी (पहिला कड़ी)”
  1. नीमन सुघर सराहनीय रचना बा इ त

  2. बहुत बढ़िया शुरुआत बा। द्विवेदी जी के रचना सभे के पढ़े के मिली। ..

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