महतारी

by | Apr 17, 2013 | 1 comment

keshav-mohan-pandey

– केशव मोहन पाण्डेय

जोन्हिया काकी पता ना केतना दिन के भइली कि टोला भर के सभे काकीए कहेला. ऊ अपना टूटही पलानी में अकेले अपना बाकी जिनगी से ताल ठोंकेली. उनकर पूत पुरन नवका दुनिया के निकललन. दू-तीन बार पंजाब कमाए गइल रहलन से उनका साथे उनके मलिकाइन शोभो के बहरी के चस्का धऽ लिहलस. शोभा ठेंठ देहातो में रहि के शहरी के सिंगार के कल्पना करत दिन भर लिपिस्टिके काजर में टर्र रहेली. जोन्हिया काकी के ई तनीको ना बाउर लागेला, काहें कि सभे एही उमिर में न सिंगार करेला. …. एक दिन पुरन शोभा के ले के अपने महतारी आ अपने माटी से मोह तुरि के पंजाब चलि गइले. उ त कुछु ना कहली, बाकीर उनके करेजा पुरन की ओर से कई टुकड़ा हो गइल. बेचारी अपना कोखे के गरीआ के आँखि के लोर पी गइली.

जोन्हिया काकी मउनी में बन्द करे लाएक हो गइल बाड़ी, बाकीर गोजी के तीसरका पाँव उनका खातीर मोटर गाड़ी के काम करेला. दू कट्ठा खेत बा, ओही के देख-रेख में उ लागल रहेली. अपना खेत के साथे दोसरो-तीसर के काम क के उ आपन गाड़ी डगरावेली. अगर केहू पुरन के विषय में पूछल त कहेली कि, – ‘जेकरा खातीर हियरा में फिकिर रहेला, उहे महतारी हऽ. जब ओके हमार कवनो फिकिरे नइखे, तब हम ओकर महतारी कइसन? ओकर नवकी माई त ओकरा साथही बाड़ी नू.’

जोन्हिया काकी के मने नियर उनका मुड़ी के बारो ऊजर बा. चेहरा पर अनुभव के झुर्री झुलऽता, आ छोटका आँख में अद्भुत चमक बा. उनके मइलका साड़ीओ से हमेशा ममत्वे के मॅंहक आवेला. जोन्हिया काकी के सुहाग उजड़ल त भगवान के एगो अटल खेल समझ के मुँहे सी लिहली. जेठका पूत बीरन जब शीतला माई के खप्पर में झोंका गइलन तबो ढेर बाउर ना लागल, बाकीर जब पुरन छोड़ के गइलन तब लागल कि ई जिनगी से धिक्कार बा. उ सोचेली कि ओह परदेस में पुरन कइसे होइहें. आज के जुग में ई कवन मजबूरी बा कि लोग के आपन गाँव, आपन माटी आ अपना माई के छोड़ के परदेसी हो जाए के पड़ेला? ई सोंचते सोंचत उनकर आँख भर जाला. ई देख के जब केहु कहेला कि -‘लइका के लगे मन चलि गइल बा का काकी?’
तब जोन्हिया काकी के जवाब रहेला, – ‘ऊ हमार लइका ना हऽ. ….जब ऊ हमरा कोख के रहीत त हमके छोड़ के काहें जाइत?’

ऊ त एतना उमिर में एतना भोगला पर जीए के अउरी ढंग सीख लिहले बाड़ी. अब ऊ एगो महतारी निअर टोला भर के देख-भाल करेली. अगर कबो सुनेली कि फलाना के लवना के तकलीफ बा, गोरु खातिर घास नइखे, केहू लइका के देखत नइखे, त छने भर में सब क दीहें. उनके एह करनी से टोला भर के लोग खुश रहेला. सभे रोज अपना घरे खिआवे के चाहेला, बाकीर ई बात उनका अपने जाँगर खातीर गारी लागेला. जब केहू झुठहूँ पुरन के तार देबे के कही त उनके मुंहें बिगड़ जाला. एक मुँह से हजार गारी देत कहेली, -‘ऊ का जनीहें महतारी के मोल! एगो आन्हरो अपना माटी आ महतारी के छोड़े के ना चाहेला.’

जोन्हिया काकी के बात सुन के पढ़लो-लिखल लोग दांते अँगुरी दबा लेलन. केतनो त ऊ एगो महतारी हई. महतारी के मन त अइसने होखबे करेला कि गारीओ में ओकरा रोंआ-रोंआ से आशीष के अमरीत बरसेला. अरे बुझो उनके मन, जेकरा घरे बाप-महतारी रुपी ई रतन नइखन. ई रतन के बिना त घर मुर्दाघाट हो जाला.

भादो कपार पर चढ़ल रहे. आसमान करीका बदरी से ढकाइल रहे. उतरही गड़हा में मलाकोका फुलाइल रहे आ अपना गोरका फूल पर घमण्डे अन्हराइल रहे. पट्टू पंजाब रहेलन, उनकर मलीकाइन ईहाँ सउरी में पड़ल रहली आ दुआरे पर के गाय तीन दिन से कुछु ढंगर खइले ना रहे. ई सुनते जोन्हिया काकी खँइची-खुर्पी ले के खेते चलि दिहली. छने भर में भदेंया पानी के लरी लाग गइल. काकी घरे आवत-आवत चभोरा गइली. बूढ़उती के देंह, बोखार दबोच लिहलस. उनकरा त ई डर लागे कि कहीं छतुअनिआ पर के सिरकट्टा त ना ध लिहलस! बीमारी में ऊ पुरन-पुरन बड़बड़ात रहली, बाकीर केहू जब पुरन के लगे टेलीफून करे के कहे त मुहें माहुर क लें. बोलें, – ‘हम मर जाएब त फेंक दिहऽ लोगीन, बाकीर टेलिफून मत करऽ लोगीन. हमार कवन चिन्ता, ओकर नवकी माई त ओकरा साथहीं बिआ नूऽ.’

ई कहते कहत सावन के ओरी जइसे जोन्हिया काकी के आँख के दूनो कोर भींज जाय.

ई त संसार के रीति हऽ कि दानी के दानी मिले, मिले सोम के सोम. जोन्हिया काकी खातीर जइसे सगरो टोला आपन रहे, ओइसे हीं ऊहो सगरो टोला के हो गइल रहली. सबके सेवा से ऊ ठीक त हो गइली बाकीर एकदम कमजोर हो गइल रहली. दू-चार लोग परधान जी से मिल के उनकर नाम वृद्धा पेंशन में लिखवा दिहलें. अब काकी के अजबे हाल हो गइल रहे. अब ऊ कवर उठावें तऽ पुरन के इयाद आवे, करवट बदलें तऽ इयाद आवे, खेत घूमें तऽ इयाद आवे. शायद कमजोर भइला पर अब अउरी जरुरत बुझात रहे. बुढ़ भइला पर बाप-महतारी एगो टूअर बछरु जइसे अपने सवांगन से भाव चाहेला.

दिवाली आ छठ बितलो पर जब पुरन ना अइलन त जोन्हिया काकी के दुख दूना हो गइल. ऊ दू का सोचे लगली. काहें कि पुरन हर परब-त्योहार में घरे आ जात रहत रहुवे. देखते देखत फगुआ के लहर आ गइल. आज से तीन दिन बाद फगुआ हऽ, से चारु ओर उन्माद उड़ रहल बा. जेही के देखऽ, उहे तनी दोसरे लागता. जेही से बात करऽ, उहे तनी रसदार बतिआवऽता. बयारो फगुनहट में बउराइल बिआ आ आम लीची के पेड़ो बउरा गइल बा. मनेछर त काल्ह गीतिये में सुनावत रहले कि फगुनी बेयार से गेहुँवो के गोड़ भारी हो जाला.

एह कुल्ही से बेपरवाह पुरन के सोंच के सोच में जोन्हिया काकी दुआरी पर बइठल रहली. तन त ओहिजा रहे बाकीर मन पुरन खातिर कोठा-कोठा घूमत रहे, तले सुनरी चमकत आइल आ आके बइठ गइल. छने भर बाद सड़की पर, मुड़ी पर एगो टिनहिया पेटी धइले, मन मरले आ मुँह चोखा कइले पुरन लउकले. साथे शोभो ललपरीआ बनल, कांखे में बेग लटकवले आवत रहली. ओह लोगन के देखते जोन्हिया काकी के आँख छलछला गइल. बुझाइल कि ममता के बाढ़ से सबर के बान्ह टूट गइल जेमे पुरन-शोभा आ काकीओ डूब गइली. उनकर मन भइल कि पुरन के गोड़ पकड़ के खुब रोईं, ‘का हो बेटा? महतारी के एह तरे भुलाइल जाला?’ – तले सुनरी कहलस, – ‘हऊ देखऽ काकी, पुरन भइया आ गइले.’

जोन्हिया काकी के मन बिगड़ गइल. उठ के भीतरी जात कहली, – ‘ऊँह! …तऽ हम का करीं? ….. आरती उतारीं काऽ? …. आजु ले अकेलहीं नु जीअनी हॅंई.’

पुरन के अइले चैबीस घण्टा हो गइल रहे. उनके मुँह हमेशा चोखे बनल रहे. जोन्हिया काकी चाहिओ के खीसिन कुछू ना पूछली. पुरन दुआरे पर रमई से कहत रहलन कि दिवाली में शोभा के बीमार पड़ गइला के कारन ऊ घरे ना आ पइलें आ अबकी अइलें हॅंवें तऽ सब माल-मुदरा चोरी हो गइल हऽ. चाई पाकेट काट लेहले हॅंवें सँ. ऊ त जान बाँच गइल, इहे ढेर बा काका!’

ई सुनते जोन्हिया काकी भीतरी से निकलली तले डाक बाबू जुमि गइलें. कई महीना पर जोन्हिया काकी के पेंशन के एक हजार रुपया आइल रहे. डाक बाबू के साथहीं रमई चलि गइलें. ओने सबके घर से पुआ-पकवान के सुगंध आवत रहे त एने पुरन के मन मचलत रहे. ऊ लजाते लजात अपना माई से कहलें, – ‘ए माई, तनि कुछु पइसा देतू कि फगुआ के बाजार होइत. हमार कमाई त सब चाई काट ले गइल.’

प्रवास में लुटाइल पुरन के फगुआ के खुशी अपना माईए से मिलल. पुरन के मुँह से ई बात सुनतहीं बेचारी जोन्हिया काकी के सब खीस भुआ जइसन उड़ गइल. जिनगी भर के तापल उनकर हियरा पुरन के एगो अधिकार जतवते जुड़ा गइल. पुरन के हाथ में सब पइसा देत कहली, – ‘हमरा पइसा का होई हो? …. ई सब तहरे नु हऽ! ….लऽ बेटा, बाकी अब हमरा के छोड़ के परदेश मत जइहऽ बेटा!’

अब पुरनो के माटी के मोल आ महतारी के माने बुझाऽ गइल रहे. लोर भर गइला से उनकर आँख पानी में मछरी जइसे चमके लागल.


तमकुही रोड, सेवरही, कुशीनगर, उ. प्र.
संपर्क – kmpandey76@gmail.com

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1 Comment

  1. NEEMAN SINGH

    सागरी दोस समय के बा .सभी लोग के मति मरल जाता .

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