– आचार्य विद्यानिवास मिश्र

भोजपुरी में लिखे के मन बहुते बनवलीं त एकाध कविता लिखलीं, एसे अधिक ना लिखि पवलीं। कान सोचीलें त लागेला जे का लिखीं, लिखले में कुछ रखलो बा! आ फेरो कइसे लिखीं? मन से न लिखल जाला! आ मन-मानिक होखो चाहे ना होखो-हेरइले रहेला, बेमन से लिखले में कवनो रस नइखे। घरउवाँ चइता के बोल ह – ‘जमुना के मटिया; मानिक मोर हेरइलें हो रामा’…! हमार घुँघुची अइसन मन, बेमन से पहिरावल फूलन के माला में हेरात रहेला। जवन ना चाहीलें तवन करे के परेला लोगन के मन राखे खातिर। जवन कइल चाहीलें तवना खातिर एक्को पल केहू छोड़े देबे के तइयार नाहीं। लोक के चिंता जीव मारत रहेला। मनई जेतने लोक क होखल चाहेला, लोक ओतने ओके लिललें जाला। चलऽ चारा पवलीं नाहीं, बड़ा नरम चारा बा। एह लोक के कोसे चलीलें त एक मन बड़ा ताना मारेला – ‘ए बाबू! तूहीं त एके सहकवलऽ, अब काहें झंखत हव ! बतिया ओहू सही बा-सहकावल त हमरे ह, लोक-लोक हमहीं अनसाइल कइलीं। देखीलें लोक केहू के होला नाहीं, जेतना लेला ओकर टुकड़ो नाहीं देला। निरालाजी के गीत बा ‘देती थी सबके दाँव बंधु’, हमरो जिनगी सबके दाँवे दिहले में सेरा गइलि, हमार दाँव केहू देई, ई एह जनम में त होखे वाला नाहीं बा!

एतना घुमलीं, एतना देखलीं, एतना पढ़लीं, एतना गुनलीं, सज्जी में अपने भाग लगावत गइलीं। भाग लगावत-लगावत भजनफल ले गइलें नेउरा मामा, बाकी बाँचल सुन्न। अब एमें का भाग लगाई? अब किछू हासिल नाहीं लागी, हमरे भागि में बस सुन्नवे आई। आजो हमके चैन से बइठे त दे। उहो नाहीं होई। मन उमड़त-घुमड़त रही, कवने कवने कोना-अँतरी से महीन आवाज आवत रही, ‘बाबू, लिखऽ न हमरो बतिया! कब्बो अमवाँ के बारी कही, एही बरिया में जेठ के दुपहरिया के घाम नेवरले बाऽ बाबू, अधपाकल आमे खातिर रार कइले बाऽ, एह अमरइया के सुधि कब्बो लेबऽ! छीदी आ दीदी के समवरिया मनमतिया, रोरा, परोरा, सुनरदेइया ई सब दुलरा के बोलावेली, बाबू हमन के आँखिन के पुतरी, झुलुवा ना झुलबऽ! एगारह बरिस के भइलीं, इस्कूल जाए लगलीं, हुडु अस नोकरन के साथे इमली के डारि में झूला पड़ल, ऊ हमहूँ के बइठा लिहलें, पेंग मारे लगलें नोकर, हम झूला के बीच में बइठलीं, एक ओरि पिछवारे के जोलहा के बेटी, एक ओर हम। इमली के अड़ार डारि। ओसे हुड्डन क पेंग सहि ना गइल। टूटल अउर अररा के गिरलि, पिढ़वो गिरल, नीचे लरिकिया के लागल, ओसे बेसी नोकरन के। चोट से ज्यादा चिन्ता ओह लोगन के ई मचल कि बाबू कहीं कहि दीहें त हमन के कुसल नाही। लरिकिया रोवे के रोवबे न करे – बाबू, केहू से कहिहऽ मति, बप्पा सुनिहें त हमार कवन गति होई, हम नाहीं जनितीं। डर त अपने भीतर रहे। एसे हम त चुप रहब, चोटिया कइसे चुप रही। सबे चोटि उभरल आ सभे कहल कि राही में ठोकर खाके गिरलीं। एक्के साथ इतना जनी के ठोकर समुझि में काहें ना आवो, धीरे-धीरे बाति खुलल, हँसी-दिल्लगी भइल, बाति ओराइ गइल। लेकिन ऊ इमली के डरिया अब्बो कबे कबे टोकेले – ए बाबू, हमहूँ तोहरे सथवे गिरलीं, हमरो चोटिया मन परबऽ!

नइये उमिर में बियाह भइल, रेखियो अबहिन ठीक से भीनल नाहीं रहे, तब्बो हमके बड़वार बिटिहिनिन के हँसी-मजाक झेलेके रहे, खिझियो बरे, भितरे-भीतर गुदगुदियो लागे! पँचवे दिन बरात बिदा भइल त गीति उठल, ‘चल न सखि, चलन चाहत रघुराई!’ आँखि भरि आइल। एतना मोह-छोह कहाँ से उपराला ओह उमिर में, कइसे मनई बाति-बाति में आपन हो जाला, ओकरे सुधि में पँवरे लागेला। ऊ उमिरिया अब लवटी त नाहीं बाकिर ओह उमिरिया के कोहाइल, मान-मनउवल, नेह-छोह, बाति-बाति में अनखाइल, हेराइल आ मिलले पर बाति ना ओराइल…ई सब मन से नाहीं छूटेला। कुँआर हाथे के मेहदी के रंग छोवलो पर कहाँ छूटेला? ऊ कुँवारि अधकुँआर उमिरि, कब्बे-कब्बे हिसाब माँगेले, बाबू का पवलऽ? का गँववलऽ? जबाब दिहलो चाहीं त जबाब बा कहाँ? हिसाब बट्टे खाते के बा, का जबाब देई! सूरदास के पद हवे, ‘लरकाईं की प्रीति कहो, सखि, कैसे छूटत।’

आजु खतियावे बइठीं त जानीं केतना हिसाब कपारे चढ़ल बा, कवनो जिनिगी उतरे के नाहीं; बस ‘मूँदहुँ आँखि कतहुँ कछु नाहीं’ के नियर ऊ सब बाति अन्हे के जिनगी बितवले में कुसलि बा। पिछवारे के सुधि कवनो नीमन काम नाहीं, आगा देखे के चाहीं, आगा देखे वाला के जमाना होला। बाकिर करीं का? पिछुवरवें त नेबुआ, अनार, कचनार के डारि में फूल आवेला, बँसवरिया में जाने कवन-कवन चिरई बोलेलीं। पिछुवरवें त आँखि मुनउवल खेललीं, ऊ पिछुवरवाँ के कइसे बढ़नी बहार दीं। आगा जाए के लचारी बटले बा, नाहीं जाइब त धकेलि के लोग आगे फेंकि देईं। लोग के बाहर जा नाहीं पाइब। तब्बो मनवाँ रहि-रहि के भितरे-भितर बिहरेला। आँवाँ नियर एहीं खींचातानी में कवनो ओर क ना भइलीं, घाटे जाईलें, धोबिनिया दुतकारेले, कहवाँ ई मुँहलेसना आइल, घरे जाईलें त धोबिया डंडा उठावेला एके भेजलीं धोबिनियाँ के ऊपर नजर राखे के, आ ई घरघुसना घरे लवटि आइल। ओही धोबी के कुतवा नियर हमरो लिखंत बा, धोबिनियाँ के लीला नियर नवका जमाना के परपंचों समझे के मोका नहीं मिलेला। धोबिनियाँ हमरे ऊपर तनिको पतियइबो नाहीं करेले, ई ओही दहिजरवा के पाछे-पाछे रहेला। धोबिया के नियर आपन मन धोवे वाला जिनगी क मालिक हमार मजबूरी समझेला नहीं। दूनों से गइलीं घरवो से, घटवो से। हजारीप्रसाद जी कहले बाटीं ‘जुगुप्सित जंतु सा उभयतो विभ्रष्ट।’ ऊहे हालि बा।

एही में भोजपुरी के नवका पत्रिका के नेवता, भोजपुरी में लिखीं, कुछऊ लिखीं, लिखीं। कइसे ए बउराह लोगन के परतियाईं कि भोजपुरी में लिखे चलब त बिसरल-बिसरल बाति उपराई। हम केके रोकब। आ जब सब दउरल आ जाई त कलमियाँ केके-केके सम्हारी? चुप्पे रहल ठीक बा। अपने घर के भाखा में बाति त ऊ करे जेकर कवनो घर हो, जेके घरे जाए के फुरसति हो, जेके घरे गइले पर लोग चीन्हें। चीन्हे वाला लोग चलि गइल, केहू के आँखी नाहीं लउकेला, केहू चलि ना पावेला, केहू के होसे-खयाल नाहीं रहेला। जे बा ते हमरे सामने जनमल, ऊ का चीन्हीं? अइसन लागत बा कि चिन्हारी करावे वाली मुनरी कहीं हेरा गइल। मनई के चिन्हारी जब हेरा जाले, तब घर रहलो पर नाहीं रहेला। आखिर जिनगी चिन्हववले कै नाँव ह। अपने के केहू चिन्हवा नाहीं पाई त जी के का होई? एसे आपन चिन्हारी जरूरी होला। ई जमाना चिन्हारी के संकट के जमाना ह। आदमी के एक चिन्हारी से काम ना चले, एहसे कइगो चिन्हारी अदमी रखेला। कवनो-कवनो चिन्हारी त जोर-जबर्दस्ती से लोग पहिरा देला। एमें आपन असली चिन्हरिया बिसरि जाले; कवनो पुरनकी डेहरी में धरा जाले, हेरले मिलबे न करेले फेरू ओढ़ावल चिन्हारी जिउ के बवाल हो जाले, न उतारते बनेला न पहिरते।

जे खाँटी आपन होई, ओकरा आगे नकली चिन्हारी लेके कइसे जाईं, एही संकट में किछू लिखत नाहीं बनेला। मानिक से बेसी घुघुची हेरइले का दुख एह मनई-बेसाहे वाला जमाना में के समझी? हँ, हम ई जरूर पूछब, मनई त किनले मिलि जइहें ढेबुआ में तीन, लेकिन घुँघुँची कहाँ मिली? अब सोनरो के दोकानी पर मिलीग्राम के बाट बा; रत्ती नाहीं चलेला। रत्तिया घुँघुँचिये के न होले। जंगल सब काटि लिहल, बचल-खुचल में जवन गाछि होबो करी त के चीन्ही? अब सब पेड़ नाहीं चीन्हत बा, पेड़न के जीव चिन्हऽता, ओकर जीवकोस जूड़ में रखता। भला एह गुंजाह के पूछी। हमरे लेखा गुंजा थाती के लरिकाई के, रेखिभिनाई के, बन-बन बिहरे वाला किसोर-कन्हइया के, दूसर केहू एकर मोल का जानी? दूसर मान लेईं मिलू जाय, ओके कहाँ मिली लरिकाई, कहाँ मिली पहिला फगुनहट के सिहरन, कहाँ मिली ‘मनेर मानुस’! मन के मीत के हियरा से हियरा जुड़ाइब। अपने पंचनि गुंजा के चीन्हा पूछबि से जवने के हाथ में लेते सज्जी नकली चिन्हारी उतरि जाय, ऊहे हमार गुंजा होई। अपने पंचनि ई चमक-दमक वाली चिन्हारी उतरवावे के जोखिम लेबे ना करब। एसे काहें देई? आप लोगन के दू ठो मीठि-मीटि बात एही बहाने सुने के मिलल, एतनो मिलत जाय, नकलिए सही, फूल-पाती जूनी-जूनी लोग चढ़ावेला, भितरे-भितर हँसी छुटेले। सोचीलें, लोग पाथर ढेला नाहीं फेंकऽता, ईहे कम बा? टटका फूले के तरसला के जरूरत नाहीं बा। टटका किछु रहि नाहीं पावऽता।

आप सब कहब आगे बढे़ बदे ई बलिदान करे के परेला, रथ के नीचे जाने केतना लहलहात फसिल कचरा जाले, केतना गीति केतना पुरइन के चउक, केतना नान्ह-नान्ह जीव कचरा जाले, रथवा वेग से चलावे में के देखी कि का कचराता, आगे बढ़ला के काम बा, रुकला के नाहीं। आपके बाति एक सौ एक नया पइसा सही, बाकिर हमके सोचे त देबऽ न, कवनो अउरो राह होई जवन मनई बनाई, सबके गुंजाइश राखी, ओपर रथवो दउराई त सब बँचलो रही, बचले भर नाहीं रही, ऊ सब रथ के सजवले रही, कब्बो रथ के बनावट बनि के, कब्बो रथ पर चढ़ेवाला के सोभा बनि के, कब्बो ओकरे मन के उमंग बनि के। ओकर चिन्ता अपने पंचनि नाहीं करब, खाली सिनेमा के तरह ही बनब, खाली अपने लोटवा में गुड़ फोरब, भोजपुरी के लेके आंदोलन करब, भोजपुरी के भितरे कवनो नकारे वाला बा, ओकर सुर सुनबे ना करब, खाली ‘बलम लरिकइयाँ’ के गीति गवाइब आ मने मन सोचब, ‘भोजपुरी में बड़ा रस बा।’ बाति बढ़वले में का बा, एही जा बतिया समेटऽताटीं। राधाजी के मानिक जमुना के माटी में हेराइल आ घाँटो गावे वाला गवलें, ‘मानिक मोर हेरइलें, एही जमुना के मटियाँ’। हमार घुंघुची त माटी में हेराइल नाहीं, ऊ त जवन बयारि बहऽतिया ओही में एतना चीकट धुआँ बा, गन्होर बा, एतना कउवारोर बा, ओही में कतहूँ हेरा गइल। आपन दीदा खोईं तब त हम अँखिगर लोगन के आगे आपन दुःख कहीं। कब्बो न अइसन होई कन्हइया, घुंघुचिया के माला पहिरे बिना बँसुरी बजावे के तइयार नाहीं होबऽ, खोजि हेरि के घुंघुची उनके गँटई में डारहीं के परी, ओनकर बँसुरी बाजी, हमरो चिन्हारी मिली जाई।
जमुना तट बेनु बजावत स्याम सुनाम हमारो हू टेरि फिरैंगे।
एक दिना नहिं एक दिना कबहूँ दिन वे फिरि फेरि फिरैंगे।।


भोजपुरी दिशाबोध के पत्रिका पाती के सितम्बर 2017 अंक से साभार

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