लोक कवि अब गाते नहीं

by | Jan 19, 2011 | 0 comments

(दयानंद पाण्डेय के लिखल आ प्रकाशित हिन्दी उपन्यास के भोजपुरी अनुवाद)


उपन्यास का बारे में

“लोक कवि अब गाते नहीं” सिर्फ भोजपुरी भाषा, ओकरा गायकी, आ भोजपुरी समाज के गिरावट के कहानिये भर ना ह, बलुक लोक भावना आ भारतीय समाज के संत्रास के आइनो ह. गाँव के निर्धन, अनपढ़, आ पिछड़ी जाति के एगो आदमी एक जून भोजन, एगो कुर्ता पायजामा पा जाए के ललक आ कबो ना रुके वाला संघर्ष का बावजूद अपना लोकगायकी के कइसे बचा के राखऽता, लोक गायकी के ना सिर्फ बचा के राखत बा बलुक ओकरा के शिखर तक चहुँपावत बा. ई उपन्यास एह ब्यौरा के बहुते बेकली से बाँचत बा. साथही शिखर पर चहुँपला का बावजूद लोक गायक के के गायकी कइसे अउरी निखरे का बदला बिखरत चल जात बा, बाजार के दलदल में धँसत चल जात बा, एहू सच्चाईओ के ई उपन्यास बहुते बेलौस हो के भाखऽता, ओकर गहन पड़ताल करत बा. लोक जीवन त एह उपन्यास के रीढ़ बड़ले बा. आ जइसे कि उपन्यास का अंत में नयी दिल्ली स्टेशन पर लीडर ठेकेदार बब्बन यादव के बार-बार कइल “लोक कवि जिन्दाबाद” के उद्घोष आ फेर छूटते पलटि के लोक कवि के कान में फुसफुसा के ई पूछल कि, “बाकिर पिंकिया कहाँ बिया ?” लोक कवि के भाला लेखा खोभत बा आ उनुका के तूड़ के राखि दे ता. तबहियो उनका से जवाब नइखे दिहल जात. ऊ आदमी जे शिखर पर बइठला का बादो छितराये खातिर मजबूर हो गइल, शापित हो गइल, अपने रचल गढ़ल बाजार का दलदल में धँसत चलि गइल. लोक कवि अब छटपटात बा पानी से बाहर निकलल कवनो मछरी का तरह आ पूछत बा, “बाकिर भोजपुरी कहाँ बा ?” बाकिर बतर्ज बब्बन यादव, “बाकिर पिंकिया कहाँ बिया ?” लोक गायकी पर लगातार चलत जूते त “लोक कवि अब गाते नहीं” के शोक गीत बा. आ संघर्षो गीत.”


लोक कवि अब गाते नहीं

“तोहरे बर्फी ले मीठ मोर लबाही मितवा!” गावत-बजावत लोक कवि अपना गाँव से एगो कम्युनिष्ट नेता का साथे सीधे लखनऊ चहुँपले त उनुका तनिको अन्दाजा ना रहल कि सफलता आ मशहूरी के कई-कई गो सीढ़ी उनुका इन्तजार में खड़ा बाड़ी सँ. ऊ त बस कवनो तरह दू जून के रोटी जुगाड़े का लालसा में रहलन. संघर्ष करत-करत ई दू जून के रोटी के लालसा कइसे आ कब यश का लालसा में बदलि गइल, उनुका पतो ना चलल. हँ, यश आ मशहूरी का बाद ई लालसा कब धन-वृक्ष के लालसा में बदलल एहकर तफसील जरुर उनुका लगे बा. बलुक कहीं त ई तफसीले एह दिना में उनुका के हरान करिके रखले बा.

गाँव में नौटंकी, बिदेसिया देखि-देखि नकल उतारे के लत उनुका के कब कलाकार बना गइल एहकरो तफसील उनुका पाले बा. एह कलाकार बने के संघर्ष के तफसीलो उनुका लगे तनि बेसिये शिद्दत से बा.

पहिले त ऊ बस नौटंकी देखि-देखि ओकर नकल पेश करके लोग के मनसायन करत रहलें. फेरु ऊ गाना गावे लगले. कँहरवा गाना सुनतन. धोबिया नाच, चमरउआ नाचो देखतन. एहकर बेसिये असर पड़त उनुका पर. कँहरवा धुन के सबले बेसी. ऊ एहकरो नकल करतन, नकल उतारत-उतारत ऊ लगभग पैरौडी पर आ गइले. जइसे नौटंकी में नाटक के कवनो कथा-वस्तु के गायकी का माध्यम से आगा बढ़ावल जाला, ठीक ओही तर्ज पर लोककवि गाँव के कवनो समस्या उठवतन आ ओकरा के गाना में फिट करिके गावसु. अब उनुका हाथ में बजावे खातिर एगो खँजड़ी कहीं कि ढपलिओ आ गइल रहुवे. जबकि पहिले ऊ थरिया भा गगरी बजावत रहलें. बाकिर अब खँजड़ी. फेर त उनकर गाना के सिवान गाँव के सरहद लाँघत जिला-जवार के समस्या छूवे लागल. एह फेर में ऊ कई बेरा फजीहतो का फेज से गुजरलन. कुछ सामन्ती जमींदार टाइप के लोगो जब उनुका गाना में आवे लागल, आ जाहिर बा कि एह गाना में लोक कवि एह सामंतन के अत्याचारे के गाथा गूँथल करसु, त ओह लोग के नागवार गुजरे. से लोक कवि के कुटाई पिटाइओ ऊ लोग कवनो ना कवनो बहाने जबे-तबे करवा देव. बाकिर लोक कवि के हिम्मत एह सब से टूटे ना. उलटे उनुकर हौसला बढ़त जाव. नतीजतन जिला-जवार में अब लोक कवि आ उनुका कविताई चरचा के विषय बने लागल. एही चरच का साथे ऊ अब जवानो होखे लगलन. शादीओबियाह हो गइल उनुकर. बाकिर रोजी-रोजगार के कुछ जुगाड़ ना हो पावल उनुकर. जाति से पिछड़ा जाति के भर रहले. कवनो बेसी जमीन-जायदादो ना रहुवे. पढ़ाई-लिखाई आठवींओ तकले ठीक से ना हो पावल रहुवे. त ऊ करबो करतन त का ? कविताई से चरचा आ वाहवाही त मिलत रहे, कभी-कभार पिटाई-बेईज्जतिओ हो जाइल करे बाकिर रोजगार तबहियो ना मिले. कुर्ता पायजामा तक के मुश्किल हो जाव. कई बेर फटहा पहिर के घूमे पड़े. कि तबहिये लोक कवि का भाग से छींका टूटल. विधान सभा चुनाव के एलान हो गइल. एगो जवारी कम्युनिष्ट नेता-विधायक फेरु चुनाव में उतरलन. एह चुनाव में ऊ कविओ के सेवा लिहलन. उनुका कुरतो पायजामा मिल गइल. लोक कवि जवार के समस्या जानत रहलें आ ओहिजा के धड़कनो. उनुकर गाना वइसहूं पीड़ित आ सतावल जा रहल लोग के सच्चाई का निगचा रहत रहे. से कम्युनिष्ट पार्टी के जीप में उनकर गाना अइसन लहकल कि बस पूछीं मत. ई ऊ जमाना रहुवे जब चुनाव प्रचार में जीप आ लाउडस्पीकरे सबले बड़ प्रचार माध्यम रहे. कैसेट वगैरह त तबले देश देखलही ना रहे. से लोक कवि जीप में बइठ के गाना गावत घूमसु. मंचो पर सभा में गावसु.

कुछ ओह कम्युनिष्ट नेता के आपन जमीन त कुछ लोक कवि के गीतन के प्रभाव. नेताजी फेरु चुनाव जीत गइले. ऊ चुनाव जीत के उत्तरप्रदेश का विधानसभा में चुना के लखनऊ आ गइलें तबहियो लोक कवि के ना भुलइले. साथही लोक कविओ के लखनऊ खींच ले अइलन. अब लखनऊ लोक कवि खातिर नया जमीन रहुवे. अपरिचित आ अनचिन्हार. चउतरफा संघर्ष उनुकर राह ताकत रहे. जीवन के संघर्ष, रोटी-दाल के संघर्ष, आ एह खाये-पहिरे-रहे के संघर्षो से बेसी बड़ संघर्ष रहुवे उनुका गाना के संघर्ष. अवध के सरजमीं लखनऊ जहाँ अवधी के बोलबाला रहुवे ओहिजा लोक कवि के भोजपुरी भहरा जाइल करे. तबहियो उनुकर जुनून कायम रहल. ऊ लागल रहले आ गली-गली, मुहल्ला-मुहल्ला छानत रहसु. जहँवे चार लोग मिल जाव तहँवे “रइ-रइ-रइ-रइ” गुहार कर के कवनो कँहरवा सुनावे लागसु.बावजूड एह सबके उनुकर संघर्ष आउरी गाढ़ होखत जाव.

एही गाढ़ संघर्ष का दिन में लोक कवि एकदिन आकाशवाणी चहुँप गइले. बड़ा मुश्किल से घंटन के जद्दोजहद का बाद उनुका परिसर में ढुके के मिल पावल. जाते पूछल गइल, “का काम बा ?” लोक कवि बेधड़क कहले, “हमहू रेडियो पर गाना गायब !” उनुका के समुझावल गइल कि अइसहींये जेही तेही के आकाशवाणी से गाना गावे ना दिहल जाव. त लोक कवि तपाक से पूछलें, “त फेरु कइसे गवावल जाला ?” बतावल गइल कि एकरा खातिर आवाज के टेस्ट लिहल जाला त लोक कवि पूछले, “ई टेस्ट कवन चीज होखेला ?” बतावल गइल कि एक तरह के इम्तिहान हवे, त लोक कवि तनी मेहरियइले आ भड़कलन, “ई गाना गावे के कइसन इम्तिहान ?”

“बाकिर देवे के त पड़बे करी.” आकाशवाणी के एगो कर्मचारी उनुका के समुझावत कहलसि.

“त हम परीक्षा देब गावे के. बोलीं कब देबे के बा ?” लोक कवि कहले, “हम पहिलहू मिडिल स्कूल में परीक्षा दे चुकल बानी.” ऊ बोलत गइले, “दर्जा आठ त ना पास कर पवनी बाकिर दर्जा सात त पास हइये हईं. बोलीं काम चली ?” कर्मचारी बतवलसि कि, “दर्जा सात, आठ के इम्तिहान ना, गावे के इम्तिहान होखी जवना के आडिशन कहल जाला. एकरा ला फारम भरे के पड़ेला. फारम भरीं. फेर कवनो तारीख तय कर के खबर कर दिहल जाई.” लोक कवि मान गइल रहले. फार्म भरले, इन्तजार कइले, अउर इम्तिहान दिहले. बाकिर इम्तिहान में फेल कर गइले.

लोक कवि बेर-बेर इम्तिहान देसु आ आकाशवाणी वाले उनुका के फेल कर देसु. रेडियो पर गाना गावे के उनुकर सपना टूटे लागल रहे कि तबहिये एगो मुहल्ला टाइप कार्यक्रम में लोक कवि के गाना एगो छुटभैया एनाउन्सर के भा गइल. ऊ उनका के अपना साथे ले जा के छिटपुट कार्यक्रमन में एगो आइटम लोको कवि के राखे लागल. लोक कवि पूरा मन लगा के गावसु. धीरे-धीरे लोक कवि के नाम लोग का जुबान पर चढ़े लागल. बाकिर उनकर सपना त रेडियो पर “रइ-रइ-रइ-रइ” गावे के रहल. बाकिर पता ना काहे ऊ हर बेर फेल कर जासु. कि तबहिये एगो शो मैन टाइप एनाउन्सर से लोक कवि के भेंट हो गइल. लोक कवि ओकरा क्लिक कर गइले. फेरु ऊ शो मैन एनाउन्सर लोक कवि के गाना गावे के सलीका सिखवलसि, लखनऊ के तहजीब आ लंद-फंद समुझवलसि. गरम रहे का बजाय बेवहार में नरमी के गुन समुझवलसि. ना सिर्फ अतने, बलुक कुछ सरकारी कार्यक्रमो में लोक कवि के हिस्सेदारी करवलसि. अब जइसे सफलता लोक कवि के राह देखत रहे. आ संजोग ई कि ओह कम्युनिष्ट विधायक का जुगाड़ से लोक कवि के चतुर्थ श्रेणी के सरकारी नौकरियो मिल गइल. एगो विधायके निवास में उनकर पोस्टिंगो हो गइल. जवना के लोक कवि “ड्यूटी मिलल बा” बतावसु. अब नौकरियो रहे आ गावलो-बजावल. लखनऊ के तहजीब के ऊ आ ई तहजीब उनुका के सोखत रहुवे.
जवने भइल बाकिर भूजा, चना, सतुआ खा के भा भूखे पेट सूते आ मटमइल कपड़ा धोवे के दिन लोक कवि का जिंदगी से जा चुकल रहुवे. इहाँ उहाँ जेकरा-तेकरा किहाँ दरी, बेंच पर ठिठुरत भा सिकुड़ के सूते दिनो बीत गइल रहे लोक कवि के. इनकर-उनकर दया, अपमान आ जब-तब गारी सुने के दिनो हवा हो चुकल रहे. अब त चहकत जवानी के बहकत दिन रहे आ लोक कवि रहले.

एही बीच ऊ आकाशवाणी के आडिशनो पास करिके ओहिजो आपन डफली बजा के “रइ-रइ-रइ-रइ” गुहारत दू गो गाना रिकार्ड करवा आइल रहले. उनुका जिनिगी से बेशउरी आ बेतरतीबी अब धीरे-धीरे उतार पर रहे. ऊ अब गावतो रहलन, “फगुनवा में रंग रसे-रसे बरसे !”

देखते-देखत लोक कवि का लगे कार्यक्रम के बाढ़ आ गइल. सरकारी कार्यक्रम, शादी-बियाह के कार्यक्रम, आकाशवाणी के कार्यक्रम. अब लोक कवि आपन एगो बिरहा पार्टियो बना लिहले रहले.

लोक कवि बेसी पढ़ल-लिखल ना रहले. ऊ खुदे कहसु, “सातवाँ दर्जा पास हईं, आठवीं फेल.” तबो उनुकर खासियत इहे रहे कि अपना खातिर गाये वाला गाना ऊ अपनही जोड़ गांठ के लिखसु आ अधिकतर गाना के कँहरवा धुन में गूंथसु आ गावत त उहे उनुकर खास बन जाव. ऊ कई बेर पारंपरिक धुनो वाला गाना में जोड़ गाँठ के कुछ अइसन नया चीज, कवनो बहुते टटका मसला गूँथ देसु त लोग वाह वाह कर उठे. गारी, सोहर, कजरी, लचारी सभे गावसु बाकिर अपने निराला अंदाज में. अब उनुकर नाम लखनऊ से पसरत पूर्वी उत्तर प्रदेश के सिवान लाँघत बिहार के छूवे लागल रहे. एही बीच उनुकर जोड़ गाँठ रंग ले आइल आ ओह शोमैन एनाउंसर का कृपा से उनुकर एगो ना दू-दू गो एल॰पी॰ रिकार्ड एच॰एम॰वी॰ जइसन कंपनी रिलीज कर दिहलसि. साथही अनुबंध करा लिहलसि कि अगिला दस बरीस ले ऊ कवनो दोसरा कंपनी खातिर ना गइहें. अब लोक कवि के धूम रहे. अब ले त ऊ सिर्फ रेडियो पर जब-तब गावत रहले. बाकिर अब त शादी-बियाह, मेला-हाट हर जगहे उनुकर गाना जे चाहत रहे बजवा लेत रहे. उनुकर एह रिकार्डन के चरचा कुछ छिटपुट अखबारनो में भइल. छुटभइया कलाकार लोक कवि के नकल कइल शुरु कर दिहले. लेकिन अब लोक कवि का नाम पर कहीं-कहीं टिकट शो आ “नाइट” होखे लागल रहे. गरज ई कि अब लोक कवि कला से निकसि के बाजारि के रुख करत रहले. बाजार के समुझत तउलत रहले आ बाजारो लोक कवि के तउलत रहे. एही नाप तउल में ऊ समुझ गइलन कि अब सिर्फ पारंपरिक गाना आ बिरहा का बूते बेसी से बेसी रेडियो भा इक्का दुक्का प्रोग्रामे हो सकेला, बाजार के बहार ना मिल सके. से लोक कवि पैंतरा बदललन आ डबल मीनिंग गाना के घाल-मेल शुरु कर दिहलन, “कटहर के कोवा तू खइबू त मोटका मुअड़वा के खाई” जइसन डबल मीनिंग गीत लोक कवि के बाजार में अइसन चढ़वलसि कि बड़हन-बड़हन गायक उनुका पीछे छूटे लगलन. लोक कवि के बाजार त ई गाना दे दिहली सँ बाकिर उनका “लोक कवि” के छविओ तनि झँउसाइये दिहली सँ. पर छवि के एह झँउसला के परवाह उनका तनिको ना भइल. उनुका पर त बाजार के नशा चढ़ल रहे. “सफलता” के घोड़ा पर सवार लोक कवि अब पाछा मुड़ के ताकहू ना चाहत रहले.

विधायक निवासो में उनका साथे आसानी हो गइल रहे. उनकर गायक वाली छवि का चलते उनुका के टेलीफोन ड्यूटी दे दिहल गइल. ई “ड्यूटिओ” लोक कवि के बड़ा कामे आइल. उनकर तार जुड़े लागल. “सर” कहलो लोक कवि एहिजे सिखले. अधिकारियन के फोन विधायकन के आवे, विधायकन के फोन अधिकारियन के जाव. दुनु सूरत में लोक कवि माध्यम बनसु. पी॰बी॰एक्सचेंज में टेलीफोन आपरेटरी करत-करत ऊ “संबंध” बनावे में माहिर होइये गइल रहले, केकर गोटी कहवाँ बा आ केकर समीकरण कहवाँ बनत बा इहो जाने लागल रहले. अब उनुका एगो दोसरा विधायक निवास में सरकारी आवासो अलॉट हो गइल रहे. चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियन वाला टाइप-वन के. लेकिन तबले उनुकर मेलजोल अपने एगो सहकर्मी मिसरा जी से बेसी हो गइल रहे. मिसरोजी से बेसी मिसिराइन से. एह चलते ऊ आपन आवास ओहि लोग के दे दिहले. मिसरा मिसिराइन रहे लागल, साथही लोको कवि. कबो आवसु-जासु, कबो रुक जासु. फेरु रियाज, कलाकारन से भेंट घाट में उनुका दिक्कत होखे लागल त एगो अधिकारी के चिरौरी कर के ऊ ओहिजे विधायक निवास में एगो गैराजो अलॉट करवा लिहले. अब रिहर्सल, रियाज, कलाकारन से भेंट घाट, शराब, कबाब गैराजे में होखे लागल. एक तरह से ऊ उनुकर अस्थायी निवास बनि गइल. एही बीच ऊ आपन परिवारो लखनऊ ले अइले. अतना पइसा हो गइल रहे कि जमीन खरीद के एगो छोटहन घर बनवा लेस. से एगो घर बनवा के परिवार के ओहिजे राखि दिहले. बाकिर सरकारी क्वार्टर में मिसरा-मिसिराइने रह गइले. मिसिराइन के परिवारो के ऊ आपने परिवार मानत रहले.

फेरु अगिला कड़ी में


लेखक परिचय

अपना कहानी आ उपन्यासन का मार्फत लगातार चरचा में रहे वाला दयानंद पांडेय के जन्म ३० जनवरी १९५८ के गोरखपुर जिला के बेदौली गाँव में भइल रहे. हिन्दी में एम॰ए॰ कइला से पहिलही ऊ पत्रकारिता में आ गइले. ३३ साल हो गइल बा उनका पत्रकारिता करत, उनकर उपन्यास आ कहानियन के करीब पंद्रह गो किताब प्रकाशित हो चुकल बा. एह उपन्यास “लोक कवि अब गाते नहीं” खातिर उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान उनका के प्रेमचंद सम्मान से सम्मानित कइले बा आ “एक जीनियस की विवादास्पद मौत” खातिर यशपाल सम्मान से.

वे जो हारे हुये, हारमोनियम के हजार टुकड़े, लोक कवि अब गाते नहीं, अपने-अपने युद्ध, दरकते दरवाजे, जाने-अनजाने पुल (उपन्यास), बर्फ में फंसी मछली, सुमि का स्पेस, एक जीनियस की विवादास्पद मौत, सुंदर लड़कियों वाला शहर, बड़की दी का यक्ष प्रश्न, संवाद (कहानी संग्रह), सूरज का शिकारी (बच्चों की कहानियां), प्रेमचंद व्यक्तित्व और रचना दृष्टि (संपादित), आ सुनील गावस्कर के मशहूर किताब “माई आइडल्स” के हिन्दी अनुवाद “मेरे प्रिय खिलाड़ी” नाम से प्रकाशित. बांसगांव की मुनमुन (उपन्यास) आ हमन इश्क मस्ताना बहुतेरे (संस्मरण) जल्दिये प्रकाशित होखे वाला बा. बाकिर अबही ले भोजपुरी में कवनो किताब प्रकाशित नइखे. बाकिर उनका लेखन में भोजपुरी जनमानस हमेशा मौजूद रहल बा जवना के बानगी बा ई उपन्यास “लोक कवि अब गाते नहीं”.

दयानंद पांडेय जी के संपर्क सूत्र
5/7, डाली बाग, आफिसर्स कॉलोनी, लखनऊ.
मोबाइल नं॰ 09335233424, 09415130127
e-mail : dayanand.pandey@yahoo.com

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