वरमाला

by | Apr 4, 2015 | 0 comments

paati75

– कामता प्रसाद ओझा ‘दिव्य’

अन्हरिया….. घोर अन्हरिया…. भादो के अन्हरिया राति. छपनो कोटि बरखा जइसे सरग में छेद हो गइल होखे. कबहीं कबहीं कड़कड़ा के चमकि जाता त बुझाता जे अबकी पहाड़ के छाती जरूरे दरकि जाई. मातल पिअक्कड़ अस झूमि झूमि अन्हड़, गाछ-बिरिछि पर आपन मूँड़ी पटकत बा. जीये के आखिरी लालसा ले ले गाछ-बिरिछि लोग ममोराइ-दबोराइ के धरती तक ले चलि आवत लोग आ फेरू से सोझ होखे के कोसिश करता. जिनगी के मोह केकरा नइखे? जब ले साँस तब ले आस. जब-जब अन्हड़ तेज हो जाता, कुटिया बुझातिआ जे उखड़ि के फेंका जाई. छप्परि पर के खर-पात खड़-खड़ाए लागऽ ताड़े स. कबहीं बेआकुल जंगली जीव उजबुजा के चिकरि देत बाड़ें स. किसिम किसिम के, एके में मिलल-जुलल भेयावन आवाज काँपि के अन्हड़ के पागल हँसी में अमा जात बाड़ी स. चारों ओरि भय भरि गइल बा.

अचके में खूब जोर से गरजता जइसे असमान के जाल फाटि गइल होखे आ जाल में अतना दिन से अँटकल सब करह-नछत्तर धरती पर गिरि के टुकी टुकी होके छितरा गइल होखें स आ एने ओने मछरी अस छटपटात होखें स. कुटिया के कोना में पोसल हरिना के बच्चा…. ‘सुकांति’ डर से चिहुँकि जाता आ सुकन्या के देंहि में एकदम सुटुकि जाता. अतना गुल-गुल अतना मोलायम सुकन्या के देंहिं सिहरि सिहरि गइलि आ उनकर नींद एकदम टूटि गइलि….. बरबस ऊ सुकान्ति के गरदन सुहुरावे लागतारी. ओह! एहमें कतना सुख…. एह छन के- सुख के बराबरी काठ-पथल के दसगो जिनगी भी ना करि सके. सुकन्या के मन उचटि गइल. ऊ उठि के कुटिया के दुआरी पर चलि आवतारी. अन्हड़ कम चलत बा बाकी बरखा पहिलहू से जोर हो गइल बा. रहि रहि चमकता-गरजता. अन्हरिया के चदरि पर कहीं कहीं भगजोगनी के फूल खिलि जाताड़ें स.

सुकान्ति के छुअला के सुख सुकन्या के भीतर से जात नइखे- जइसे ई सुख उनका हिरदेया में मरहम अइसन पेहम हो गइल होखे. लेकिन इहाँ त सभ ओरि कठोरता बा, पथल के कठोरता -सुकन्या सोचली. हँ, कठोरता बा…. सब चीज में कठोरता, जिनिगी के डेग-डेग पर सासन… सुकन्या ठठा के हँसऽ तारी. उनुका हँसी से छन भरि खातिर बुझाता जइसे ओह जंगल के पत्ता-पत्ता ठठा के हंस दिहल. महरसि च्यवन के आसरम के सभ कुटिया ओह हँसि से काँपि के रहि जातारी स.

कठोरता…. बारह बरस के कठोरता…. सुकन्या फेरू सोचतारी. उनकर भहूँ चढ़ि जातारी स- आँधि करोध से लाल-लाल. थोरे देरि खातिर उनका बुझाता कि उनकर उमिरि घटि के बारह बरिस पीछे चलि गइलि होखे. फेरू उनका अपना जिनगी के ऊ दिन किताब के पन्ना अइसन उघरि के सोझा चलि आवता, जवना दिन उनका जिनिगी में कठोरता के ई जहर सनाइल रहे.

सोरह बरिस के राजकुमारी सुकन्या ओह दिन कतना अठान डलले रही, अपना पिता राजा सर्याति से, सँगे अहेरि करे जाये खातिर. राजा सर्याति के ऊ एकलौता लइकी रही. एह से राजा के मन आखिर पसीजि गइल. लइकी अबहीं अनबूझ ठहरलि… सोचि के ऊ चले के हुकुम दिहलें. रथ सजाइल, सखी-दासी के लहबरि संगे चललि. राजा सर्याति हाथी पर असवार भइलन आ पाछा-पाछा उनकर लसकरि चललि. जंगल त रहबे कइल ओह दिन ओह जंगल में जइसे रितुराज के सदेह अवतार हो गइल. अहेरि के हाहाकार, हँसी-ठट्टा, गीत आ ढोल-ढमका से बन के कोना-कोना गूँजि गइल. जंगल के गाँछि-बिरिछ् फल-फूल आ पसु-परिन्दा सभ में जइसे बसन्त खातिर एगो मोह आ भीतरे-भीतर एह हलचलि से एक किसिम के संका व्यापि गइल रहे. खाली तपस्वी च्यवन रिसी पर एह हल्ला-गुल्ला के कवनो परभाव ना परल. ऊ पहिलहीं अस अपना धेयान में मगन रहसु. तपस्वी च्यवन… जीयत हड़खारि… हाथ गोड़ बूझा जइसे अलगा से जोड़ि दिहल गइल होखे. …..सुकन्या सोचतारी आ च्यवन रिसी के ऊ रूप इयादि आवते उनकर रोआँ-रोआँ खड़ा हो जात बा.

सुकन्या ओह दिन सेकराहे सिंगार-पटार क के फूल तूरे निकललि रही, अकेले. जंगल के गाँछ-बिरिछ में जइसे खाली फूले-फल हो गइल रहे…. लाल-पीयर, गुलाबी…. डाढ़ि-पत्ता के नाम-निसान तक ले ना रहे. ऊ कवनो गीत गुनगुनाए लगली….. कवन गीत रहे सायद बहुत मन परलो पर उनका ऊ गीत इयादि नइखे पड़त. तबहीं बगल के झूर में से एगो खरहा कूदि के भागल रहे ऊ डेरा के दू-तीन डेग पीछे हटि गइल रही. उनकर पवजेब झुनझुना गइल आ उनकर आँचर फूल के डेहुँगी से अझुरा गइल रहे. ओ घरी छन भरि खातिर उनकर जीव धक दे हो गइल रहे जब ऊ च्यवन रिसी के आवाज पहिले पहिल सुनले रही…. ‘सुकुमारी ! तू के हऊ…. सुकन्या के बुझाइल रहे जइसे आवाज कवनो झुराइल कंठ से निकलल होखे. एकदम सूखल आवाज. आँचर छोड़ के ऊ घूमि के देखली. जीअत हड़खारि…. सिरजना पर खाली दूगो चमकत आँखि…. चमकत ना जरत आँखि. सुकन्या के छन भरि काठ मारि देलसि- पूछले रही- ‘राँवा के हईं’ तपस्वी महाराज?

तपस्वी के ठठरी थोरे कांपल आ एगो आवाज जइसे अपने आप निकलि आइलि- ‘हम तपस्वी च्यवन हईं.’
फेरु च्यवन रिसी के चेहरा के कठोरता कुछ कम हो गइल रहे जइसे पथल पर माखन पोति दिहल होखे- सुकन्या देखली आ जबाब देले रही- ‘हम राजा सर्याति के लइकी सुकन्या हईं.’

सुकन्या के रूप बसंत के रंग आ चारों ओरि किसिम किसिम के फूलन के गंध. च्यवन रिसी के मन के कठोरता पघिल गइलि. बुद्धि पर हिरदेया चाँप चढ़वलसि आ उनका सुकन्या खातिर मोह हो गइल- पूछले रहन ‘सुन्दरी!…. तहार रूप, तहार जवानी हमरा सूखल मन में आज रस के नदी बहा देले बा. ऊ मन, जवना के ज्ञान आ योग से हम छोड़ देले बानी, आजु तहरा रूप पर डोलि गइल. आजु हमरा बुझाइल जे हमार पिआस अबहीं खतम नइखे भइल. हमार पिआस मेंटही के चाहीं. सुन्दरी सुकन्या तूँ हमार पिआस मिटावऽ. तू रिसी च्यवन के आपन पति बनावऽ.’

ई सुनि के सुकन्या लजा गइल रही, लेकिन नतीजा सोचि के उनका देहिं में आगि लागि गइल रहे – सुकन्या च्यवन रिसी के ओह दिन के बात इयादि कइके तनी गंभीर हो जातारी. मन होता कि अब एह बारे में ना सोचती. ऊ कुटिया के दुआरी पर से उठि के अपना आसन पर चलि आवतारी बाकि नींद नइखे आवत. फूही अबहिओं परता. अन्हड़-तूफान खतम हो गइल बा. कुटिया में उनका गरमी मालूम होता. थोरे देरी ले ऊ करवट बदलतारी आ आखिर में फेनु से कुटिया के दुआरि पर आके बइठि जातारी. बिचार के टूटल डोरा फेरू से जुटि जाता.

‘माफ करीं, रिसिराज! सरम के बात बा कि अतहत बड़हन ज्ञानी होके बिना हमरा भविष्य के विचार कइले रावाँ अइसन बात कहतानीं. तनी अपना देंहि के बारे में सोचीं. मन कतनों सपना देखेवाला होखे बाकी देंह में सकती ना होखे त ऊ आदमी बेपांखि के पंछी अइसन होला जवन की असमान में उड़ला के मजा खाली अपना मन में सोचि-सोचि के लेत रहेला, उड़ि के ना. च्यवन अइसन लोक-वेद जाने वाला रिसी एतना बरिस के कठोर-तपस्या कइलो पर अपना पिआस के ना जीति सकल?’

हँसारत के बात बा…. आ सुकन्या ठठा के हँसले रही. सुकन्या के मन करता कि ऊ फेरू एक हाली ठठा के हँससु बाकी मन के ना जाने कवना कोना में कुछ अइसन बा कि खाली एगो लमहर साँस निकल के रहि जाता.

सुकन्या कुटिया के दुआरि पर से दूर तकले तेज नजरि से देखतारी जइसे अन्हरिया के पर्दा के चीरि के ऊ सभ किछु देखि लेवे के चाहत होखसु जवन अन्हरिया के ओह पार रहेला. दुआरि के सोझा वाला देवदार के मोटकी गाँछि पर दूगो भगजोगनी बड़ा तेज बरऽतारी स जइसे च्यवन रिसी के आँखि. सुकन्या के मन परता- च्यवन रिसी के आँखि! अपना सँउसे तेज के अपना आँखिन्ह में उतारि के क्रोध से काँपत रिसी कहले रहन…. ‘सर्याति-पुत्री! जवानी के घमंड में च्यवन रिसी के अतहत बड़हन अपमान. हम छन भरि में आकास-पाताल एक करि सकीलें. तूँ अपना करम के रेख मिटकारे के कोसिस मत करऽ. तहरा हमार पत्नी बनहीं के परी.

सुकन्या के ओकाई आ गइल रहे, ऊ जोर से थुकले रही- आक्….क्…. क्…. थू. आ अपना रावटी में लवटि आइल रही.

एकरा बाद सुकन्या के अपना बाप, राजा सर्याति के चेहरा इयादि परऽता. अहेरि पर आइल सभ दास-दासी, अमला-फैला आ सिपाही-सागिर्द लोग के रोग गरसि ले ले रहे. राति-दिन के बाप-माई आ जिअनी-मुअनी के रोअला-कलपला से राजा सर्याति एकदम निरास आ दुखी हो चुकल रहन. सुकन्या के ऊ छन् इयादि परता त उनका आँखि में से ना मालूम कब से बटोराइल लोर ढरकि जाता, जब उनकर बाप एकदम दीन-हीन होके सुकन्या से रिसी के संगे बिआह कइ के परजा के दुख दूरि करे के कहले रहन. सुकन्या पिता के बात चुप-चाप मानि ले ले रही आ परजा के भलाई खातिर च्यवन रिसी के पत्नी बनि गइल रही. दस के भलाई खातिर- परजा के सुख-सान्ति खातिर अपना देंहि के बलिदान जवानी के हवन…. अपना एह विचार से सुकन्या के हिरदया में बहुत सुख मिलऽता. ऊ सुकांति के गरदन पर दुलार से हाथ फेरे लागतारी. फेरू ना मालूम नींद कब उनका के अपना अँकवारी में भरि लेत बिया.

च्यवन रिसी खूब भिनसहरे पूजा पाठ करसु. सुकन्या के पूजा के सब सरजाम रातिए में ठीक क के राखे के परे. रिसी पूजा वाली कुटिया में सुतसु आ सुकन्या बगलवाली कुटिया में जवना में घर गिरहस्थी के दोसर जरूरी सरजामी धइल रहत रहे. ओह दिन सुकन्या बहुत राति गिरला ले जागल रही एह से उनकर नींद ठीक बेरा पर ना टूटलि. रिसी जब नहा-धोके अइलें आ पूजा वाला घर में ढुकलें त देखताड़े कि हवन-कुंड आ बेदी लिपाइल तक ले नइखे. ऊ करोध से काँप आ चिचिआइ के बोललें- ‘सुकन्या!’ लेकिन सुकन्या त ओंघाइल बाड़ी. रिसी के पुकार सुनसान जंगल में गूंजि के रहि जात बिया. हाथ में कमंडल लेले आ खीसी भूत भइल च्यवन रिसी लमहर डेग डालत सुकन्या के कुटिया का ओरि चलि आवताड़ें. खंड़ाऊं के चटर चटर आवाज सँउसे जंगल में भय भरि देता. ऊ सुकन्या के कुटिया के दरवाजा जोर से भीतर ढकेलि दे ताड़ें आ अन्दर घुसि के खूब जोर से पुकार ताड़ें… ‘सुकन्या!‘ दरवाजा के दायाँ कोना में सुकन्या निरभेद सूतल बाड़ी. उनकर एगो हाथ सुकांति के गरदन पर बा. रिसी के जइसे काठ मारि जाता. सुकन्या के अइसन रूप, अइसन कोमलता ऊ आजु तकले ना देखलें. जइसे कवनों अनबूझ बालक निरभेद सूतल होखे. भरल देहि, मुदाइल पलक, ओठ मुसुकात बा लिलार पर केस के दू-चारि गो घुघुरिआइल लट. रिसी क मन सिहरि जाता. ऊ निहुरि के अपना एगो अंगुरी से सुकन्या के लिलार पर के लट सोझ करताड़ें आ एकदम मद्धिम आवाज में नेह-भरल बोली में कहताड़ें- ‘सुकन्या?’ बाकी ओही घरी उनका आपन बुढ़ाइल- देंहि आ सुकन्या के जवानी मन परि जात बा. आजु से बारह बरिस पहिले सुकन्या कहले रहे – ‘सपना मन देखेला, देंहि ना देखे.’ रिसी उदास मन से अपना कुटिया में लवटि आवत बाड़ें. थाकल, गते-गते आ चुपचाप.

ओह दिन पूजा में उनकर मन नइखे जमत आ एह घटना के बाद च्यवन रिसी हमेसा कुछ-न-कुछ उदास रहे लागताड़ें. अब ऊ सुकन्या के कवनों गलती पर डाँटत-फटकारत नइखन. विद्या-बुद्धि ओसहीं रहता, लेकिन अब ऊ अपना के बड़ा हीन समुझे लागऽताड़ें. सुकन्या के देखि के उनका मन में अनेरे एगो भय समा जाता जइसे चोरी कइले होखसु. सुकन्या के पति के सेवा में कवनो कमी नइखे आवे पावत सेवा, बे लोभ-लालच के – बेइच्छा अनिच्छा के.

कई महीना बीत जाता आ बे बोलवले तेरहवां बसंत आ धमकता. सुकन्या के मन में बसंत से अब कवनों प्रीति नइखे. सभ रितु अब उनका खातिर समान हो गइल बा. जइसे मसीन में तेल-पानी डालि दिया आ ऊ आपन काम करत रहे बिना कवनों फिकिर चिंता के. बाकी जब जब ऊ ताल में पानी ले आवे जासु आ कोइलरि के कूक सुना त उनकर करेज जइसे बाहर निकलि आवे. ऊ थोरे देरि किनारा बइठि के ईहे सोचत रहसु कि कोइलरि के बोली एक हाली अवरू सुनि लीं त पानी लेके जाईं. आजु फेरू सुकन्या ताल पर गइल बाड़ी. काफी देरी हो गइल आ सुकन्या ना लवटली. च्यवन जी के चिंता बढ़ति जाति बिया. ऊ आपन कमंडल उठावताड़ें आ ताल की ओरि चलि देत बाड़ें. ताल से कुछ दूरी पर रिसी का एगो मरदानी आवाज सुनाता –

”हमार नाँव अस्विनी कुमार रेवन्त ह. सुकन्या तहार सुन्नर रूप का त्याग के आगि में तपल जवानी देखि के हम इहाँ आइल बानीं. हमरो मन में ओइसने पिआस बा जइसन पिआस से तूँ पिछला बारह बरिस से तड़फत बाड़ू.“ रेवन्त दू-चारि डेग सुकन्या के ओरि बढ़ि आवताड़ें. च्यवन रिसी झटके से झाड़ी के अलोता लुका जाताड़ें.
”रउरी बात में सच्चाई जरूर बा लेकिन, हम च्यवन-पत्नी सुकन्या हईं. पति से धोखा… माफ करीं.“ सुकन्या कहतारी.
”हँ, जानतानी तू च्यवन जी के मेहरारू हऊ, लेकिन च्यवन…. जीअत हड़खारि… ऊ मेहरारू आ जवान मेहरारू राखे के अधिकारी नइखन लोक बेद से भी नइखन.“
रेवन्त के बात सुनि के सुकन्या के मन मिरगी अस नाचि जाता. ऊ अपना पीर के समेटि के कहतारी- ”अगर हमार पति च्यवन आजु जवान रहितें त तहार अइसन कहे के हिम्मति ना परित. तूँ उनका के बूढ़ आ अब्बर जानि के हमरा से ई बात कहताड़ऽ.“ सुकन्या के आँखि में लोर उतरा जाता.
रेवन्त कुछ मद्धिम परि जाताड़ें, फेरू नरम आवाज में बोलताड़ें- ”सुकन्या जी रोई मति! एह बात के हम रावां से छिपाइबि ना कि हमरा रावाँ से प्रेम हो गइल बा. हम रावाँ के आपन बनावे के चाहत बानी आ रावाँ खातिर हम सब कुछ दाँव पर लगावे के तइआर बानीं.“
रेवन्त आगे कहताड़ें- ”रावाँ तकलीफ मति मानी त हम एगो बात कहीं. हम च्यवन रिसी के जवान बनावे के दवाई जानत बानीं, आ हम उनका के फेरू से जवान बना देबि, लेकिन एगो करार करीं.“
सुकन्या के चेहरा अहगरि के चमकि जाता. ऊ जल्दी से कहतारी- ”बताईं हमरा पति के जवानी कइसे लउटी. हम राउर बड़ा उपकार मानबि.“
रेवन्त के चेहरा पर कुछ कठोरता आ जाता, कहताड़ें- ”हमार सर्त ईहे बा कि जब च्यवन रिसी जवान हो जइहें त रावाँ च्यवन चाहे, रेवन्त दूनों आदिमी में से केहू एक के बने के परी. बोलीं रावाँ मंजूर बा?“

सुकन्या हुँकारी में गरदन हिला देतारी. झाड़ी के अलोता च्यवन रिसी के बुढ़ाइल आँखि में दू ठोप लोर घुरचिआइल गाल आ लमहर लमहर सनई अस दाढ़ी के बार पर से टेघरि के करील के पात पर टप-टप गिरि परता. सुकन्या रेवन्त के संगे ले के आसरम में लवटि आवतारी. थोरहीं पीछे च्यवन रिसी भी चहुँपऽताड़ें. सुकन्या रेवन्त के रिसि से जान-पहिचान करावतारी. रेवन्त, रिसी के ओह बन में के एगो पोखरा में नहाए के राय देताड़ें जवना में नहइला से बुढ़ापा जवानी में बदलि जात रहे.

बेरा ढरि गइल बा. रेवन्त रिसी के लेके ओह पोखरा पर जाताड़ें. कुटिया के आँगन में कुस आसन पर बइठलि सुकन्या सोचतारी- आखिर दुख के अन्त भइल. अच्छा मोका बा रिसी के, एह आसरम के कठोरता से छुट्टी ले लेबे के चाहीं. इहवाँ जिनिगी के कुछ मोल नइखे. मोल बा ज्ञान के, तपस्या के, आतमा के सुखवला आ सरीर के साँसति देखा के! रेवन्त कतना नेही बा, कतना दिलदार आ होसिला वाला. लेकिन…. लेकिन…. रिसी…. बारह बरिस… साँझि-सेबेरे…. जेकरा हवन-कुंड के राख फेंकत फूल तूरत समाधि साफ करत हो गइल… ना…. ना…. रिसी के पथल के करेजा में भी एगो मूरति बिआ…. जरूर बिआ…. अनगढ़ मूरति-सरूपहीन. सुकन्या निरनय नइखीं करि सकत.

रेवन्त आ नवजवान च्यवन पोखरा से लवटि के आसरम के आँगन में खड़ा बा लोग. दूनों एक दोसर से बढ़ि के सुन्नर गठल देंहि आ चमकत रंग! जवानी कूटि-कूटि के भरल बा.

रेवन्त कहताड़ें- ‘सुकन्या! अब हमनी में से केहू एक आदमी के गरदन में बरमाला डालि द.’
जवान तपस्वी च्यवन के कठोरता खतम हो गइल बा आ उनका सुकन्या के आतमा में टीसत बारह बरिस के पुरान घाव के अन्दाज लागि चुकल बा.
‘सुकन्या! बदला लेवे के मोका आ पहुँचल बा. चुकिहऽ जनि’ – रिसी दरद में डूबल आवाज में कहऽताड़ें.

सुकन्या एक बेरि रेवन्त का ओरि आ फेरू छन भरि रिसी का ओरि देखतारी आ बे सोचले समझले वरमाला च्यवन रिसी के पहिरा के उनका छाती पर आपन गरदन ध देतारी. चक्का डूबि रहल बा. सँउसे जंगल लाल हो गइल बा. आ चिरई चहकि रहल बाड़ी स. आसरम से पच्छिम, जेने आकस देवदार के पुलुई पर उतरि आवेला, रेवन्त धीरे-धीरे चलल जात बाड़ें आ उनका संगे संगे चललि जात बिआ उनकर परछाहीं.


(पाती पत्रिका के अंक 75 ‘प्रेम-कथा-विशेषांक’ से साभार)

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