वसंत कहीं नइखे भुलाइल

by | Mar 19, 2011 | 1 comment

– पाण्डेय हरिराम


जाड़ा आहिस्ता से मौसम के गाल चूमलसि त मौसम का रग में गर्मी दउड़ि गइल…. लोग कहल वसंत आ गइल. फगुआ आ गइल. आ आजु साँचहू के फगुआ ह.
बाकिर कहवाँ… काल्हु सँझिया एगो पड़ोसिन बतवली कि सड़कन पर रौनक नइखे. उनकर भूअर आँखिन में बईठल विषाद साफे झलकत रहुवे. …वसंत आइल, त गइल कहवाँ ?
अधरतिया में एगो पड़ोसी का पिंजरा में कैद कोयल देर ले चिचियात रहल शायद वसंत के आवाज लगावत रहुवे.
साँचहू ऊ त भुला गइल बा, सीमेंट अउर कंकरीट का जंगल में. अब प्रकृति के रंगो बदले लागल बा. लोग त अउरी तेजी से बदलल लागल बा.
हेमंत के पियराइल पात एक एक कर के झरत चलल बा, जीर्ण वसन विहाय प्रकृति नया परिधान धारण करत बिया, ऊ ललछर नान्ह मुन्ह किसलय अउर ऊ चिकल रेशमी कोंपल जइसे हमार आपन पोता पोती.

आ अब छोट छोट पियर फूलन के बहार बा. हवा के एगो शैतान झोंका ओकनी के छेड़ जात बा, सरसों के पातर कमर हजार हजार बल खा गइल, लाजवंती तन्वंगी छुईमुई हो चलल, वसंती छवि सबका आंखि के अंजन बन गइल. सोझा एगो सोनहुला द्वीप जगमगात बा, सोना का ताल में लहरिया टेढ़ थिरकत बिया. सगरी के सगरी पलाश वन दहक उठल बा. एगो मशाल जुलूस जइसन ई पलाश वन. झारखंड में बीतावल बचपन में जवन मील – मील लमहर पलाश वन देखले रहनी से आंखिन का सोझा थिरक उठल.
फूलन के मौसम, मतलब कि रातदिन अगरु, धूप, गंध चर्चित प्रार्थना के मौसम. शायद अइसने मौसम में विदुर के घर कृष्ण आइल होखीहें. ई दृष्टि कहवाँ से आवे ? ई दृष्टि… ई संवेदनशीलता जवना से कि हमनी के हर छन पर्व बन जाव आ सगरी जीवन एगो उत्सव, एगो समारोह हो जाव. प्रतिकूल आ कठिन हालातो में जीवन के एह उत्सव धर्मिता के निस्तेज ना होखे दिहले शायद असली पुरुषार्थ ह. जब हमनी का हंसीले त ऊ हंसी वास्तव में परमात्मा के मिलल प्रसन्नता के हमनी का ओर से एगो सादर स्वीकृति होले. विख्यात जैन मुनि प्रसन्न सागर एक दिन बाते बात में कहले रहीं कि “हम केवल कृतज्ञ होना सीख सकें तो हमें किसी प्रार्थना या उपासना की आवश्यकता नहीं होगी. कृतज्ञता स्वयं में सर्वोत्तम प्रार्थना और उपासना है.” बाकिर आजु मानव समुदाय त्रस्त बा. खुद ओकरा भीतर अभाव ,लोकैषणा अउरी एक अदद चुपड़ी वासना के अनवरत होलिका दहन हो रहल बा आ ओहमें इंसान के ईमानदारी, निष्ठा, आस्था, श्रद्धा, स्वाभिमान के प्रह्लाद रोजबरोज भस्म होत जा रहल बा. नृसिंह के प्रकट होखे में त अबहीं देरी बा, के बा जे एह होलिका दहन से आदमी का भीतर के प्रह्लाद के बचा लीहि ? त्राण बाहर खोजल अपने में अगो नादानी होला. त्राण त अपन भीतर बा ओकरे के टेरे के पड़ी. एह टेरला आ हेरला में अपने में एक टेर हो जाए के पड़ी, हेरते-हरत हेरा जाये के पड़ी.
दरअसल ई वसंत त कंदर्प के सखा ह, ई होली के पर्व अपने में मदनोत्सव ह. महाशिव की समाधि भंग करे जब काम गइले रहुवे त ओकर सखा वसंत ओकरा साथही रहे. बाकिर शिव के तीसरा नेत्र से बचा ना पावल. भगवान शंकर के कोपो विधाता के एह नटखट बेटा खातिर वरदान हो गइल. ऊ अनंग अशरीरी होके अउरी व्यापक हो गइल. अइसनके में कामस्तवन के गुनगुनाहट सुनाई पड़त बा ….
कुसुम लिपि में लिखे आमुख
मूल जिससे निसृत हर सुख
अपरिचित तुमसे सभी दुख
अनवरत गतिशील सक्रिय
कब हुए श्लथ
अहे मन्मथ
विधाता के ई निहायत नटखट साबित भइल. सबसे पहिले ई विधाते के अपना पंच साधक के निशाना बनवलसि फेर का रहे ब्रह्मा अपने जामल सरस्वती पर आसक्त हो गइले. धर्म के देवता यम आ सहोदरा यमी परस्पर कामगत आकर्षण से दग्ध कर दिहलसि ई मीन केतु. अतने ना क्यूपिड का रूप में ई यूनानी पुराण में कवन अनर्थ ना करा दिहलसि.
कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी कहले कि “अधोगत काम विधाता और यम जैसे अनर्थ कराता है, बलात्कार और हत्याएं करवाता है और कामोन्नयन संस्कृति को राधा-कृष्ण उमा-महेश, कालिदास , टैगोर और गेटे आदि देता है. होली के रंग में सराबोर लथपथ अबीर गुलाल के बादलों में विजेता के डैनों पर उड़ते हुए मन को जब यह हल्की हल्की आंच देता है तो पोर पोर अनिर्वचनीय आनंद का आतिथेय होता है.”
… आ तब कहल जाला कि वसंत हेरा गइल बा. वसंत पूरा मादकता का साथ लहकत रहेला. ई सगरी बाति बतावत बा कि वसंत बा, एहिजे कहीं बा, हमरा भीतर बा, हम सबनी का भीतर बा. बस तनी दुबक गइल बा आ हमनी के हमारी आंखिन से अलोप हो गइल बा. अगर हमनी का अपना भीतर एह वसंत के खोजीं त ओकरा के देखते कह उठब जा- हँ, इहे ह वसन्त जवना के हम आ आप ना जाने कब से खोजत रहीं हा. वसंत कहीं नइखे भुलाइल. अबहियो उहे रौनक बा मैडम पड़ोसिन! … अधरतिया के कोयल के कूक? ऊ त वसंत में कैद रहला के पीड़ा ह.

मूल हिंदी से अनुवादित

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1 Comment

  1. Anonymous

    होली की बहुत-बहुत शुभकामनाएँ!

    jai baba banaras…

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