– शशि प्रेमदेव
ना सनेहि के छाँव, न ममता के आँचर बा गाँव में!
का जाई उहवाँ केहू अब, का बाँचल बा गाँव में?
छितिर बितिर पुरुखन के थाती, बाग-बगइचा, खपड़इला!
खरिहानी में जगहे-जगहा जीव जनावर के मइला!
ना कजरी के गूँज, ना फगुआ के हलचल बा गाँव में!
आँगन अँगना कूस बोआइल, नागफनी दुअरा-दुअरा!
सून भइल कुइयाँ, उदास पनघट – जइसे लड़िका टुअरा!
बरछी जस धरती में गाड़ल, चाँपाकल बा गाँव में!
नेह-छोह के नाता टूटल, पितिया पट्टीदार भइल!
बेशर्मी के रहन देखि के, मरजादा लाचार भइल!
गोड़ धरब हम कहवाँ, जब सगरो दलदल बा गाँव में!
के हमरा के धरी धधा के, झर-झर लोर बहाई के?
बाँहि पसरले ‘बबुआ’. ‘बचवा’ कहि के धवरल आई के?
हमरा खातिर आँखि बिछवले, के बइठल बा गाँव में?
बहुत बढ़िया रचना…….
बहुत बढ़िया गीत आ बहुत बढ़िया गाँव के चित्रण. बधाई.
– डॉ. रामरक्षा मिश्र विमल
बड़ी निमन लागल खास तौर से अंतिम पंक्तियाँ .
असही लिखत रहीं.
कमल किशोर सिंह , न्यु यॉर्क.