– ओ.पी. अमृतांशु
तोर नैना, मोर नैना, मिलके भईले चार.
चलऽ खेलल जाई, ओका-बोका नदिया किनार.
नदिया के तीरे-तीरे, बहकि बेयरिया.
संघे-संघे उड़ी गोरी, तोहरो चुनरिया.
हियना के डाढ़े-पाते, झुमिहें बहार,
चलऽ खेलल जाई, ओका-बोका नदिया किनार.
लाली-लाली होठवा से, रस बरिसइह.
हहरल हियरा के मोरा जुडवइह.
नेहिया के सोत फूटी, बही जाई धार.
चलऽ खेलल जाई, ओका-बोका नदिया किनार.
दिलवा के डोर से, पतंग उड़ी आई.
हौले-हौले छुई के आकाशवा के आई.
छुई-मुई होई तोरी, सोरहो सिंगार.
चलऽ खेलल जाई, ओका-बोका नदिया किनार.
पान-फूल ढोंढीया, जब रे पचकि जाई.
चुटा-चुटी होई, फेरु कानवा ममोरल जाई.
लाता-लुती करल जाई, नाहिं मानल जाई हार.
चलऽ खेलल जाई, ओका-बोका नदिया किनार.
”ओका -बोका” अच्छा लगा
Keep it up…
भोजपुरी पारंपरिक खेल को नया रूप में लिखाकर इसे रोमांटिक बना दिया आपने .अच्छा लगा .”ओका -बोका” का नया साहित्य से लबालब रोमांटिक गीत !अमृतांशु जी धन्यवाद !
चित्सा
Very nice song o.p. sir..
I like the free flying style very much
Are waah o.p. ji kya baat hai.Bachpan yaad aagaya
bahut sundar geet likha hai aapne.
बचपन के उ दिन याद आ गाइल,
जब हमनी के ओका -बोका खूब खेलत रहनी जा!
पारंपरिक खेल के नया रोमांटिक आ कलात्मक रूप अच्छा लागल !
धन्यवाद !
रंजीत कैरोस