– डा॰अशोक द्विवेदी
कम में गुजर-बसर रखिहऽ!
घर के अपना, घर रखिहऽ!
मुश्किल-दिन जब भी आवे
दिल पर तूँ पाथर रखिहऽ.
जब नफरत उफने सोझा
तूँ ढाई आखर रखिहऽ.
आपन बनि के जे आवे
सब पर खास नजर रखिहऽ.
दर्द न छलके ओठन पर
हियरा के भीतर रखिहऽ.
एह करिखाइल नगरी में
दामन तूँ ऊजर रखिहऽ.
अँजोरिया पर डा॰ अशोक द्विवेदी के दोसर रचना
“घर के अपना, घर रखिहऽ!”-एगो अनुभवी आ सधल बात.जीवन के असली मर्म आ गइल बा एमें.एसे सबसे दमदार शेर लागल.
– रामरक्षा मिश्र विमल
जब नफरत उफने सोझा
तूँ ढाई आखर रखिहऽ.
————-
एह करिखाइल नगरी में
दामन तूँ ऊजर रखिहऽ.
————-
ई रचना पढ़ि के बस मन से इहे निकलत बा कि- “का बात…का बात….का बात….”
छोट बहर मे ग़ज़ल कहल तनी टेढ़ काम होला साथ मे काफिया आउर रदिफ़ के साथ पूरा न्याय कईल ए ग़ज़ल के नूर मे चार चाँद लगावत बा , बहुत ही निमन ग़ज़ल रौवा कहले बानी , हमार बधाई स्वीकार करी, धन्यवाद ,
जब नफरत उफने सोझा
तूँ ढाई आखर रखिहऽ.
bahut nik gazal…
bhojpuri ke mahan sewak adarniya dr.ashok dwivedi ji ke ee rachana bahut sundar…..
gadh aur padh dunu khal ke rachnakar …. ke
sadhuvad
santosh patel
sampadak: bhojpuri jinigi
जब नफरत उफने सोझा
तूँ ढाई आखर रखिहऽ.
ई पंक्ति दिल के छू गइल. जिनगी के सभ दर्शन एह पंक्ति में समा गइल बा. अशोक जी, हमार नमस्कार स्वीकार करीं.