– जयशंकर प्रसाद द्विवेदी
गुरुवा तनि बताउ उनके
इहवाँ घर घर आग लगल हौ ।
घुमला फिरला से फुर्सत नईखे
सचहुं उनकर भाग जगल हौ ।
उरुवा जनि बनावा हमके
केकरे माथे मुकुट सजल हौ ।
डूबल जाता सगरी जनमत
केकर कहवा का मनल हौ ॥
भर दुपहरिया कुहुकत बीतल
कनवो मे बस रुआ भरल हौ ।
आँख खोल के देखा एहरों
भरल बजारे मनई मरल हौ ॥
बहुते आस लगल बा तोहसे
तोहरे से ही नेह लगल हौ ।
तन मन धन से इहें सजावा
ढेरों रूपिया इहों धरल हौ ॥
अपना घर के तुरत सुधारा
डहकत मनई तोहे मिलल हौ ।
ओकरो खाति राह बनावा
भर माथा सुनसान दिखल हौ ॥
दमगर बात बतावा इहवें
नैतिकता के धुआँ उठल हौ ।
कूल्ही जुगत लगवा इहवें
ढेरिकों ले अरमान जगल हौ ॥