भोजपुरी गीत के भाव भंगिमा

by | Oct 31, 2012 | 0 comments

Dr.Ashok Dvivedi

– डा॰अशोक द्विवेदी

कविता का बारे में साहित्य शास्त्र के आचार्य लोगन के कहनाम बा कि कविता शब्द-अर्थ के आपुसी तनाव, संगति आ सुघराई से भरल अभिव्यक्ति ह. कवि अपना संवेदना आ अनुभव के अपना कल्पना शक्ति से भाषा का जरिए कविता के रूप देला. कवनो भाषा आ ओकरा काव्य-रूपन के एगो परंपरा होला. भोजपुरी लोक में ‘गीत’ सर्वाधिक प्रचलित आ पुरान काव्य-रूप ह.

जेंतरे हर काव्य-रूप, फार्म, के आपन-आपन रचना-विधान, सीमा आ अनुशासन होला, ‘गीतो’ के बा. दरअसल गीत एगो भाव भरल सांकेतिक काव्य-रूप ह, जवना में लय, गेयता आ संगीतात्मकता कलात्मक रूप में रहेला. शब्द-अरथ के सुघर बिनावट का साथ-साथ आंतरिक संगति के एकरा में बहुत महत्व बा. केहू पुरान साँचा में नया ढंग से भावाभिव्युक्ति का परंपरा के आगा बढ़ावेला, केहू पुरान साँचा-ढाँचा में कुछ नया मिलाइ के अपना समय-सत्य के उकेरेला आ केहू पुराना साँचा तूरि के नया साँचा-ढाँचा गढ़ेला. महत्व तीनो के बा, काहें कि तीनू में अपना समय के जीवन आ परिवेश रहेला.

गीत का संरचना में भाषा के सार्थक, सुनियोजित इस्तेमाल गीत के सार्थक ‘इम्प्रेशन’ देला आ ओकरा के असरदार बनावेला. गहिर असर डाले वाला गीतन में वास्तविक जीबवन के भाव-सघनता, तरलता, आ अनुभूति के गहिर व्यंजना रहेले. कवनो गीत के ‘टोन’, लय आ ध्वन्यात्मक अनुगूँज ओकरा संप्रेषणीयता के अउर बढ़ावेला. लोकगीतन का अनगढ़ संरचना में मर्म छूवे आ झकझोरे वाला शक्ति एही कारन बा. गीत के एगो लमहर परंपरा भोजपुरी लोक-साहित्य में बा, जवन अधिकतर वाचिक बा. एम्मे लोकजीवन के हूक-हुलास, राग-रंग आ आँच देबे वाला साँच का साथ प्रेम-विरह के मार्मिक व्यंजना बा. पुरुषप्रधानन गीत बिरहा, चइता, फगुवा, कहरवा, आ नारीप्रधान कजरी, सोहर, झूमर, संझा-पराती, जेवनार, जँतसार, छठ, बहुरा आ बियाह के गीतन में श्रम, सपना, हुलास, हँसल-अगराइल, पीरा आ अहक-डहक, सुनवइया के बरबस खींचे आ बान्हे के सामर्थ से संपन्न बा. इहे ना, देबी-देवतन के मनावन-रिझावन आ आत्मनिवेदन कूल्हि बा एमें. लोककंठ से फूटल, दूर ले, बिना प्रचार-प्रसार के सहजे पसरल भोजपुरी के ई गीति-परंपरा कतने नया साँचा गढ़लस.

प्रेमरस से भींजल, विरह के पीर से भरल कसक उपजावे वाला भाव प्रधान निरगुनिया गीतन के सिरजनहार महेन्दर मिसिर एगो नए राग आ गीत-रूप दिहले – ‘पुरबी’. एह गीतन के भावावेग आ लय में भाषा के सीमा टूटि जाले. ध्यान से देखल जाव त ई बात साफ हो जाई कि एह गीतन में शब्दन के चुनाव आ बइठअव में कुशल संयोजन बा. लोक-संपृक्ति आ संप्रेषण खातिर कमोबेश एह तरह के शब्दन के इस्तेमाल करहीं के परेला, जवन लोक-व्यवहार में आपन अर्थ-गौरव आ आकर्षण राखत बाड़न स. एकरा साथे-साथ भाव-संप्रेषण का अनुकूल एह तरह के लय-विधान बनावे के परेला जवना से भाव-सघनता आ अनुभूति के तरलता असरदार ढग से सुनेवाला के हृदय छू लेव.

भोजपुरी कढ़ कवनि जब गीत लिखे लगलन त लोक प्रवाहि ई गीत-परंपरा कवनो ना कवनो रूप में ओ लोगन के पाछ धइले रहे. भोजपुरी गीतकारन में दोसरा भाषा लेखा कबो नया-पुरान के ताल-ठोंक झगरा ना भइल. अब्बो नइखे. एकर कारन ईहे बा कि ई कवि अपना माटी आ परंपरा से हमेशा जुड़ल बन्हाइल रहलन स. शिल्प-संरचना बदलल, भाषा प्रयोग के तौर-तरीका बदलल, बाकि गँवई भावधारा नया-नया रूप धइ के संगे लागल रहि गइल. अपना जमीन से कटि के दुनियाँ-जहान का भँवरजाल में अझुरइला से का होइत? भोजपुरी लोक ओके सकरबे ना करित.

भोजपुरी कवि जवना उछाह से लोक राग आ ओकर पारंपरिक लय-धुन पकड़ि के आपन गीत रचेला, ओही उछाह से एह काव्य-रूप के केहू नया शिल्प-साँचा में अपना माटी के रस-गंध आ सुभावो उरेहेला. लीखि से अलगा हटि के लिखे वाला कवियन में जहाँ परंपरा से विलगाव भइलो बा, उहाँ ओकर भोजपुरिहा-संस्कार ओके भोजपुरी परंपरा से कटे नइखे देले, जे एहू से कटि गइल, समझ लीं ऊ भोजपुरी के नइखे रहि गइल. बाहर ओकर भले जान-मान भइल, भोजपुरी में ओकर पुछार ना भइल.

स्वतंत्रता-आन्दोलन आ सुराज मिलला का बाद ले भोजपुरी कविता क जवन रूप देखे-सुने आ पढ़े के मिलेला ओमे राष्ट्रीय चेतना का अलावा प्रकृति के सुघराई, खेत-खरिहान, मौसम, प्रेम-भावना, जिनिगी कढ़ सुख-दुख आ भक्ति के स्वर प्रधान बा. गौर कइला प ई साफ बुझाई कि गँवई जीवन आ प्रकृति एह पूरा कविता-समय के आलंब आ प्रतिपद्य रहल बा. लोक-गीत लोक अनुभूति आ ओकरा रूचि- प्रतीति के गीत-संसार ह. सुख-दुख, सोच-बिचार, अनुभव-व्यवहार हर ममिला में लोक-धर्मी. किसान-मजूर आ मेहरारू एह संसार के वाहक आ भोक्ता हउवन त घर-गिरहस्थी, खेत-खरिहान, बाग-बगइचा, पोखरा-ताल-नदी आ पहाड़-जंगल एकर क्षेत्र हउवे. एकरा बाद कुछ बा त ऊ परदेस ह.बाकिर ई क्षेत्र अब बढ़ि-पसरि के प्रदेश, देश, देश के राजनीति, शासन-प्रशासन, सड़क-संसद, सामाजिक-सांस्कृतिक विघटन, मानवी-रिश्ता आ मूल्यन के बिखराव तक पहुँच गइल बा. एह तरह से ई अपना लोकदृष्टि में आधुनिकता के काम भर समेट चुकल बा.

भोजपुरी कवि नकली क्रांतिधर्मिता आ जन-पक्षधरता के भोंपू ना बजावे, ऊ जन-चेतना के वहन करेला. जवन जथारथ बा ऊ बा. आ जथारथ ई बा कि दिन-रात, हाड़तोड़ काम कइला का बाद जो दू घरी कहीं ओठँघे-बइठे आ सपना बुने के संजोग भेँटाला त ओहु कल्पना-विहार का अवस्था में ओकर गरीबी कवनो ना कवनो रूप में झलेकले – चाहे ऊ पेवन आ चकतिए लेखा काहें ना होखो. ऊ धरती-अकास का बीच घटे वाला हर घटना-दुर्घटना के अपना देंहि आ दिल-दिमाग पर अनुभव करेला. ई बात दीगर बा कि ओकर धरती गँऽई खेत-खरिहान के धरती ह, आ ओकर दुनिया एह धरती पर नया-नया रूप धारे वाली प्रकृति के दुनियाँ ह –

चन्दा ओढ़ावे राति चानी के चदरा
सूरुज उड़ावेला सोने के बदरा
बदरे में चकती लगावे मोरी नइया !
मजे-मजे कामहोखे रसे-रसे पानी
ताले-तलइया में बिटुरल बा पानी
सोने के मछरी कि रूपे क रानी
पियरी पहिरि बेंग बइठेले ज्ञानी
इनरासन झूठ करे हमरी मड़इया !
सननन, सन सन बहेले पुरवइया !!

– मोती बी॰ए॰

मोती बी॰ए॰ अपना काव्य-संग्रह ‘सेमर के फूल’ में फेंड़, फूल, सुगना आ झुलनी जइसन प्रतीकन से जीवन-दर्शन के अन्योक्तिपरक प्रभावपूर्ण अभिव्यक्ति त कइलहीं बाड़न, खेती-बारी आ किसान-जीवन के यथार्थ चित्रो उरेहले बाड़न. एम्मे कल्पना के हवाई उड़ान आ रुमानी छिछिलपन नइखे – एगो जियतार चटक रंग बा, जवन अपना लालित्य आ रागात्मकता से लसल बा. मोती बी॰ए॰ गँवई जीवन के कुशल चितेरा बाड़न. एही से उनका गीतन में प्रकृति के सुघराई का साथे-साथ किसान के संघर्ष, दुख-दरिद्रता आ अवसाद के मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति भइल बा –

पुसवा आ मघवा बिपतिया के खनिया
एही में होले वसूली लगनिया
साहब के कुड़की सभापति के घुड़की
ढेबुआ की खातिर उजारें पलनियाँ
हाकिम-दइब हतियार हो सजनी

– मोती बी॰ए॰

ई अनायास नइखे कि प्रकृति के प्रति भोजपुरी कवियन के गहिर लगाव गीतन में चित्रित भइल बा. हिन्दी के काव्य-धारा में आइल बदलाव, भोजपुरिओ के प्रभावित कइले बा. अनिरूद्ध, हरेन्द्रदेव नारायण, भोलानाथ गहमरी, प्रशान्त आदि कुल्हि कवियन पर छायावादी संस्कार आ प्रवृति झलकेले. बाकिर शब्द-संयोजन, भाषा क चित्रकारी, प्रेम-भावना आ रहस्यवादी प्रवृति का बावजूद गीत में एगो खास किसिम के लोकज संवेदना, लगाव आ सह‍अनुभूतिओ मिली –

टुटही मड़इया के अइसन कहानी
अदहन का पानी में खउले जवानी
रोवेला छौँड़ा मजुरवा, मेहरिया
देखे बजरिया के राह
सँझिया के उसरल बजार !

– अनिरुद्ध

बिना छुवल बाजेला सितार !
पतझर में दरद, माघो में पिरीत गीत
बरखा में गाईले मल्हार !

– हरेन्द्रदेव नरायण

सजधज के सोनकिरिन उतरे मुड़ेरिया
ओठ पर धरे केहू गुलाब के पँखुरिया
टाँकि गइल सात रंग बिंदिया लिलार के.

– भोलानाथ गहमरी

भोलानाथ गहमरी के गीत-संसार प्रकृति आ प्रेमपूरल जीवन के सुघराई आ मनोहारी प्रतीति के संसार ह. लय,गेयता, संगीत, रागबोध से भरल उनका गीतन में लोकज संवेदना का कारण एगो चटक क्षेत्रीय रंग आ अपनापन आ गइल बा. ‘बयार पुरवइया’, ‘अँजुरी भर मोती’ आ ‘लोक रागिनी’ में घर अँगना, खेत-खरिहान का साथ-साथ प्रेम के लौकिक आ अलौकिक दूनो रूप देखे के मिली. जहाँ उनकर गीत छायावादी, रहस्यवादी प्रेम भावना के छोड़ि के लोकज रूप धइले बा, ओम्मे दोसरे आकर्षण आ गइल बा –

महुवा के फूल झरे पलकन के छँहिया
सारी रात महके बलमु तोरी नेहियाँ !
कीछड़ से नीलकवन दियना से कजरा
चिटुकी भर नेह से सँवर जाला जियरा !

– भोलानाथ गहमरी

छायावादी रहस्यलोक आ ‘बलमुआ’, ‘पियवा’ के संसार से बाहर निकल के जहाँ भोजपुरी गीत देश, समाज, खेत-खरिहान, आ बेवस्था के आपन विषय बनवले बा, उहाँ ओकर भाव-भूमि लोकज हो गइल बा. एही से एह गीतन में आर्त्त आ त्रस्त जनता के सुख-दुख, आस-निरास, पीरा आ आक्रोश मुखरित भइल बा. एह गीतन में भोजपुरी के साहित्यिक बाकि प्राकृत रूप प्रकट भइल बा. सुराज का बाद आम जन के स्थिति भोजपुरी गीतन में कुछ एह तरह से प्रकट भइल कि ओ से गहिर निराशा आ अवसाद के झलक साफ लउके लागल –

हमनी का आह से जे धुआँ उठी ओकरा से
लोक काँपि जइहें सरग भरि जइहें
गाँव-गाँव मड़इन से आगि उठी लपलप
देखत-देखत में महल जरि जइहें.

– राम विचार पाण्डेय

बटिया निरेखत नयन पथराइल
हमरी दुआरिया सुरजवा ना आइल
कवनी नगरिया रे रहिया घेराइल
बापू के सपना के टूटल गुमान !

टूटि गइल थून्हि कोरो, ढहली मड़इया
फाटल करेजा पर लगान के चढ़इया
मनवाँ में पीरा बा नयनवा में लोर बा
केने बा समाजवाद जेकर भइल सोर बा !

– जगदीश ओझा ‘सुन्दर’ (जुलुम भइले राम)

जगदीश ओझा ‘सुन्दर’ अपना गीत-संसार में गँवई समाज का साथ-साथ पूरा देश के आन्तरिक दुर्व्यवस्था के चिन्दी-चिन्दी उघार देत बाड़न. जुलुम भइले राम’ कविता संग्रह में अइसन कई गो मार्मिक आ मन के झकझोरे वाला गीत बाड़न स, जवना में जथारथ के खाली जस के तस नइखे परोसल गइल, बलुक ओकरा तह में घुस के असलियत उघारे के कोशिश कइल गइल बा. नोंचात-चोंथात आ चूसल जात आम आदमी एह गीतकार के अइसन हड्डी अस लागत बा जेके जुल्मी आ शोषक कुक्कुर लपटि के नोचे में लागल बाड़न –

केहू माँगे घूस केहू माँगे नजराना
केहू माँगे सूद मूरि, केहू मेहनताना
कुकुर भइले जुल्मी जन, हाड़ भइल जिनिगी
नदी भइल नैना, पहाड़ भइल जिनिगी.

– जगदीश ओझा ‘सुन्दर’

एम्मे शक नइखे कि एह दौर के गीतकारन के सर्वाधिक प्रिय विषय प्रकृति रहल बिया. गँवई परिवेश में प्रकृति के करीबी दर्शन अपना आम में सुन्दर आ ललित बा, बाकि अपना संवेदना आ अनुभूति के लोक व्यवहार आ अनुभव से जोरि के ओकर प्रभावपूर्ण प्रस्तुति कइल कठिन बा. भोजपुरी गीतन में ई प्रभावान्विति, एगो खास किसिम के चमक का साथ उभरल बा –

ललकि थरियवा में दियना के जोति लेके
उतरल आवेला बिहान !

सनन सनन जब बहेले बेयरिया
टटिया के ओटवो उड़ावेले चुनरिया
काँपि जाले पतई से पाटल पलान रे
बदरा के देखि-देखि बिहरेला प्रान रे

– प्रभुनाथ मिश्र (हरियर हरियर खेत में)

रितु अनरितु में कवन बिधि तुलिहें
गरमी के दिन में गुलाब कइसे फुलिहें
संग-संग सनके लागी तापत बयार हो…कवन बन गइलैं ?

– राम जियावन दास ‘बावला’ (गीतलोक)

कारिख का कोखि से लाल किरिनी के जनम कहाई
धुरियाइल धरती का आँचर में मोती बिटुराई
दमकी हीरा दिन दुपहरिया सरग-पताल सिहाई
जीतत चली जिनिगिया रन,मन मउवत के मुरुछाईं.

– अविनाश चन्द्र विद्यार्थी (सुदिन)

निमिया के गछिया से फूस के मड़इया पर
उतरेला सोना अस भोर.

– रामनाथ पाठक ‘प्रणयी’

फजीर के अँजोर के प्रतीकात्मक ढंग से चित्रित करे के परंपरा भोजपुरी गीतन में सुरुवे से बा. भोजपुरी गीतकारन के अभिजात नागर जीवन के बनावटी दुनिया संवेदना आ रस से हीन जिनिगी में कवनो रुचि नइखे. ऊ जवन देखत सुनत अनुभव करत बा ऊ दुनियाँ खेत-बारी, नदी, पहाड़ के दुनियाँ ह. ऋतु परिवर्तन का साथ सजे-सँवरे, जरे-झँउसे वाली प्रकृति से ओकर अटूट रिश्ता बा. बोवाई, रोपनी, सोहनी आ कटिया-दँवरी में लागल खेतिहर मजूरन के उछाह, उमंग, चिन्ता-फिकिर आ पीड़ा के ई कवि अपना हिया का आँखि से से देखत बाड़न स. कभी-कभी आधुनिकता का चकाचौंध में मजा लूट रहल लोगन के देखि के ओकरा भीतर खीझि आ असंतोषो उभर जाला, बाकि आखिरस फेरु ओही गँवई संसार का कारुणिक नियति के साक्षात्कार कइल जइसे ओकर मजबूरी बा –

कुँहुकत-कुँहुकत बीति गइले जुगवा
गरजि-गरजि अब गाउ रे कोइलिया !

– प्रभुनाथ मिश्र

सटल पीठ से पेट जहाँ पर
जहाँ भूख से उठल करुन स्वर
दाल भात पर नजर परल बा
दूलम सतुआ साफ कोइलिया !

– डा॰ रामनाथ पाठक ‘प्रणयी’

जनजीवन के दुर्दशा आ दुख के चित्रण करत खा भोजपुरी कवि ओकरा उल्लास, उमंग, उछाह आ सुघराई के नजरअंदाज नइखे करत, काहें कि ओकरा जथारथ में इहो बा. जवानी, प्रेम आ हुलास परिस्थिति का मुताबिक अपना विरोधी स्थिति आ विसंगति का साथ उजागर होत बा. भोजपुरी के ई गीतकार जनवादियन लेखा खाली भूख आ रोटी आ कल्पित क्रांतिधर्मिता के अपना गीत में नइखन स थोपत, इहाँ त सुघराई अपना तिताई का साथ सोझा आवत बा, प्रेम, विरह, गरीबी आ दुख के अभिव्यक्त करे में प्रकृति ओकर आलंबन-उद्दीपन बनत बिया –

जड़वा के रतिया, गरीबवन के छतिया
पछुवा बहेला बिछिमार !

अँगिया में धधकत बा अगिया गरिबिया के
अँखिया में छलकत बा लोर !

चुपके चोर चोरा ले भागल सरबस माल जवानी
टूटल नीन, नेह के घइला फूटल, ढरकल पानी.

दिन भर उड़ेला मैना / थाकि जाला दुनो डैना
दुनियाँ छिपल बाटे जलवा पसार के !
घरवा में घूमे गोरी सँझवत बार के !

– रामनाथ पाठक ‘प्रणयी’

रागात्मक अनुभूति के कोमल व्यंजन आ कल्पनाप्रवण भावुकता भोजपुरी के अधिकांश कवियन में रहल बा. कहीं ई बौद्धिक चेतना आ ज्ञानात्मक संवेदना से लसि के उभरल बा, कहीं निछक्का रागात्मक आ संवेदनात्मक रूप में. संदर्भ-चित्र, भाव-चित्र आ रूप-चित्रन से सजल एह गीतन में गीतकार के आत्मानुभूति, गहिर भावबोध आ अभिव्यक्ति-कौशल देखे लायक बा. भोजपुरी काव्य भाषा के साहित्यिक रूप एह तरह के गीतन में अउर निखरि गइल बा –

बाहर के सांकल के पुरवाई झुन से बजा गइल
आँगन के हरसिंगार दुअरा के महुवा जस
चू-चू के माटी पर अल्पना सजा गइल.

– पाण्डेय कपिल (भोर हो गइल)

मधुवन झँउसि गइल फुलवन के
झाँवर भइल सुरतिया
कुंअना गइल पताल, ताल-तलइन के दरकल छतिया
सिकुरि-सिकुरि अझुराइल नदिया गतरे गतर सेवार के.
पानी उतरल धार के.

– जगन्नाथ (पाँख सतरंगी)

इन्द्रधनुष में सात रंग कूँची से भरे चितेरा
जाल डाल सागर में डोरी खींचे चतुर मछेरा
के वंशी के सुर फूँकेला भौरन के गुंजार में !

– गणेश दत्त ‘किरण’ (अंजुरी भर गीत)

गोरकी बीटियवा टिकुली लगा के
पुरुब किरनवा तलैया नहा के
चितवन से अपना जादू जगा के
ललकी चुनरिया के अँचरा उड़ा के
तनिक लजा के आ हँसि-खिलखिला के
नूपुर बजावत किरिनिया के निकलल !

– रामेश्वर सिंह ‘काश्यप’

लोकधर्मी भावभूमि पर, लोकराग में ठेठ लोकज ढंग से रचाइल-बिनाइल गीतन के त बाते कुछ अउर बा. एम्मे भोजपुरी के आपन संस्कार आ पहिचान झलकत बा. भाषा के सुभाव का लेहाज से ई गीत जइसे बेमेहनत के सहजे बहरिया गइल बाड़न स. एह गीतन में ठेठ शब्दन के सार्थक प्रयोग अउर असर डालत बा –

छनियाँ पर लतरल बा झिंगुनी तरोइया
दुअरा बरधिया के जोर
अठिया बँड़ेरिया गुटुरगूँ परेउवा
बचवा भइल अँखफोर.

– बलदेव प्रसाद श्रीवास्तव

भरल घइलवा सनेहिया के ढरकल
दूधे नहाइल नगरिया
बीचे बजरिया में छवि के हेराइल
रस में गोताइल नजरिया
झूम उठल मस्ती में गँवई सिवान रे !
उतरल तलइया में गोर-गोर चान रे !!

– जगन्नाथ (पाँख सतरंगी)

जड़वा के खेतवा पर चढ़लि जवनिया
गेहुँवा पर बरसल सोनवाँ के पनियाँ
बूँटवा में तिसिया धधाइल रे
आइल बसंत रितु आइल रे !

– राहगीर (भोजपुरी के गीतकार)

नइहर मोर जइसे जलभर बदरा
मोरे ससुरे ओइसे लहरे सिवान हो !
अपनै आपन करीं कतना बखान हो
सासु मोरि धरती ससुर असमान हो !

– हरिराम द्विवेदी (नदियो गइल दुबराय)

अँगना में तुलसी के बिरवा परल घवाइल बा
पुरवा का लहरा में कइसन दरद सनाइल बा
अमरइया के छाँह ठाढ़ हो गइल काढ़ के फन !
कहाँ निरेखीं आपन सूरत, दरक गइल दरपन.

– भगवती प्रसाद द्विवेदी

जगमग जरेले किरिनिया के बाती / अँगनामें आवेला अँजोर
चनिया के चदरा चनरमा बिछावे
जोन्हिया के अँग-अँग गहना गुहावे
गोरकी के बढ़ि जाला आजु बड़कई
बुलुक बुलुक बुलुकावेले करियई
अँखिया से आवेला अँसुइया के धरिया
ओसिया ओही के हवे लोर !

– मुख्तार सिंह ‘दीक्षित’

गोबरा से लीपल अँगनवा निहारे
ए राजा, अबकी कमइया मुआर
फाटत करेजवा के सबुर धरइहऽ
ए रानी हमनी के हईं बनिहार !

– मधुकर सिंह

शिल्प आ भाषा के बिनावट का दिसाईं सतर्क गीतकारन में परंपरा से कुछ अलगा हटि के प्रयोगधर्मिता आ नया अभिव्यक्ति देबे क छटपटाहट लउकत बा. हिन्दी में आइल नवगीत के नवधारा के प्रभाव का कारन ई गीतकार अपना रचना में बिम्ब, प्रतीक आ संकेत का जरिए गीत में नया रंग भरे के उतजोग कइले बाड़न. हिन्दी में ई काम कहीं शहरी शब्द-संयोजन से आ कहीं, लोकज शब्द आ मुहावरन के प्रयोग से सम्भव भइल, बाकि भोजपुरी में गाँव, प्रकृति आ जन जीवन का भाव-भँगिया के नया लय, नया शब्द-योजना, प्रतीक आ रूप-चित्र का साथ परोसला का कारण एह गीतन में अभिव्यक्ति के एगो नए सुगराई प्रगट भइल –

ललकी किरिनिया के डेंगिया में बइठल
जुड़वा खोलत मुसुकाय
जुड़वा तोपाइल दहकत देहियाँ
अगिया पियत भहराय
सँसिया के बहे जे बयार
सखि रे धरती के भरे अँकवार !

– उमाकांत वर्मा (गीत जे गूँजल)

पुरुब छितिज पर / फूल भोर के खिले
गगन उजराए
फूल साँझ के जूड़ा में खिले
बने इंजोरिया गाए……
किरिन पाँख में ले लपेट
चिरई फुनगी पर जाए !

– विश्वरंजन (एक पर एक)

पोँछ गइल आँतर के / गढ़ुवाइल बात
सिकहर पर झूल रहल / बसियाइल रात
झाँक रहल गीतन के रागिनी अरूप !
छितराइल सुधियन के एक पसर धूप !

– पी॰ चन्द्र विनोद (केतना बेर)

किलकारी नदियन के
गोद में पहाड़ी के
थथमल बा रूप के हिरन !

आँगन में पसरेला अँजुरी भर धूप
मरुआइल चंद्रमुखी मरुवाइल रूप-सूरज पर पहरा परे
फूल हरसिंगार के / मन का चउतरा पर
चुपे चुपे रात भर झरे !

– परमेश्वर दुबे ‘शाहाबादी’

गाँव होखे भा कस्बा आ शहर – ओकर विसंगतिपरक आ अभावपूरित, अमानवीय माहौल साधारण आदमी के दुख, परेशानी आ चिन्ता के अउर बढ़ा दे ले बा. गाँव अब पहिले वाला गाँव नइखे. ओकर भोलापन, सोझबकई, आपुसी भाईचारा धीरे धीरे बिला रहल बा. प्रकृति आ ओकरा सुभाव से रँगल पुरनकी रागात्मक संवेदना आ ओसे जोराइल अपनापा, शहरी कुप्रभाव आ राजनीतिक छल-छहंतर का आँच से झुलस रहल बा. अइसना में भोजपुरी गीत के ‘थीम’ लय आ उद्देश्य काहें ना बदलित ! ओकरो पर ओइसहीं प्रभाव परल –

तरकुल के छाँह भइल जिनिगी !
रेत भइल नदी के कहानी
डभकत बा दिन जइसे अदहन के पानी
चूल्हा के धाह भइल जिनिगी !

– सत्यनारायण (काव्या ९३)

जिनिगी का बखरा में घाव के अगोरिया
कबहूँ अन्हार घेरे कबहूँ अँजोरिया
राति राति जोगवल कुँवार
सपनवाँ दुअरिए तँवाला !

– रिपुसूदन श्रीवास्तव (काव्या ९३)

महँगी के बहँगी पर देह के सुखौता
बेकल जवानी पर जीभि के सरौता
हाथ का तिजोरी में, दउरत पसेना के
पेट में बा लंका-दहन !

– परमेश्वर दूबे शाहाबादी (उरेह – ५/६)

सपना के होला जहाँ होलिका-दहनवा
मनवाँ में खउलेला प्रीति अदहनवा
मयगर ऊ अँचरा के छाँव कहाँ रे,
दउर दउर खोजीला गाँव कहाँ रे ?

– कुमार विरल (पाती – ६)

मन मिरगा भटक रहल लूह चले ताल में
सपनन के पाँख फाँसल कवन महाजाल में
सोझहीं धनकत बाटे लुलई जजात के !

– अशोक द्विवेदी (पाती – ६)

देवता घूमत बा उघार खोरी-खोरी
गोर तर फाटेला दरार चारू ओरी
मुट्ठी भर बीया के हो गइल तबाही
आसा का खेती में लागलि बा लाही
आँखी से आँसू ना गिरल करे ठार !

– आनन्द संधिदूत (एक कड़ी गीत के)

भोजपुरी कविता जेंतरे अपना ठेठ शब्द-संस्कार आ मुहावरेदारी का संगे भोजपुरी के भाषिक तेवर, नाटकीयता आ सांकेतिकता के इस्तेमाल से, अपना प्रयोगधर्मिता के सँवरले बिया, ओके देखि-समुझि के सुखद अचरज होई, खास कर गीत-संरचना देखि के – ओकरा बिनावट से निसरत अर्थ गांभीर्य आ व्यंजना देखि के. दुख आ पीड़ा के ओकरा कारन आ परिवेशगत विसंगति का साथे उकेरे में भोजपुरी के गीतकार सफल रहल बाड़न. लोकधुन के काव्य-रूप होखे आ नया संरचना-शिल्प के, गीत रचत खा भोजपुरी गीतकार के काव्यानुभूति जमीनी जथारथ आ लोकमुहावरन से अपना के संपृक्त क के आपन आकार ग्रहण करेले.

अपना भागे कुदिन तबाही
जलन घुटन ठहराव
ठंढा सूरज धनकत गाँव !

– गंगा प्रसाद अरुण (पाती -२२)

कोख के करेज कहीं कुहुँके पलुहारी पर
धनिया के ध्यान जा के अटकल बनिहारी पर
अजबे ई मनवा परल पसोपेस में !

– दक्ष निरंजन शंभु (एक पर एक)

जाड़ा गरमी बरखा ना जनलीं / गोंहू ओसवलीं त भूसा बनलीं
काहें बरध सब खेतवा चरलें / हम भइली कउड़ी के तीन
केकरे नाँवे जमीन पटवारी / केकरे नाँवे जमीन !

– गोरख पाण्डेय (भोजपुरी के नौगीत -७)

समय बहेंगवा बेलगाम / मोर फाटल फाँड़ न बूझे
एह अन्हार जंगल में कवनो / ऊजर राह न सूझे
चिरई कतनो आस जोगावे
बाकिर रोजे जाल फँसे !

– अशोक द्विवेदी (पाती)

छोट-मोट आदमी के नियति बा कि ऊ जवन आस-बिश्वास आ भरोस लेके आपन जांगर तूरेला, बेवस्था का विरोधाभाषी घटाटोप में घेरा के जहाँ के तहाँ पहुँच जाला. कबो कबो त ओकर कुल्हि सपना जथारथ का चकाचउँध से छिन्न-भिन्न हो जाला. एह कारुणिक स्थिति के भोजपुरी गीतकार अलग-अलग कोण से देखे आ देखावे के कोसिस कइले बा लोग. अपना जमीन आ परंपरा से अंदरूनी रिश्ता बना के कुछ कहे का प्रक्रिया में जदि प्रयोगधर्मिता आइलो बा तबो गीत के कड़ी टूटल नइखे. सजग कलात्मक रचाव का कारन ई गीत अउर अर्थगर्भ आ असरदार हो गइल बाड़न स. गीत में जहाँ कहीं नाटकीयता आ कटाक्षपूर्ण व्यंग्य व्यंजित भइल बा, उहाँ ई असर कुछ अउरी बढ़ जाता –

धीरे धीरे शहर गाँव में, देखा कइसे धँसे लगल हौ
सास के मुँह पर नई बहुरिया उलटे पल्ला हँसै लगल हौ.

– कैलाश गौतम (पाती -२२-२३)

लोकतंत्र अबरा के मेहर
ई मेहर सबकर भउजाई
सुनि लऽ भाई !

– सत्यनारायण (कविता -४)

काम बाटे कतना ले बीने के बरावे के
रतिया बिछावे के अँजोरिया सुखावे के
हाँके के बा तरई उड़ावे के बा चान
हमें सोचहूं न देत बाटे पेट के पहाड़ !

– आनंद संधिदूत (पाती -६)

घर लूटे क साजिश होत बा दुआरे
मुखिया चुपचाप कहीं बइठल पिछुवारे
अँगना के लोग भइल काठ क गिलहरी !

– कमलेश राय (पाती -२२)

उपवन-उपवन बगिया-बगिया
नाच-नाच गावे कागा
कोइल नजर बचा के भागल
ना केहू पीछा आगा
गरम हवा के गश्त तेज बा / अमराई के छाँव तले !

– सूर्यदेव पाठक ‘पराग’ (कविता -६)

भोजपुरी गीत के अपना-अपना भावभूमि, प्रतिभा, दृष्टि आ रचना-कौशल से नया-नया भँगिया आ ऊँचाई देबे में कतने पुरान आ नया गीतकार लागल बाड़न ओह सब लोग के एह छोटहन आलेख में समेटल कठिन बा. गीत के भाव-भंगिमा बनावे में जुटल एह लोगन में नगेन्द्र भट्ट, महेश्वर तिवारी, पाण्डेय आशुतोष, ब्रजभूषण मिश्र, प्रकाश उदय, रामेश्वर प्रसाद सिन्हा ‘पीयूष’, रिपुंजय निशांत, सुभद्रा वीरेन्द्र, दयाशंकर तिवारी, शम्भुनाथ उपाध्याय, हरिवंश पाठक गुमनाम आदि के नाँव लिहल जा सकेला. भोजपुरी के पत्र-पत्रिका खास कर ‘भोजपुरी सम्मेलन पत्रिका’, ‘पाती’, ‘समकालीन भोजपुरी साहित्य’ आ ‘कविता’ स्तरीय ढंग के गीत आ कविता प्रकाशित कर रहल बाड़ी सन. भोजपुरी गीतकारन के नजर अब आज के जिन्दगी के जद्दोजहद, संघर्ष, विचार-दर्शन आ ओह अमानवी स्थितियो पर जा रहल बा, जेमे आदमी के जुझला-जोतइला आ आत्मसंघर्ष का संगे-संगे ओकर असहाय अवस्था, किंकर्त्तव्यविमूढ़ता आ संवेदनहीन मनःस्थिति आ जा रहल बा. अरसा से भोजपुरी कविता के सजावे-सँवारे में लागल समर्थ गीतकार एहू खातिर चिन्तित लउकत बाड़न कि अत्यधिक आधुनिकता के मोह, प्रयोगशीलता आ चमत्कार-सृजन का चक्कर में भोजपुरी संस्कृति आ भाषाई-खासियत मत छूट जाव. जन जन का कंठ से प्रवाहित – सुनवइया के आंदोलित करे वाला ऊ राग-रागिनी, धुन आ लय मत तिरोहित हो जाव, जवना खातिर भोजपुरी जानल-पहिचानल जाले.


(ई लेख ‘भोजपुरी सम्मेलन पत्रिका’ के गीत विशेषांक में साल २००१ में प्रकाशित भइल रहे. )


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सहयोग राशि - एगारह सौ रुपिया


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