कविता लिखे के लकम

by | Aug 21, 2015 | 1 comment

– डॅा० जयकान्त सिंह ‘जय’

JaiKantSighJai
सन् 1976-77 में, जब हम गाँव के प्राथमिक विद्यालय में तीसरा-चउथा के विद्यार्थी रहीं, ओह घरी हर सनीचर के अंतिम दू घंटी में सांस्कृतिक कार्यक्रम होखे. ओकरा में हमनी कुल्ह विद्यार्थी इयाद कइल / ईया,दादी,नानी वगैरह से सुनल-सिखल कथा – कहानी, कविता – गीत, बुझउवल- चुटकुला आदि सुनाईं स आ बाहबाही पाईं स. इम्तिहानो में गीत आ कविता – कहानी सुनवला पर नम्बर मिले. हमार मन एह सब में खूब लागे. हम ओह घरी के प्रचलित गीत खूब गाईं; जइसे- ‘ ए धनिया अब हा बनब किसनवा तूँ किसानिन बनिह ना ‘, धन बाड़ु ए गंगा सहर बसवलू किनार पर’, संवरो करली सगुनवा आजू मोर राम जी अइहें ना आदि. जवना गीत के कवनो डांड़ी भुला जाईं, ओकरा में अपनो से बना के गा दीं.

पाँचवा वर्ग में पढ़े खातिर हमार नाव आदर्श राजकीय मध्य विद्यालय, तरैया में लिखा गइल. हमार बड़ भाई श्री शुभनारायण सिंह उहाँ शिक्षक रहस. ऊ ओह घरी भोजपुरी गीत लिखस आ उनकर लिखल गीत उमेश कुमार सिंह ‘सुशील’ आकाशवाणी, पटना से गावस. हम ओह घरी किताब भा कैलेंडर में के छपल तस्वीर देखके हूबहू बना दीं. एह काम में कॅापी के पन्ना जिआन करे खातिर गाँवो में बाबूजी से ढेर पिटाईं. छठा में रामदास राय मास्टर साहेब भूगोल पढ़ावत रहस आ हम उनका के अइक- अइक के उनकर तस्वीर बनावत रहनी. उनका बुझा गइल कि हम उनका के सुनत नइखीं फेर का रहे, ऊ कुछ बुदबुदानत सटका लेके हमरा ओर बढ़लन. हमार त प्राने सूख गइल. झटसे हमार कॅापी छीन के आँखि के चश्मा नाक के टुड़नी पर क के चश्मा के ऊपर से कॅापी पर देखे लगलन. हमार त डरे हालत खराब होत रहे. खड़ा होखे थुराये के इन्तजार करत रहीं. बाकिर, छनेभर में उनकर सटका नीचे हो गइल. ऊ मुस्कात-चिहात कॅापी लेके जाके अपना कुर्सी पर बइठ गइलन. फेर बारी बारी से सब लइकन के बोला-बोला के देखावे लगलन, तेकरा बाद ऊ कॅापी लेके आफिस में चल गइलन. सब मास्टर लोग देखल. हमरा के आफिस में बोलावल गइल. फेर कैलेंडर के कइगो तस्वीर देखा-देखा के चित्र बनवावल गइल. शाबाशी मिलल. मिठाई खइनीं. तब ओह दिन हमरा बुझाइल कि ई काम पन्ना जिआन करे वाला नइखे.

भइया घरे आके बाबूजी के बतइलन आ बाबूजी अपना स्कूल के शिक्षक लोग के ई कहानी बतवलन. जब घरे अइनीं त बाबूजी के संघतिया शिक्षक लोग कइगो तस्वीर बनवावल आ मिठाई के संगेसंगे पुरस्कारो दीहल. ओह घरी हम स्कूल के सांस्कृतिक कार्यक्रम में गीत त गइबे करीं, कबो -कबो अंताक्षरी में गीत घट जाए त कविता भा गीत के झट से पैरोडियो गढ़ के सुना दीं. आठवां में हमार नाव मशरक हाईस्कूल में लिखाइल आ हम तरैया से गाँवे आ गइनी.

हाईस्कूल में रामनारायण सिंह मास्टर साहेब के योजना रहे स्कूल से पत्रिका निकाले के. ऊ सब लइकन से कविता, कहानी, निबंध वगैरह लिखके देवे के कहलन हम अगिले दिन एगो तुकबंदी वाली हिन्दी कविता ‘बड़ा ही महत्व है’ आ पैरोडी ‘मइया मोरी मैं नहीं खेलन जायो’ लिखके उनका के थम्हा दिहनी. सभे सराहल. फेर का, ‘बुरबक सरहले आ कोदो बिदहले’, पत्रिका त ना छपल. कविता लिखेके लकम लाग गइल.

अब हमरा महसूस होला कि हाई स्कूल तक जात-जात साहित्य पढ़े भा रचे के जवन लत हमरा लाग गइल रहे ओकरा पीछे परिवार, पड़ोस अउर गाँव के साहित्यिक-सांस्कृतिक परिवेश के प्रभाव काम करत रहे. सत्तर-अस्सी के दशक में जवन हमरा परिवार, पड़ोस अउर गाँव के जे बात-बेवहार रहे, आज ओकर चारो आना नजर नइखे आवत.

विकास सम्बन्धी वर्तमान सोच के मुताबिक हमार गाँव ओह घरी आर्थिक रुप से आज जइसन सम्पन्न ना रहे, बाकिर साहित्यिक, सांस्कृतिक आ शैक्षिक रुप से बहुते समृद्ध रहे. शुरुए से हमार गाँव खास क के शिक्षक, साहित्यकार आ संस्कृतिकर्मी लोग के गाँव रहल बा. हमरा खूब इयाद बा-जब हम दूसरा-तीसरा में पढ़त रही तवनो घरी महावीरी भा दुर्गापूजा वगैरह, पन्दरह अगस्त, छब्बीस जनवरी चाहे कवनो साहित्यकार का जनम दिन के अवसर पर कवि- गोष्ठी होखे. हीरा चाचा (हीरा लाल ‘अमृतपुत्र), मदन जी मास्टर साहेब, नागा चाचा,(नागेश्वर सिंह), हमार मझिला चाचा शिवपूजन सिंह’वियोगी, साधुशरण सिंह, रामजीवन सिंह’जीवन’ आदि के कविता सुने आ ओइसहीं कहे आ लिखे के इच्छा जागे. ओह गोष्ठी में कबो-कबो भइया सहित नयो लोग के हिन्दी कविता सुनावत देख प्रेरणा जागे. कवनो खास अवसर पर चैनपुर-चरिहारा अवध उच्च विद्यालय में रबीन्दर बाबू, शरद बाबू, धूपनाथ सिंह, शम्भु भइया, शुभ नारायण भइया वगैरह नाटक खेले लोग. रात-रात भर नाटक आ गीत गवनई होखे. हमरा ई सब खूब रूचे. हर महीना पंडित जी घरे आके तेरस के शिव जी के पार्थिव पूजस.पार्थिव फुलहा भा पीतरिये थरिआ में पूजाए. पूजा का आखिर में पंडित जी दहिना हाथे हलुका से आपन गाल दबा के मुँह खोल के बोका के आवाज निकालस त हम लइकन के बड़ा मजा आवे. पूछला पर पंडित जी बतवले रहस कि एकबेर शिवजी खीस में आके अपना ससुर के मुड़ी काट देले रहस. बाकिर जब खीस ठंडा भइल त सास के रोअला-गवला पर कहलें कि दक्खिन मुँहे गोड़ क के जवन जीव सुतल होखे ओकर मुड़ी काट के ले आवऽ लोग त हम इनका गरदन से जोड़ देब आ ई जी जइहन. खोजनिहार का बोके भेंटाइल आ ऊ ओकर मुड़ी काट लियाइल. शिवजी बोके के मुड़ी जोड़ के ससुर के जिआ दिहलन आ तब से ऊ जब-जब बोका के बोली सुनेलें खुश हो जाले. अइसहीं पंडित जी कथा सुनावस. रात के कथे सुने खातिर ईया, दादी, फूआ, दिदिया के भिड़ी सुते के जिद करीं. जब-जब ममहर, फुफुहर, बहिनउरा भा भइया के ससुरार जाये के मोका मिले उहँवो बूढलोग से खूब कथा-कहानी सुने-सीखे के मिले.

घर-परिवार में भा गाँव – पड़ोस में कवनो मांगलिक अवसर पर, सुक-सोमार भा मंगर-सनीचर के, हर महीना का पुनवाँसी चाहे कवनो भारा-मान्ता के लेके बरमहल रामायण, सुन्दर कांड के पाठ भा कीर्तन गावे-गवावे के परम्परा रहे. ओही उमिर में हमहूँ ओकरा में गावे सीखे जाईं. ओह रामायण-कीर्तन में गाँव के तीन पीढ़ी भाग लेवे. गाँव -जवार में चाहे सगे-सम्बन्धी का शादी-बिआह के अवसर पर जब नाच पार्टी के नाच-पाठ होखे त हम ओकर पाठ(नाटक) देखे जरूर पहुँच जाईं. एकरा खातिर हमार पिटाइयो कम नइखे भइल. गाँव-जवार में गवाये वाला चइता-चइती-घांटो, कजरी, बारहमासा, फगुआ में गावल-बजावल हमरा खूब भावे. छोट भइला के चलते गाँव के बुजुर्ग गवनिहार लोग के दुलार आ शाबाशियो ढेर मिले. जवना के चलते हम परिक गइल रहीं आ हमरा ऊपर घर का डांट-मार के ढेर असर ना रहत रहे.

जवना घरी हम मध्य विद्यालय में पढ़त रहीं, ओह विद्यालयन में रामचरितमानस के अंताक्षरी के प्रतियोगिता खूब होखे. भाग लेवे वाला लइकन के सउँसे रामचरितमानस कंठस्थ रहे. हमरा साहित्यिक रुझान का पीछे एह कुल्ह साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियन के प्रभाव जरूर हो सकेला.

मिडिल स्कूल तक जात-जात हमरा महेन्दर मिसिर आ भिखारी ठाकुर के गीत सुनाए-बुझाए लागल रहे. बिन्दा व्यास, फागू बाबा, संतराज सिंह, उमेश कुमार सिंह ‘सुशील’ आदि के गावल गीत, कीर्तन के गावे-गुनगुनावे के के कहो हम ओकर परोडी करके स्कूल में सुनावहूँ के कोशिश करीं.

तरैया मिडिल स्कूल में लोकगायक उमेश कुमार सिंह ‘सुशील’ के छोट भाई रमेश हमरा जवरे पढ़त रहे. गजब के ओकर सुरीला कंठ रहे. जब ऊ क्लास में मिसिर जी के पूरबी – “खेलत रहनीं रामा सिपुली मउनियाँ’ भा ‘पिया मोर गइले रामा पूरुबी बनिजिआ’ गावे लागे त हमरा मन होखे कि भगवान अइसन गला हमरा के काहे ना देहलें. अइसे त ओह घरी राजकुमार, ललन, अजय, पंकज, शलाउद्दीन, नौशाद, भृगु, शत्रुघ्न, अरविंद, अरुण, अखिलेश ढेरहन मित्र रहलें, बाकिर जदि सबसे अधिक नियराही रहे त रमेश से. आजुओ एगो अजीब तरह के खिंचाव हम रमेश आ ओकरा परिवार के प्रति महसूस करिले. हम आजुओ रमेश के गावल गीतन के अपना साहित्यिक रुझान के प्रेरक मानिले.


डॅा० जयकान्त सिंह ‘जय’ बिहार विश्वविद्यालय में भोजपुरी विभागाध्यक्ष हईं. इहाँ के लिखल अनेके किताब प्रकाशित हो चुकल बाड़ी सँ आ जवना में भोजपुरी व्याकरण आ ओकरा मानक स्वरूप पर छपल किताब खास बाड़ी सँ.

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1 Comment

  1. ashok dvivedi

    जयकान्त जी के ई आत्मकथा-स्टाइल वाला संस्मरण उनका अतीत यात्रा के ईमानदार कोसिस बा ।साँच के भीतरी खोज खातिर ई यात्रा जरूरी बा ।

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