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बेबस बूढ़ पुरनिया

by | Aug 10, 2015 | 3 comments

– डाॅ. अशोक द्विवेदी


बुढ़ापा आदमी के अवसान का पहिले क आखिरी पड़ाव (लास्ट स्टेज) ह. शरीर के कमजोरी आ अक्षमता त बढ़िये जाला, ऊपर से परिवार आ समाज के उपेक्षा आ अपनन के अमानवी तिरस्कार बूढ़-ठेल अदिमी के भितरियो से तूरि देला. बूढ़वन के अनुभव आ ज्ञान से लाभ उठवला का बजाय ओके चीझु बतुस लेखा एन.पी.ए. (नान प्रोडक्टिव) मानि के छोड़ि दिहल हमनी का सभ्य समाज खातिर लज्जाजनक बा !

अभी दुइये महीना पहिले साइत जून में एगो समाचार सुने मे़ आइल रहे कि महिपालपुर (दिल्ली) का “गुरुकुल बृद्धाश्रम” में पानी का कमी आ तेज गरमी से बूढ़ मरि गइलन सँ. कवनो किसान भा परिस्थिति के मारल अदिमी का आत्महत्या पर सबक लेके ओके रोके क उतजोग होखे भा ना होखे बाकि विधान सभा, संसद आ मीडिया चैनलन मे़ं हंगामा क सीन त अकसरे लउकेला. बाकि देश का नगर-महानगरन में वृद्धाश्रमन मेंं फेंकल-ढकेलल गइल अनगिन बुजुर्गन के दुर्भाग, बेबसी मे रिरिक-रिरिक के मुवला पर ना त समाज, ना मानवाधिकारी, ना जनप्रतिनिधि (विधायक) आ ना बात-बेबात लाइव टेलिकास्ट देखावे वाला मीडिया में से केहू गंभीरता से ना ले ला. कुछ करे भा ना करे हालो ना पूछे.

अबहीं 8 अगस्त के “हिन्दुस्तान” हिन्दी दैनिक में एगो वृद्धाश्रम के हाल पढ़े के मिलल. निहाल बिहार (पच्छिम दिल्ली) में किराया पर चले वाला “साईं वृद्धाश्रम” किहाँ जगह का कमी का चलते बूढ़-बुजुर्ग फुटपाथ का टीन शेड में सूते के मजबूर बाड़न सँ. सर्दी, गरमी, बरसात का विपरीत हालातो में माछी मच्छर का बीच बेमार भइल आ मुवल सुभाविक बा, बाकि ई सब देख सुन के मन घवाहिल हो जा ता. सुने में ईहो आइल कि मँगनी आ दान से चले वाला एह बृद्धाश्रम में अकसर पुलिसो वाला फुटपाथ प दिन काटे वाला बुढ़वन के छोड़ जालन सँ. जगह क ठेकाने ना आ अँड़सा में ठेला ठेली ! बाहर भीतर से टूटल छितराइल वृद्धन के जवने ठेकान मिल जाव ऊहे बहुत. कम से कम एह खस्ताहाल आश्रमन मे़ं असरा आ दाना पानी त मिल जा ता. इहवाँ त आम आदमी क सरकार बिया आ राजधानी गुने केन्द्रो क सरकार सटले बिया. ऊहो मानवतावादिये हियs. बाकि लब्बो लुआब ई कि इहाँ इन्सानी प्रेम आ संवेदना का बजाय इन्सानी फितरत आ कुतरक बहुत बा. लागत बा कि सँचहूं घोर कलिजुग आ गइल बा. आखिर एह धन्नासेठन आ बीस हजारी थाली खियावे वालन के कवनो मानवी जिम्मेदारी बा कि ना ? भला होखे “हिन्दुस्तान” अखबार का हिन्दी पत्रकार रोहित के, जे कम से कम राजनीतिए के पत्रकारिता माने वाला चरफर पत्रकारन में कवनो जरत धधकत समाजिक आ राज्य का मसला के उठावे आ छापे के साहस त कइलस. सरकार केहू क होखे, बनावल हमनिये के ह. त हमनी के ओसे पुछहूं क अथिकार लोकतत्रे देले बा. त हमन के अपनो से आ सरकारो से पूछे के चाहीं नू कि हमनी का व्यवस्था में अइसन अमानवीयता काहें बा ? एकरा निदान खातिर का होत बा ?

गाँवो कस्बा में जगहे जगह कुपूत आ कुबहू बाड़ी सँ जवन बूढ़ माई बाप के डाहे झहियावे में अगसर रहेले सँ आ शहर त खैर मतलबपरस्ती खातिर बदनामे बा. अपना बूढ़ बुजुर्ग आ अशक्य पुरनियन का दिसाईं बढ़त संवेदनहीनता आ अगंभीरता प हमार मन बहुत आहत बा आखिर ई कवन विकसित सभ्य समाज हवे जेकर इकाई “परिवार” काम से रिटायर अक्षम वृद्धन के उपयोग कइला का बाद अंतिम घरी असहाय छोड़ देता ? ई सरकार क कवन व्यवस्था हs, कि ओकरा आँखी का सामने ओकरे राज्य के नागरिक दाना पानी इलाज आ आश्रय का अभाव में रिरिक रिरिक के मर जा ताड़न स? मानवाधिकार एजेन्सियन के आँख काहें मुनाइल रहत बा ? एह बूढ़ पुरनियन के आह एह समाज आ देशे पर न पड़ी !आईं सभे अपना घर परिवार समाज से ई अमानवी संवेदनहीनता खतम करीं जा !

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3 Comments

  1. Satyanand Sinha

    अब हम बूढ़ गरीब का कहिं आ कउचि लिखीं। सभे का भाग मे इहे बा। हम अपना माई बाबूजी के देख भल न कईनी त हमरो उहे नु सामने आई ।

  2. Ashok Dvivedi

    धन्यवाद भाई ।ई हमनी के विकसित आ प्रगतिशील समाज आ देश का प्रतिष्ठा से जुड़ल मुद्दा बा ।हमरा ख्याल से हर पढ़ल लिखल नागरिक के एह मुद्दा पर जरूर आगा आवे के चाही।

  3. amritanshuoma

    रोआं-रोआं कंपा दिहलस राउर रचना के भाव —

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