लोकजीवन के “बढ़नी”

by | Aug 24, 2015 | 0 comments

– डाॅ. अशोक द्विवेदी

AKDwivedi-Paati
‘लोक’ के बतिये निराली बा. आदर-निरादर, उपेक्षा-तिरस्कार के व्यक्त करे क टोन आ तरीका अलगा बा. हम काल्हु अपना एगो मित्र किहाँ गइल रहलीं. उहाँ दुइये दिन पहिले उनकर माई उनका उनका गाँव आरा (बिहार) से आइल रहुवी. पलग्गी आ हाल चाल का बाद अनासो हमरा मुँह से निकल गउवे कि बिहार में चुनाव बा, उहाँ के का हाल बा ? बस ऊ चटाक से बोलुवी,”अरे बढ़नी बहारऽ ए चुनाव के; कूल्ह गोड़ा एक्के थइली क चट्टा बट्टा बाड़े सऽ. एगो कहऽता कि इहवाँ सड़क बनवाइब तले दोसरका आके बोलत बा कि झूठ बोलत बा ऊ. अरे बबुआ पूछऽ जनि, किसिम किसिम के बेंग बटुराइल बाड़े सऽ.

घरे आवते मन उनका “बढ़नी बहरला” पर अँटकल रहे. सोचे लगुवी. बहुत पहिले एगो लोकप्रिय रेडियो नाटक में लोहा सिंह क मेहरारू बात-बात में दिकिया के कहसु “मार बढ़नी रे !” त उनका टोन में कबो उपहास, कबो उपेक्षा त कबो तिरस्कार लउके.

ई ‘बढ़नी’ ह का ? झारे-बहारे वाला झाड़ुवे नु हऽ. ना ! दरसल कूड़ा कचरा, अहंकार-इरिखा, खराब नजर, रोग-बलाय आ अन्हार पोसेवालन के बहारे-बहरियावे वाला काम बढ़निये करेला. बुझला एही से धनतेरस का दिने सब समान किनला का बाद बढ़नियो (झाड़ुओ) किनाला. जम द्वितीया का अन्हार रात में जम क दीया दुआरी का बहरी बरला का बादे दीवाली भा दीया-दियारी आवेला. ई परब अँजोर का अगवानी क परब हऽ. मय कूड़ा-कचरा आ गंदगी साफ कइला का बाद साफ सुथरा घर-दलान “दीपोत्सव” मनावेला. आ एह में ‘बढ़नी’ मुख्य भूमिका निभावेला.

लोक का सँगे शास्त्रो खड़ा हो जाला ई कहत कि, ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय ‘! माने तूँ अन्हार से अँजोर का ओर पयान करऽ. बाकि एकरा पहिले घर का भीतर (आ मनवों का भीतर) के अलाय-बलाय, बुराई, मइल आ अन्हार बहरिया द! लोकजीवन में त ई ‘बढ़नी’ रोजे आपन काम करेला. ई हर घरनी (गृहिणी) के नित प्रति के सँघाती हऽ. घर का आब आ आबरू के रखवार हऽ आ बुराई से लड़े खातिर ओकर खास हथियारो हऽ. हर घर में होत फजीर, झलफलाहे सुरुज नरायन का अँजोर देबे वाली किरिन आवे का पहिले घरनी का हाथ मे़ं ई बढ़निये आवेला. घरनी एकरे बले घर झार-बोहार के चिक्कन क देले. ओने घर के मलिकार भा अगुवा घर का बहरा क सहन आ दुआर झारे-बहारे लागेला. तब ई बढ़नी ‘खरहर’ बन जाला. खर (कूड़ा कचरा) के हरे वाला ‘खरहरा’! गाँव में ई नित्य क क्रिया हऽ. खर माने कड़ा (अड़ियल) आ खल (बुरा) माने अड़ियल अहंकार आ नीच विचार के नित प्रति दिन बहारल जरूरी बा. तबे न अँजोर क सही शुद्ध मन से अगवानी होई. दिन का अँजोर में सकारात्मक भाव बिचार जरूरी ह; आ ओकरा पहिले नकार के पोषक अन्हार आ कलुष का उढ़ुक (अवरोध) के हटावलो जरूरी हऽ. बढ़नी आ खरहर दूनों प्रतीक रूप में सहज मनुष्य के विनयी मित्र हउवें स. ऊ लोक के जगावे आ क्रियाशील करे वाला उपकरण हऽ. लोक का क्रियाशीलता के दिशा देबे खातिर शास्त्र अगिलो लाइन दोहरावेला,”असतो मा सद् गमय!” झूठ से साँच का ओर पयान करऽ. साँच ऊ जथारथ ह,जवना के सामना आ साक्षात्कार जीवन के सुगम आ अरथवान बनाई.

लोकाचार में मामूली समझल जाए वाला चीजन के आपन महता बा. साइत एही से गृह प्रवेश में घर वालन का पइसे का पहिलहीं ‘बढ़नी'(झाड़ू) के पइसार हो जाला. ईहे ना नवका घर में पुरनका घर के झड़ुइया गइल शुभ मानल जाला. लोक आ शास्त्र दूनों के जवन भावभूमि बनत बा ओमें भौतिक घर आ भौतिक देह दूनों का भीतर क गंदगी आ मइल बिकार नित दिन बहरियावे क अभ्यास आ साधना बा. एही से एकरा प्रतीक बढ़नी भा झाड़ू के प्रासंगिकता आजुओ बनल बा.

युग का बदलाव का साथ लोक आ ओकर व्यवहारो बदल रहल बा, बाकि हमनियो के सोचे के चाही कि पुरान भीत गिरवला का बादो, पुरनका कूड़ा-कचरा आ मन क मइलियो छोड़ावे के परेला. नया भीत सकारात्मक सोच आ साफ मन से बनेले तबे टिकेले. ई ‘बढ़नी ‘आ ‘खरहर’ भले चलि जाव बाकिर ओकर मूल भाव आ लोक-अभिप्राय धेयान में राखे के पड़ी.

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