बकरी के महिमा आ गाँधी जी के विचार

by | Jun 13, 2013 | 0 comments

– जयंती पांडेय

बात चलल बकरी पर आ गांधी बाबा के परम भगत ठठपाल बाबा भिड़ गइले बाबा लस्टमानंद से. गांव में हीरा फुआ आपन बकरी के कमाई से एगो लईकी के बियाह क दिहली. एही बात पर बात निकलल आ बकरी पर आ गइल. बाबा लस्टमानंद कहले कि गांव के इस्कूल में जगधर पंडित जी एगो बकरी पोसले रहले आ हमनी के पढ़वले कि ‘ब से बकरी. इम्तहान में पास होखे खातिर हमरा सामने बकरी के इहे महत्व रहे. एकरा बाद आज सुननीं. ना त पढ़ाई छोड़ला पर सबसे ज्यादा ब से बंटवारा आ ब से बम जानल गइल.’

एतना सुनि के ठठपाल बाबा जामा से बाहर हो गइले. कहले, तूं जे कांग्रेसी ना आ गांधी जी भगत ना त तहरा बकरी के बात करे के हक नइखे. बाबा लस्टमानंद बोल पड़लन कि ठीक कहलऽ ह‘ कांग्रेसी त गलती करबे ना करे लोग. सुराज के बाद से अब ले कांग्रेस कबो गलती कइले बा ? एही से हम मान लेत बानी कि हमरे गलती ह. लेकिन आज जब हीरा फुआ के बात चलल त बकरी के महत्व गांव भर के हो गइल एही से बात करे के परऽता. ब से बकरी आ ब से बचपन दूनो में हमरा खातिर एतने सम्बंध रहे कि पंडीजी एगो बकरी पोसले रहले ओकर सेवा कइल आ दूहल हमनी के काम रहे आ दूध पी के हमनी के ठेठावल पंडीजी के काम रहे. पंडी जी के देहि देखि के हमनियों के दूध पीये के मन करे लागल आ हमनी का उनकर बकरी के चरऽत में ध के दूहे के काम शुरू कइनी सन, अचानक एक दिन धरइला पर का होला ई त सभे केहु जान सकेला.

आजादी के तुरतले बाद बकरी के अनासो राजनीतिक महत्व हो गइल आ बकरी राजनीति में ढुकि गइल. नगर-शहर के लोग त गांधी जी के ले चल दिहल लोग आ उनकर बकरिया गांव में घूमे लागल. शहर बजार त बंडी आ गांधी टोपी से गांधीवाद शुरू हो गइल आ गांव में बकरी उनकर प्रतिनिधि बनि गइल. मरदाना लोग गांधीवादी बने के चक्कर में बकरी पोसे लागल आ ओकर गंदगी उठावे के जिम्मा घर के मेहरारुन के ऊपर आ गइल आ ऊ जेतना बकरी के गरियावऽ सन ओकरा से बेसी पोसे वाला के कोसऽ सन. लगभग सब घरन में किच किच शुरू हो गइल. केता लोग के मन इहे किच किच के चलते गांधीओ जी से फाटे लागल. बकरियो बड़ा अजबे होखऽ सन, दूध कम द सन आ बच्चा बेसी. कई गो बकरी त कपड़ो चबा सन आ घर के लोग के सब कपड़ा या त बकरी के मूत से बसा उठे ना त चबवला से फाट जाये. ओह जमाना में फुल पैंट कई बार अइसन लागो जइसन आज के माडल पहिरे ली सन. चारू इयोर से चेंथाइल. खाली मोटिहा के कपड़ा ना चबा सन. हो सकेला गरीबी के प्रति मोह होखो चाहे ऊ सब कपड़ा खादी के होत रहे त ओकरा प्रति आदर भाव होखो. जब छोटकी दुलहिन के सिलिक साड़ी ऊ बकरी चबा के दागदार क देहलस त अइसन ओरिजिनल गारी दिहल गइल कि हर लाइन पर आंखि के आगे बात के फोटो बनि जाउ. ओह दिने हमरा घर के बकरी खेदा गइल आ हीरा फुआ के घर में जा ढुक गइल. तबसे ओकर बंश आहिजे चलऽता आ हीरा फुआ खसि बेंच के पइसा एकट्ठा करऽतारी. धीरे धीरे गांधीवाद छीज गइल आ बकरीवादो खत्म हो गइल. अब ना गाय बा ना बकरी. दूध प्लास्टिक के पाकिट में बिकाता. गांधी जी ना देश के रहले ना कांग्रेस के ऊ इतिहास के पन्ना हो गइले आ बकरी के नाम पर लोग के चिक के दोकान लउके लागल. गांधी जी के नांव बेच के रुपिया कमावे वाला लोग बकरा के काट के खा जा ता. बुझाता कि गांधी जी आदर्शो ओसहीं हो गइल बा.


जयंती पांडेय दिल्ली विश्वविद्यालय से इतिहास में एम.ए. हईं आ कोलकाता, पटना, रांची, भुवनेश्वर से प्रकाशित सन्मार्ग अखबार में भोजपुरी व्यंग्य स्तंभ “लस्टम पस्टम” के नियमित लेखिका हईं. एकरा अलावे कई गो दोसरो पत्र-पत्रिकायन में हिंदी भा अंग्रेजी में आलेख प्रकाशित होत रहेला. बिहार के सिवान जिला के खुदरा गांव के बहू जयंती आजुकाल्हु कोलकाता में रहीलें.

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