महँगी बढ़े में सरकार के कवन दोष

by | Nov 22, 2011 | 1 comment

– जयंती पांडेय

महंगी के बढ़े में सरकार के कवनो दोष नइखे. महंगी के काम हऽ बढ़ल. अगर ऊ ना बढ़ी तऽ केहु ओकरा ना चीन्ही ना पूछी. गांव शहर में रहे वाला हर बेकती आपन एगो पहचान राखेला. महंगी भी इहे रास्ता पर चलेले. महंगी लोगन के अभाव में जीये के आ रहे के सलीका बतावेले. ऊ हमनी के आपन सांस्कृतिक परंपरा से जोड़े ले. सेहत खातिर योग कइला से आ जिम गइला से कहीं बेहतर हऽ , महंगी के प्रति पाबंद भइल. हमनी का इंडियन लोग मक्खीचूसी सभत्तर मसहूर बानी सन. हमनी के कम में जोगाड़ से काम चलावे आवेला.

आपके मालूम होखे के चाहीं कि कइसे हमनी के माई-बाबूजी आपन पेट काट के हमनी के पेट भरल लोग. जहां काम खाली काम चलला भर से चल जाला, उहां निभा ले जाये के चाहीं. लेकिन हमनी का तऽ महंगी पर हो-हल्ला करऽ तानी सन, आंदोलन करऽ तानी सन. सरकार व मंत्रियन के पुतला फूंकऽ रहल बानी सन. ई सब सरासर गलत हऽ. जे बा ओकरा स्वीकार करीं. ओही में गुजारा करीं. अब बेचारी सरकारो का करे. कीमत बढ़ावल ओकर मजबूरी हऽ. ओकर हाथ अंतरराष्ट्रीय दबाव के आगे बंन्हाइल बा. अगर पेट्रोल और डीजल के दाम बढढ़िये गइल त एहमें असमान मुड़ी पर उठा लेवे के जिद का बा? आखिर हमनी का एडजस्टमेंट के फारमूला काहे नइखीं अपनावत सन? हफ्ता में दू दिन ना जाईं अपना गाड़ीं से. गाड़ी के बजाय साइकिल चलाईं. थोड़ा-बहुत पैदल भी चलीं. असल में आपन आदत खराब त हमनिये का कइले बानी सन. हमनी का पैदल चलल बेईज्जती बूझेनी सन. सड़क पर आदमी से जियादा तऽ मोटर बाड़ी सन. का लईका का बड़का सब के आरामदेह सवारी चाहीं. अब जब सभे गाड़िये पर चढ़ी तऽ पेटरउल- डीजल तऽ महंग होखबे करी.

इहां बात बेबात पर सरकार के पुतला फूंकि देता लोग. लेकिन आपन मन के लगाम ना लगाई लोग. का जरूरी बा कि दूनू बेरा खाइल जाउ. एक बेरा खाईं आ दोसरका बेरा बजरंग बली बोल के सुत जाईं, हफ्ता में दू दिन उपवास करीं. देहो ठीक रही आ पेटो. साथे साथ धरमो होई. एक पंथ दू काज एही के कहाला. अब जान जाईं कि हमनी के महंगी के गारी दे तानी सन. हम तऽ कहेब कि महंगाई के धन्यवाद दीं कि एके संगे कईगो काम करे मोका दे ता.

जेतना काम लोग सरकार के कोसे में लगावे ला आ जेतना टाइम सरकार के पुतला फूंके में बरबाद करेला ओतना टाइम में! महंगी पर चिंतन करीं आ ओकर मोकबिला करे के उपाय खोजीं तऽ ओकरा के साधे के कई गो रस्ता निकल आई. ई महंगी फहंगी कुछ ना होला, जान जाई ई अपना भीतर के भ्रम हऽ. जइसे इमली पर चुरइल रहला के भ्रम लईकाईं में होत रहे. हमरा तऽ आजु ले महंगी के दरद ना बुझइल. काहेकि हम सरकार के दरद हम बूझऽ तानी. ओकरा इहे एगो काम बा कि महंगाई घटावे में लागल रहो. अरे भाई सरकार के देश चलावे के बा. भले देश नईखे चलत लेकिन ई तऽ ओही के जादू बा कि सब केहु के देश चलत लउकऽ ता. सरकार के साथ दी सभे. अनशन फनशन से आप सभे क्रांतिकारी बन ना जायेब. ना मंहगी घटी आ ना सरकार हटी. अगर ई हटियो गइल तऽ दोसर आई आ उहो इहे करी.


जयंती पांडेय दिल्ली विश्वविद्यालय से इतिहास में एम.ए. हईं आ कोलकाता, पटना, रांची, भुवनेश्वर से प्रकाशित सन्मार्ग अखबार में भोजपुरी व्यंग्य स्तंभ “लस्टम पस्टम” के नियमित लेखिका हईं. एकरा अलावे कई गो दोसरो पत्र-पत्रिकायन में हिंदी भा अंग्रेजी में आलेख प्रकाशित होत रहेला. बिहार के सिवान जिला के खुदरा गांव के बहू जयंती आजुकाल्हु कोलकाता में रहीलें.

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1 Comment

  1. चंदन कुमार मिश्र

    अन्तिम वाक्य ध्यान देवे लाएक बाS। लोग के सोचे के चाहीं…

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