अभय त्रिपाठी

बनारस, उत्तर प्रदेश

जे आईल बा ओकरा जाये कऽ वक्त आ ही जाला

जे आईल बा ओकरा जाये कऽ वक्त आ ही जाला,
चाहे ना चाहे ओकर आखिरी कलमा पढा ही जाला.

हमरो इहाँ से जाये कऽ आखिरी वक्त आ ही गईऽल,
आखिरी सलाम के बात सोचते दिल दहल गईऽल,
ना केहु से शिकवा बा नाही बा केहू से शिकायत,
फिर भी कुछ कहे खातिर हमरा दे ही दीं इजाजत,
रसोई में दू बरतन के खनखनाहट हो ही जाला,
जे आईल बा....

पउसरा पहुँचल प्यासा के, पानी गंदा देखा गईऽल,
शिकायत पर राजा के आँख में लाली उतर गईऽल,
अच्छा पिये के बा तऽ कहीं अउर से ले के आ जा,
हम इहे पानी पियाईब ना पियबऽ तऽ भागी जा,
साव लोग के पोल खोलला पर बवाल हो ही जाला,
जे आईल बा....

कुछ अइसने हाल राजाजी के लंगर के भी रहे,
बाहर खाये के भीड़ अन्दर तवा खनखनात रहे,
केहू रहे जे तवा के खनखनाहट पहचान गईल,
खाना के के पूछे, उलटे ओकरे माथा फोरा गईल,
बड़ आदमी के छोट मोट गलती सहलो ना जाला,
जे आईल बा....

जाते बानी तऽ आखिरी फसाना भी कहि ए दीं,
जेहर भी जाये के बा ओकर रास्ता चुनि ए लीं,
गलत गलते बा एमा दू राय कबहुँ ना होला,
लंगर में खाये वाला हर आदमी भिखारी ना होला,
लोर चाहे एहर बहे या ओहर, तबाही आ ही जाला,
जे आईल बा....

जे आईल बा ओकरा जाये कऽ वक्त आ ही जाला,
चाहे ना चाहे ओकर आखिरी कलमा पढा ही जाला.