आदमी, अदिमिये लेखा लउके....

डा॰ अशोक द्विवेदी

कहाँ बाटे सुख,
जिनिगी के,
आ चैन जिनिगी में कहाँ बाटे?

खोज रहल बा लोग
नून रोटी से लेले छप्पन भोग में,
लुग्गा-लत्ता से रेशम पशमीना में.
बाकि सुख आ तृप्ति नइखे मिल पावत.
नीमि आ पीपर के छाँहे
जुड़ात रहल होई लोग पहिले,
अब ओईजा आँच लागऽता.

का जाने कवना बैखरी में
छरियाइल लईका अस,
भाग रहल बा सब दुकवना छाँह खातिर.
पलानी से दुतल्ला-तिनतल्ला बनवला का
धुरिया बावग में पता ना कब
केने दो हेरा गइल असल छाँह आ संतोष,
जवना से मिले मन के चैन.

जइसे कवनो जादू कइले होखे
मतिये मरा गइल बा लोगन क.
जइसे कवनो राकस के परान
कवनो ना कवनो चीज में बसत रहे,
लोगन के परान बसल रहऽता
कवनो ना कवनो चीज में!

आखिर का भइल बा
कि क्षुधा नइखे होखत शांत,
भूख लगले रहऽता
भर पेट खइलो पर?
भर सिकम पानि पियलो प
नइखे जुड़ात जीव!
बुझला तृप्ति दोसर चीजु हऽ!
बुझला पवलो के एगो उन्माद होला!!

ढेर से ढेर पवला के हिरिस
आ पवला का बाद उपजल जोम में,
बदलत जा ता सगरी बात-ब्योहार,
चाल ढाल लोगन के.
'बल-बेंवत' आ धन के
अजबे साँठ-गाँठ
कि एही के पावे खातिर, एही के जरुरत
हिरिस अइसन कि
जतने मिलल, ओतने ओकर चाह!

हे विधाता!
ई केहू के ओतने दऽ
जवना से ओकर जियला-जियवला क
लकम मत छूटे.
ओतने दऽ
जेतना से ऊ अदिमी बनल रहे!
कम से कम अतना जरुर होखे कि
ओके आदमी, अदिमिये लेखा लउके!!