गाँव के कहानी (1)

डा॰ अशोक द्विवेदी

आन्ही अस उड़त-उड़ावत समय में
बनल रहे खातिर
कतना आ कबले
अन्हुवाइल भागत रही गाँव ?

हाँफत घिसिरावत
दम उखरि गईल बा.
गोड़ तरुवाइल
धोती लसराइल,
बइरकंटी में नोचाइल
एकदम भकुवाइल,
खड़ा बा तिराहा पर 'गाँव'
हेने जाय कि होने
कि दरिये पर खड़ा रहो
कि लँगड़ात केनियो चल देव ?

असमंजस में
गोरखुल देखो कि फाटल बेवाय
अब न हूब बा न बउसाय
नया नया बदलाव,
कुछ बुझाव, कुछ ना बुझाव !
अधजल गगरी छलकत जाव !

भितरे-भीतर कुछ दुखात,
चिल्हिकत आ टभकत बा,
पुरान लीखि नइखे छूटत
अतना धुनाइल बा कि बकार नइखे फूटत.
अपने लोगन का चलते, आज
ओकर आँख नम बा
जतना ले बदलल बा ऊ,
का उहे ओके डाहे-मुआवे खातिर कम बा ?

विहँसत रहे जवन सरेहि आ सिवान
आज अदकल बा सहमल बा -
ताल-पोखरा सुनसान
दरकत भिहिलात अरार वाली नदी
गुमसुम खरिहान
बाग-बगइचा भा
बँसवारि एकदम भकसावन !
फरे न फुलाय
बलुक हर साल कटाय.

का जनी कवना आँच से
लहकत बतास
बन्हले हहास
हुहुकारत बा
डाह, इरिखा आ खिस में बुताइल
शंका, अविश्वास आ भय से करुवाइल
अइसन बेरा में फेर से, सबका बीच
पैदा करे खअतिर विश्वास आ सनमति
गाँव, केतना पिटवावो आपन मुँह ?
केतना थुरवावो आपन मूड़ी ?
रहेला-रहेला
मुँह बवले कठुवा जाला !