अभाव आ गरीबी पहिलहूँ रहे. दुख-दलिद्दर अइसन कि रगरि के देंहि क चोंइटा छोड़ा देव. लोग आपुस में रोइ-गाइ के जिनिगी बिता लेव, बाकिर मन मइल ना होखे देव. हारल-थाकल जीव के प्रेमे सहारा रहे. धीरज आ बल रहे. आजु एतना तरक्की आ सुबिधा-साधन का बादो लोग अपने में बाझल-हकासल, हहुवाइल, हलकान-परेशान बा. सँगे रोवे-गावे वाला अँजरा-पँजरा लउकते नइखे. अब अदिमी क ना, ओकरा पद-पइसा, चीझ-बतुस आ ताकत क मोल बा. अदिमी के भाव गिरला का पाछा, आदमीयत क गिरावट बा.
खुदगर्जी, लालसा, हिरिस आ डाह-इरिखा जवन ना करावे. लोग मतलबे पर भेंटो-मुलाकात करऽता. दुसरा का खुसी में खुस आ दुख में दुखाए वाली संवेदना बुझला मुवल जातिया. भौतिकी के जटिल जाल आ बढ़त बाजार अदिमी के शरीरी-भोक्ता बना देले बा. परायापन आ संवेदनहीनता अन्तर में अइसन पइसल जाता कि भित्तर क राग-तत्व मुवल जाता. जीवन-रक्षा के सोत कइसे बाँची ? मनुष्य-रूपी बिरिछ के पुलुई ना सोरि क चिन्ता करे क समय आ गइल बा.
हमन में ‘योग’ क सवख जरूर बढ़ल बा, बाकि भोग क रोग जाने नइखे छोड़त. सरलता, सच्चाई, हिरऊ प्रेम, लगाव, सहानुभूति आ सहकार क नाँवें बुताइल जाता. ई सब चीज कवनो बिजुली-पानी, आ गैस, तेल त ह ना, कि सरकार दे दी. खेत-बधार आ धन-दऊलत त ह ना कि अमीरन का कब्जा में बा. ई सब त नैसर्गिक जीवन क देन ह. अनुभव से अरजल-सँवारल जाला. जइसन प्रकृति सिखावेले. जइसन लोक बतावेला. भूख, पियास, नीन लेखा प्रेमो अदिमी क शाश्वत जरूरत बा. फरक अतने बा कि ई ‘हाटे’ ना बिकाय आ किनले ना किनाय. दुनियाँ जानेले कि ई कइल ना जाय, अपरूपी हो जाला.
प्रेम प्रकृति ह. प्रकृति जीवन. ई ऊ धड़कन ह जवन फूल-पतइन में रंग बन के स्पन्दन करेला, नदी, झरना का कल-कल, छल-छल में ध्वनित होला, चिरई-चुरूंग आ भँवरा में राग बन के गुंजित होला, कोयल-पपिहा बन के कूकेला, मोर-मोरनी बनि के नाचेला. प्रेमी त प्रेम में अतना अचेतन हो जाला कि बेसुधी में अपने के भुला जाला.
हृदय के अनुराग के विविध रंग रूप बा. लगाव, प्रीति, मोह, ममता, बात्सल्य, सखा भाव, दया, करूना, छोह प्रेमे का जोरे-जवरे विकसेला. पदारथ रहित त परिभाषा बतावल जाइत. बुझला ई बतवला, सिखवला आ समझवला से पार आ परे बा. प्रेम भइले पर एकर परतीति होला. ई आधा-अधूरा ना, होला त पूरा होला आ अधूरा के पूरा बना देला. ई जोखाये आ नपाये वाला पदारथ ना ह. प्रेम बेहोसी क नाँव ह. एमे आपन होसे कहाँ रहेला कि कवनो ‘कमेन्ट’ करी. होश चेतना से होला. चेतना सोचे-समझे के शाक्ति देले, बुद्धि तर्क-वितर्क करावेला. प्रेम बुद्धि आ चेतना से परे होला. समझदार आ चल्हाँक लोग एही से एकरा के पागलपन कहेला. प्रेम में तनिको चल्हाँकी आ सयानापन ना चले. बस साफ-सोझ डहर बा, बाकि तलवार के धार अइसन प्रेम एही…. “तलवार के धार प’ धावनो है.”
दुनियाँ क सगरी वैभव आ सरग-सुख के ठेंगा देखावे क कूबत खलिसा प्रेमे में बा. समझदार आ ज्ञानी लोगन का फतवा का कारन एकर डिवैलुएशन हो गइल. ‘प्रेम’ प बोललो-बतियावल दुलम हो गइल. मनुष्य का ‘निजता’ आ ‘स्व’ के विस्तार देबे वाला प्रेम के फरियाद भौतिक-द्वन्द्व का अदालत में खारिज एसे भइल कि लोग एकरा के देह उपभोग से जोर के देखल, आत्मा से ना. प्रेम, प्रतिदान ना माँगे, कीमत ना वसूले, ऊ अपना के उबिछ के देबे जानेला, त्याग आ बलिदानो में ना हिचकिचाला. मर-मिट जाला बाकि ‘प्रेम’ का पवित्रता प आँच’ ना आवे देला.
गनीमत बा कि ‘लोक’ आ ‘लोक-अभिव्यक्ति में प्रेम क सुर-ताल अबही जीयत बा. उहाँ प्रेम क गीत अब्वो गवाता आ प्रेम क कहनी एहू घरी कहल जाता. हमनिए का ना, दुनिया का हर ‘लोक’ में अब्बो ई मगन होके कहल-सुनल जाता. माता अब्बो संतान का प्रेम में पगलाइल मिलेले, पिता आ दादा-दादी के नेहे-मोह में भूखि-पियास गायब होले. रीझन-खीझन आ कहासुनी का बादो दाम्पत्य में एक-दुसरा खातिर बेकली आ तड़प बनल बा. दुसरा का खेयाल में आपन सुधि खोवे वाला लोक-भाव अजुओ देखे के मिलिये जाला. मनुष्य-जीवन के सहेजे-सँवारे वाला एह प्रेम के अकथ कहानी बा. बस देखे वाली आँखि चाहीं आ ओकर सम्मान करे वाला हृदय.
विश्व-साहित्य लेखा भोजपुरियो के साहित्य ‘प्रेम’ का बहुरंगी भाव-भंगिमा के उकेरे आ कहे क भरपूर उतजोग कइले बा. हमरा कुछ सहयोगी लोगन क विचार रहे कि प्रेमपरक भोजपुरी कहानी अपना खास भाषिक तेवर आ भाव-भंगिमा का साथे एक्के जगह पढ़े के मिल जाव, ईहे सोच के ‘पाती’ आपन 75वाँ अंक ‘प्रेम-कथा-विशेषांक’ का रूप में पाठकन का आगा परोसे क कोसिस कइलस. पछिला साल एही फगुवा का समय ‘प्रेम-कविता विशेषांक’ देबे क इहे मकसद रहे कि हमहन क कवि-कथाकार साहित्य-सिरजन में कवनो बान्ह-छान्ह, पगहा आ ‘फतवा’ के तरजीह ना देके, मनुष्य का मनुष्यता के जियावे-जोगावे खातिर अपना रचना कर्म में स्वतंत्र आ क्रियाशील बाड़न.
‘पाती’ का ए अंक में ‘प्रेम’ आ नेह-छोह के बहुरंगी कहानी बाड़ी स. परम्परा बा, विकास बा आ विकासमान वर्तमानो बा. हमार कोसिस इहे बा कि पुरान से लेके नया तक, सब एक सँगे पढ़ल-समझल जाव. हर कथाकार अपना गढ़ल पात्र आ चरित्र में ‘प्रेम’ के दैहिक आ आत्मिक संरूप चित्रित करे क उतजोग कइले बा-कहीं सांकेतिक, कहीं वर्णनात्मक, कहीं प्रतीकात्मक ढंग से. कथा के ताना-बाना में, सुभाविक रंग आ रूप का जियतार अभिव्यक्ति का साथ, ‘प्रेम’ के जियतारे उघारे क अन्तर्मुखी आ बहिर्मुखी द्वन्द्वो एह कहानियन में देखे के मिली. एह कथा-अंक में प्रकाशित भोजपुरी कहानी के कुछ धरोहरो बा.
ईश्वर चन्द्र सिन्हा के बनारसी ठसक आ ठाट वाली चर्चित कहानी ‘भैरवी क साज’ का साथे. ‘बैरिन बँसुरिया’ के यशस्वी लेखक गिरिजाशंकर राय आ रामवृक्ष राय ‘विधुर’ के कहानी बाड़ी स. बिन्दु सिन्हा के कहानी बा. कमलाकर त्रिपाठी के अवधी क पुट लिहले मरम छुवे वाली कहानी ‘कबहुँ न नाथ नींद भर सोयो बा. साथ में भोजपुरी क चर्चित साहित्यकार-कथाकार लोगन क बीसन गो कहानी बाड़ी स. ‘प्रेम के सुभाव’ में डा॰ रामदेव शुक्ल जी मर्यादित प्रेम का जरिए पुरान आ नया पीढ़ी के द्वन्द्व सझुरावत, ‘संगति’ बइठावत बाड़न. प्रेमशीला जी के कहानी ‘जहँ तुहुँ अइतऽ’ में ‘प्रेम’ महतारी आ चाचा का सान्निध्य में सयान होत दाम्पत्य में गइल नारी के सोझा प्रश्न बन के खड़ा बा. नारी चेतना आ ओकरा मूक जागरन का साथ अन्तर्द्वन्द्व पढ़वइया का आगा कतने सवाल छोड़ जाता. अनिरूद्ध त्रिपाठी ‘अशेष’ आ कन्हैया सिंह ‘सदय’ का कथा में वैचारिक भावभूमि ‘प्रेम’ का सँगहीं तइयार होत बा. अइसहीं वरमेश्वर सिंह, अयोध्या प्रसाद उपाध्याय जी, विजयानन्द तिवारी, विष्णुदेव तिवारी, तैयब हुसेन ‘पीड़ित’, प्रकाश उदय आदि लोगन का कहानियन से सजल ई अंक संग्रह जोग बन गइल बा. तुषारकान्त उपाघ्याय प्रेम का ‘अकथ’ के संवेदना से जोड़ देले बाडे़. चरित्र के चटक रंग आ मनोविनोद से भरल प्रकाश-उदय अपना कहानी में गंभीरता के परत के तूरत प्रेम के छिपल-सांकेतिक स्पर्श करावत बाड़े. ‘कबहुँ न नाथ नींद भर सोयो’ आ ‘अकथ’ में मूक प्रेम क मरम छुवे वाला चित्रण बा. कहीं दाम्पत्य के त कहीं प्रेम का निबाह खातिर मूक त्याग के संकेत बा. एह कहानियन के पढ़त खा, पढ़वइया के ओही भाव-भूमि पर उतरे के परी, जवना भूमि पर कहानी चल रहल बाड़ी सन. हम ‘पाती’ का मंच प’ भोजपुरी का हर छोट-बड़ कथाकार के आदर देत बानी.
होली आ फाग क खुमार उतरे, एकरा पहिलहीं नया संवत् चढ़ि गइल बा. ई नया साल सउँसे-भारत खातिर शुभ आ मंगलकारी होखे. सबके हमार प्रेम-पगल शुभकामना.
– अशोक द्विवेदी
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