सरधा के अँजुरी : ‘गँवई गंध गुलाब’ के ‘मनबोध मास्टर’

– भगवती प्रसाद द्विवेदी


आजु जब खेती-किसानी में जीव-जाँगर आ जिनिगी खपावेवाला गरीब किसान खुदकुशी करे खातिर अलचार हो जात बाड़न, त एह निठुर समय में एगो अइसन ऋषि रचनाकार के बरबस इयाद आवत बा, जे ताजिनिगी गाँव के तंगहाल मजूर-किसान के जरत-बरत मुद्दन के अपना सम्पूर्ण रचनाशीलता के मार्फत जियतार ढंग से उठावत रहल आ जे सही माने में ‘ग्राम देवता’ कहाए के हकदार रहे। ऊ अप्रितम साधक हिन्दी आ अपना महतारी भाषा भोजपुरी के गौरव-स्तम्भ रहे आ लमहर जिनिगी जीयत आखिरकार बानबे बारिस दू दिन के उमिर गुजरला का बाद बाइस नवंबर, 2016 के मंगर का दिने काशी में पंचत्तव में विलीन हो गइल। गाँव आ गँवई जन खातिर लेखन करे, जीए वाला ऊ अमर विवेकी साहित्यकार रहलीं डॉ. विवेकी राय। उहाँ के ना खाली प्रेमचंद-रेणु के परिपाटी के आगा बढ़ावत ग्राम्य लेखन के एगो अभिनव आयाम दिहलीं, बलुक कविता, कहानी, उपन्यास, ललित निबंध, रिपोर्ताज, डायरी जइसन विधन के इतिहास रचेवाली कृतियन के जरिए पूर्वांचल (पूरवी उत्तर प्रदेश) के मौजूदा गँवई जिनिगी के तल्ख जमीनी हकीकत से रू-ब-रू करावत सउँसे दुनिया के अभिभूतो कइलीं।

बाबूजी शिवपाल राय आ माई जविता कुँवर के लाडला विवेकी राय जी के जनम अपना निनियाउर भरौली (बलिया) में 19 नवंबर, 1923 के भइल आ सोनवानी (गाजीपुर) के करइल माटी में होश सम्हारत गाँव के पहिल मनई बनलन, जे उर्दू मिडिल पास कइल। करइल के करियई माटी के ई खासियत होला कि गील होके गोड़ में लपिटाई, त छोड़वले ना छूटी आ कड़ेर होई, त सुइया पहाड़ बनि जाई। बुझिला एही से पूर्वांचल त छोड़वले के गँवई लोग बड़ा पितमरू, जीवट के होला आ नेह-नाता से भिंजला पर आल्हर बुतरू नियर करेजा में सटल, मोलायम। विेवेकी राय जी के व्यक्तित्वों किछु ओइसने रहे। ताजिनगी तमाम झंझावात झेलत चट्टान नियर अडिग रहलीं। दुर्घटनाग्रस्त जवान कमासुत बेटा के लोथ कान्ह पर ढोवला से बढ़िके बाप खातिर भला अउर दुख का हो सकेला ! बाकिर रचनाशीलता के अलम से आफत-विपत उहाँ के शख्सियत के माँजत चमकावत चलि गइल। दोसरा ओर, अतना सहज-सरल सुभाव कि छोट-से छोट अदिमियो का सोझा उहाँ के अउर छोट बनि जाईं। फेरू त अइसन बुझइबे ना करे कि भेंट करे वाला ओतना महान शख्सियत से मिलि रहल बा। अइसन विरल व्यक्तित्व करइल के कुदरती माटिए में नू भेंटा सकेला !

विवेकी राय जी आपन सिरिजना खुदे कइलीं। ‘सेल्फ मेड’ रहलीं उहाँ के। अभाव में जनम, कमे उमिर में पिता के साया सर से उठि गइल। फेरू त मिडिले के बाद प्राइमरी स्कूल के अध्यापकी शुरू हो गइल। मास्टरी करत, घर-परिवार सम्हारत स्वाध्याय का बल-बूता पर हाईस्कूल, इण्टरमीडिएट, बी.ए., साहित्यरत्न, एम.ए. तक के डिग्री आ काशी विद्यापीठ, वाराणसी से डॉक्टरेट (पी-एच.डी.) के उपाधि पा के पोस्ट ग्रेजुढट कॉलेज, गाजीपुर के प्राध्यापकी। जिनिगी के जद्दोजहद के काँट-कूस का बीचे गुलाब-अस फुलाए-मुसुकाए वाला विवेकी राय के बड़ी बाग, गाजीपुर में बनल घर के नाँवों रहे- ‘गँवई गंध गुलाब’। आगा चलिके घर तक जाए वाली सड़क के नामकरण हो गइल- डॉ. विवेकी राय मार्ग। अब ले उहाँ के विपुल साहित्य पर विभिन्न विश्वविद्यालयन से साठ गो छात्र शोध करि चुकल बाड़न। आखिर कतना लोग के ई सुख नसीब हो पावेला ! ओह में एगो अइसना निष्काम करमजोगी रचनाकार के, जे ताजिनिगी गाँव सोनवानी आ गाजीपुर छोड़ि के कतहीं गइबे ना कइल।

राय साहब के लेखन के सिरीगनेश कविता से भइल रहे जवना घ ऊ मिडिल स्कूल के विद्यार्थी रहलन। फेरू त नाँव धरा गइल ‘कवि जी’ आ गाँव’लोक से जुड़ि के ना सिरिफ कविता-संग्रह ‘अर्गला,’ ‘रजनीगंध’, ‘लौटकर देख्ना’, ‘यह जो है गायत्री’, ‘दीक्षा’ शीर्षक से प्रकाशित भइलन स, बलुक एगो जागरूक मंच ‘अंतर-ग्रामीण सुहृद-साहित्य-गोष्ठी’ बना के गाजीपुर’बलिया के तमाम गाँवन में साहित्यिक आयोजन कइके आमजन के सँगहीं नवही साहित्यकारन के जोड़े में अहम भूमि को निबाहल गइल। दू दशक ले ई सिलसिला चलल। भोजपुरी में 1984 में छपल कविता-संग्रह ‘जनता के पोखरा’ खूब चरचा में रहल।

गद्य लेखन के विधिवत शुरूआत 1945 में भइल रहे, जब राय साहब के पहिल कहानी ‘पाकिस्तानी’ तब के मशहूर दैनिक ‘आज’ में प्रकाशित होके चरचा में बनल रहल। उहाँ के शोहरत में चार चान लगवले रहे ‘आज’ में प्रकाशित रिपोर्ताज, रेखाचित्र ललित निबंध पढ़नहिारन के अभिभूत कऽ देत रहे। तब, भोजपुरी में मुक्ततेश्वर तिवारी ‘बेसुध’ के ‘चतुरी चाचा की चटपटी चिट्ठी’ आ हिन्दी में राय साहब के ‘मनबोध मास्टर की डायरी’ दैनिक आज’ के खास पेशकश होत रहे। ओह समय में विवेकी राय जी ‘आज’ (बनारस) आ ‘अमृत बाजार पत्रिका’ (इलाहाबाद) के प्रतिनिधियो का रूप में काम करीं। बाद में ‘रविवार’ (कोलकाता), ‘शिखरवार्ता’ (भोपाल), ‘ज्योत्सवना’ (पटना) में गाँव से जुड़ल स्तम्भ लिखलीं। ‘जनसता’ (मुंबई) के भोजपुरी स्तम्भ ‘अड़बड़ भैया’ यूपी, बिहार के पाठकन में बहुते लोकप्रिय भइल रहे। मनबोध मास्टर की डायरी’ त 1957 से 1970 ले बिना नागा लगातार छपत रहल।

डॉ. विवेकी राय के शोधी आ समालोचक नजरियो खास तौर से रेघरियावे जोग रहे। अपना समय के चर्चित साहित्यिक पत्रिका ‘कल्पना’ (हैदाराबाद) के ऐतिहासिक अवदान पर उहाँ के ‘कल्पना और हिन्दी साहित्य’ शीर्षक से मूल्यांकनपरक पुस्तक लिखलीं। गाजीपुर पर केन्द्रित ‘गाजीपुर संवाद’ किताबो चरचा में रहल। ‘आचार्य रामचन्द्र शुक्लः रचना और दृष्टि’ आलोचनात्मक ग्रंथ रहे । ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ (1942) के पचासवीं सालगिरह पर लिखाइल ‘श्वेतपत्र’ ओइसे त औपन्यासिक शैली में संस्मरणात्मक ढंग से रचल कृति रहे, बाकिर सही माने में ऊ सन् बेयालिस के क्रांति के तीन नामी जिलन – बलिया, गाजीपुर, भोजपुर – के प्रामाणिक ऐतिहासिक दस्तावेज रहे। हिन्दी-भोजपुरी के दर्जन-भर अइसनो किताब अइली स, जवनन में राय साहब अपना संपादन-कला के अद्भुत छाप छोड़ले रहलीं। इन्हनीं में ‘भोजपुरी निबंध कुंज,’ ‘वंदेमातरम्’, ‘पवहारी बाबा’ वगैरह खास रहली स।

बाकिर गुणात्मक आ परिमाणात्मक दृष्टि से रचाइल गाँव-केन्द्रित अनमोल कृति विवेकी राय के विलक्षण ग्राम्य कथा शिल्पी बनवली स। ओइसन कृतियन में ललित निबंध, रिपोर्ताज, डायरी, संस्मरण, कहानी, उपन्यास विधा के सत्तर पचहत्तर गो किताब बाड़ी स। उपन्यासन में ‘बबूल’, ‘पुरूष पुराण’, ‘लोकऋण’, ‘सोनामाटी’, ‘देहरी के पार’, समर शेष है’ ‘मंगल भवन’ नमामि ग्रामम्’ इतिहास रचि चुकल बाड़न स। ‘जीवन परिधि’, ‘नयी कोयल’, गूँगा जहाज’, ‘बेटे की बिक्री’, ‘कालातीत’, ‘चित्रकूट के घाट पर’, विवेकी राय की श्रेष्ठ कहानियाँ’ वगैरह यादगार कहानी-संग्रह बाड़न स। ललित निबंध, डायरी, रिपोर्ताज, व्यंग विधा के अमर कृति बाड़ी स- ‘फिर बैतलवा डार पर’, ‘गँवई गंध गुलाब’, ‘जुलूस रूका है’, मनबोध मास्टर की डायरी’, ‘नया गाँवनामा’, आम रास्ता नहीं है’, ‘जगत तपोवन सो कियो,’ मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएँ’ वगैरह।

‘सोनामाटी’ जइसन क्लॉसिक उपन्यास के तुलना ‘गोदान’ आ मैला आँचल’ से कइल रहे। नामी-गिरामी समालोचक डॉ. नामवर सिंह के कहनाम रहे – ”डॉ. विवेकी राय प्रेमचंद और रेणु की परंपरा में ठहरते हैं। गाँव और उसका जीवन इनके साहित्य का जीवन स्रोत रहा है। गाँव-कथा का जब भी उल्लेख किया जाएगा, विवेकी राय जी हमेशा स्मरणीय और प्रासंगिक रहेंगे… विवेकी राय के चर्चित उपन्यास ‘सोनामाटी’ को मैं ‘गोदान’ और ‘मैला आँचल’ जैसे ग्रामीण उपन्यासों की परंपरा की महत्वपूर्ण उपलब्धि मानता हूं। उन्होंने अपने जनपद की ‘करइल माटी’ को अपनी कथा में सोना बनाने को श्रमसाध्य एवं कलापूर्ण उद्योग किया है। जनपदीय मिट्टी का सोंधापन उनके कथा साहित्य में फैला हुआ है।…प्रेमचंद के कथ्य गँवई सच का डॉ. विवेकी राय के साहित्य में पूरी तरह साक्षात दर्शन किया जा सकता है, जहाँ स्वातंत्र्योत्तर भारतीय गाँवों का सच चित्रित तो है ही, साथ ही नवसृजनता की सोच को पर्याप्त प्रोत्साहन तथा प्रगतिशील सामाजिक ढाँचे को मजबूत करने का प्रयास भी मुखर है…. उन्होंने शहर में रहकर साहित्य में प्रयुक्त गँवईपन को बचाने-बढ़ाने तथा उन्हें आम लोगों तक पहुँचाने का नया अस्त्र खोज निकाला था। नई और पारंपरिक दृष्टि से एक साथ तत्कालीन गाँवों को देखने का तरीका डॉ. राय को खूब मालूम था।“ डॉ. प्रभाकर श्रोत्रीय ‘सोनामाटी’ के कृषि संस्कृति के महाकाव्यत्मक दस्तावेज मनले रहली विवेकी राय जी के एह बात के बखूबी एहसास रहे कि हिन्दी में उहाँ के प्रसिद्धि में भोजपुरी के माटी, मुहावरा, खाँटी शब्दन आलोक संस्कृति के अहम भूमिका रहल बा। एह से उहाँ के महतारी भाषा से नेह-नाता ताजिनिगी अटूट बनवले रखलीं आ कई गो अनमोल पोथियन के सिरिजना कइलीं। ‘भोजपुरी कथा साहित्य के विकास’ (1982) जहवाँ साहित्येतिहास आ आलोचना के किताब रहे, उहँवें ‘भोजपुरी साहित्य : प्रगति की पहचान’ (2002) निबंध-भाषण के। ‘ओझइती’ (1980) ‘गंगा यमुना सरस्वती’ (1992), ‘कथुली गाँव’ (2000) आ ‘अमंगलहारी’ (1998) कथासाहित्य के नायाब कृति बाड़ी स। ‘गंगा यमुना सरस्वती’ में कहानी-निबंध-संस्मरण के नायाब संगम बा। ‘अमंगलहारी’ जहवाँ गँवई जिनिगी के भारी-भरकम औपन्यासिक कृति बा, उहँवें ‘कथुली गाँव’ छोट-छोट लोककथन के चुटीला संग्रह बा। ‘राम झरोखा बइठि के’ (1994) के वृतचित्र-निबंध के लालित्य देखते बनेला। ओइसे त भोजपुरी के पहिल निबंध ललित निबंध का रूप में 1948 में ‘भोजपुरी’ पत्रिका में छपल ‘पानी’ रहे, निबंधकार रहलीं महेन्द्र शास्त्री। बाकिर ललित निबंध के पहिलकी किताब आइल ‘के कहल चुनरी रंगा ल’ (1968) आ ओकर निबंधकार रहलीं डॉ. विवेकी राय जी। एह एकल संगह का प्रकाशन से भोजपुरी निबंध ‘एक से एकइस’ हो गइल रहे।

डॉ. विवेकी राय के ख्याति गँवई उपन्यासकार आ कथाकार का रूप में सर्वाधिक रहल बा, बाकिर उहाँ के निबंधकार के पलड़ा कम भारी नइखे रहल। उहाँ के पहिल ललित निबंध-संगह ‘के कहल चुनरी रँगा ल’ निबंध साहित्य के अनमोल निधि का रूपमें रेघरियावल जाला। एक संग्रह में किसिम-किसिम के एकइस गो निबंध संग्रहीत बाड़न स। शीर्षक निबंध ‘के कहल चुनरी रँगा ल’ के भावात्मक निबंध का कोटि में राखल जा सकेला। ‘शब्दन के भोजपुरिया लजा मत’ अइसन महत्वपूर्ण निबंध बा, जवना में विचार के प्रधानता बा। ‘भोजपुरी साहित्य’ के समीक्षात्मक निबंध का श्रेणी में राखल जा सकेला। ‘हुक्का हरि क लाड़िलो’ में राय साहब के कथाकार रूप के दर्शन होत बा। संग्रह के वैविध्यपूर्ण निबंध के पढ़ला-परखला क बाद डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय आ पं. गणेश चौबे के स्पष्ट कहनाम बा कि हिन्दी गद्य-निबंध का क्षेत्र में जवन स्थान पं. बालकृष्ण भट्ट जी के बा, ऊहे भोजपुरी निबंध का हलका में डॉ. विवेकी राय जी के बा।

डॉ. राय के निबंधन में गँवई जिनिगी के जीवंत छटा आ भाषा के कलात्मकता देखते बनत बा। ‘के कहल चुनरी रँगा ल’ निबंध के ई पाँती देखीं- ”अइसन जनात बा कि इहवें जमुना क किनारा बा, इहँवें कन्हैया क बंसी बाजति बा। इहँवे कुंज-गली के छेड़छाड़ होति बा। खेत में कृष्ण बाड़न, खेत में राधा। कहाँ से ई शोभा आइल? खेते में जिनिगी आ खेते में जवानी। बनिहारिन लोगन से के कहल कि बोझा माथ पर उठा के जमुनापारी पाड़ी नियर माकत चलऽ जा। के कहल कि चमक-चमक के, झमक-झमक के, उचकि-उचकि के लपकि-लपकि के, देहि भाँजत गेना नियर उछलत चउए पर चलऽ जा।“

”राहे-राहे रासलीला, खेते-खेते वृंदावन…… ई फागुन के महीना, ई खेत, ई खरिहान, ई कटिया, ई धूप, ई बसंती चोली, ई गुलाबी चुनरी, मस्त चाल…… अजी, धनिया से के कहल कि अब चुनरी रँगा ल।“ तबे नू एह आ अइसन कलम के जादूगरी पर चकित होत डॉ. रामप्रवेश शास्त्री के लिखे के पड़ल – ”विवेकी राय जी के चुनरी के रंग, बिनावट, कारीगरी के जवन भी संज्ञा अच्छा लागे, दिहला में कवनो हरज ना बा, लेकिन अइसन कला के पटतर दिहल कठिन होला। जवन नित नया बा, ओके पुरान बटखरा से वजन कइले अतने लाभ हो सकेला कि पता चलि जाई कि हमरा जानकारी के कसौटी में कतना पर ई अधिका उतरल बा।“

डॉ. अनिल कुमार आंजनेय एह कृति के भोजपुरी अंचल के दरपन बतावत कहले रहलीं- ”के कहल चुनरी रँगा ल’ भोजपुरी अंचल के दर्पण ह। जेके भोजपुरी जिनिगी में, अंचल में गहराई तक पइठे के बा, ओके ई समीक्ष्य पुस्तक पढ़ल बहुते आवश्यक बा। ई पुस्तक के गहरे पैठ अंतर्दृष्टि के साक्षी ह।“

आंजनेय जी के एह कहनाम से सहमति जतावत चंद्रशेखर तिवारी लिखले बाड़न- ”एह संग्रह के पढ़िके ई कहल जा सकेला कि डॉ. विवेकी राय जी अउरी साहित्यकारन खानी कागद की लेखी ना कहिके महात्मा कबीर का तरह ‘आँखिन के देखी’ कहले बाड़न, जवना से उनकर निबंध पाठक पर आपन एगो विशिष्ट छाप छोड़े में सफल भइल बाड़न स। एह पुस्तक के प्रकाशन निश्चित रूप से भोजपुरी साहित्य के ललित निबंधन का इतिहास में एगो महत्वपूर्ण घटना ह।“

अपना भाषाई कौशल, व्यंगात्मकता आ रचनात्मक दक्षता के बदउलत राय साहब के निबंध एह विधा के विकास-समृद्धि के दिसाईं मील के पाथर साबित भइलन स। एह संबंध में डॉ. जया पाण्डेय के साफ-साफ विचार बा- ”विवेकी राय जी के कुल्हि निबंध शुरू से आखिर ले व्यक्ति-व्यंजकता का रंग में रँगाइल बाड़े सन। कतहीं-कतहीं प्रगीतात्मक काव्य के आनंद आवता। दोसर विशेषता बा लेखक के व्यंग्य-विनोद के प्रवृत्ति। कवनो भाषा के गद्य साहित्य जतने समृद्ध होई, ऊ भाषा ओतने विकसित मान जाले। विवेकी राय के तमाम निबंध विकासमान बोली के भाषा के प्रौढ़ता प्रदान कइलन स।“

डॉ. विवेकी राय के हिन्दी-भोजपुरी के कृतित्वे-भर आंचलिक ना रहे, उहाँ के शख्सियतो एड़ी से चोटी ले आंचलिकता से लैस रहे- सहनशीलता आ जीवट से लबालब भइल। तबे नू, अढ़ाई दशक पहिले हृदयाघात के हरु पटे त विजयी भइलीं। सतरह साल पहिले जब पक्षाघात के शिकार दहिना अलँग कहला में ना रहल, त बायाँ हाथ से लिखे के सिलसिला शुरू कऽ दिहलीं। बाकिर एह बेर उहाँ के मउवत के चुनौती कबूल ना कऽ पवलीं आ बाबा विश्वनाथ के नगरी काशी के अस्पताल में गंगा मइया के गोदी में आखिरी साँस लिहलीं। अतिशय सज्जनता आ साधुता के प्रतिमूर्ति, गँवई जिनिगी के अद्भुत चितेरा, गँवई गंध गुलाब’ से साहित्य-वाटिका के गमगमावे वाला ‘मनबोध मास्टर’ के हमार अशेष प्रणामांजलि !

शकुंतला भवन,
सीताशरण लेन,
मीणापुर,
पोस्ट बॉक्स 115, पटना’

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One thought on “सरधा के अँजुरी : ‘गँवई गंध गुलाब’ के ‘मनबोध मास्टर’”

  1. बहुते नीक लागल डॉ. विवेकी राय के जीवनी पढ़ के। भगवती प्रसाद द्विवेदी जी के बहुत -बहुत धन्यवाद। हमहुँ सारधा के अंजुरी से श्रधांजलि देत बानी.. जय -जय हो। .। ।

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