लोक कवि अब गाते नहीं – ६

(दयानंद पाण्डेय के लिखल आ प्रकाशित हिन्दी उपन्यास के भोजपुरी अनुवाद)

पँचवा कड़ी में रउरा पढ़ले रहीं कि
लोक कवि के तरह अपना ग्रुप का लड़िकियन का साथे बेवहार करत रहले. पतन का राह पर गँवे गँवे छिछिलात बिछिलात गिरल जात रहले. उनका कुण्ठो के दर्शन हो चुकल बा रउरा.
अब ओकरा से आगे पढ़ीं …..


एह बीच चेयरमैन साहब का सौजन्य से लोक कवि के परिचय एगो पत्रकार से हो गइल. पत्रकार जाति के ठाकुर रहे आ लोक कवि के पड़ोसी जिला के रहवईया. लोक कवि के गाना के रसियो रहे. राजनीतिक हलका आ ब्यूरोक्रेसी में ओकर निकहा पइसार रहे. पहिले त लोककवि ओह पत्रकार से बतियावे में हिचकिचासु. संकोच से ना डर से. कि का जाने उनुको बारे में कुछ अंट-शंट लिख देव त ! आ ऊ लिखबो कइलसि एगो लेख उनुका बारे में. उहो दिल्ली के एगो अखबार में जवना के ऊ खबरची रहुवे. बाकिर लोक कवि जइसन कुछ अंट-शंट लिखला से डेरात रहले तइसन ना. ओह लेख का बाद लोक कवि के डर गँवे-गँवे मेटाये लागल. फेर त लोक कवि आ ओह पत्रकार में अकसरहाँ छनाये लागल. जाम से जाम टकराये लागल. अतना कि दुनु “हम प्याला, हमनिवाला” बन गइले. जल्दिये दुनु एक दोसरा के साधहु लगले. पत्रकार के “मनोरंजन” आ शराब के एगो ठिकाना भेंटा गइल रहे आ लोक कवि के मिल गइल रहे सम्मान आ प्रचार के द्रोपदी जीते के एगो कुशल औजार. दुनु एक दोसरा के पूरक बन बाकायदा “गिव एंड टेक” के सही साबित करे लागल रहले.

लोक कवि पत्रकार के रोज भरपेट शराब पियावल करसु आ कई बेर ई दुनु सबेरही से शुरु हो जाव लोग. अइसे जइसे कि बेड टी ले रहल होखे लोग. त पत्रकार लोक कवि खातिर अकसर छोट मोट सरकारी कार्यक्रमन से ले के प्राइवेट प्रोग्रामन तक के पुल बनत रहुवे. पत्रकार उनुका सरकारी कार्यक्रमन के फीसो ढेरे बढ़वा दिहलसि ब्यूरोक्रेसी पर जोर डाल के. अतने ना, बाद में जब पिछड़ी जाति के एगो नेता मुख्यमंत्री बनलन त पत्रकार अपना जान-पहिचान का बल पर ओहिजो लोक कवि के एंट्री करवा दिहलसि. लोक कवि खुदहु पिछड़ी जाति के रहले आ मुख्योमंत्री पिछड़ा जाति के. से दुनु के ट्यूनिंग अतना बेसी जुड़ गइल कि लोक कवि के पहिचान मुख्यमंत्री के उपजाति वाला बने लागल. तब जबकि लोक कवि ओह जाति के रहले ना. लेकिन चूंकि ऊ पहिलही से अपना नाम का आगा आपन सरनेम ना लिखत रहले, से मुख्यमंत्री वाला सरनेम जब उनुका नाम का आगा लागे लागल त केहू के उजूर ना भइल. उजूर जेकरा होखल चाहत रहे ऊ लोक कविए रहलन बाकिर उनुका कवनो उजूर ना रहे. गाहे-बगाहे उनुकर सरनेम जाने वाला केहू उनुका के टोके कि, “का भाई, यादव कब से हो गइलऽ ?” त लोक कवि हँस के बात टार देसु. टार एहसे देसु कि ऊ यादव ना होइयो के “यादव” के भँजावत रहलन. यादव मुख्यमंत्री के करीबी होखला के सुख लूटत रहले. अतने ना यादवो समाज में अब लोके कवि के बोलहटा होखल करे अधिकतर कार्यक्रमन में. आ बैनर, पोस्टरन पर लोक कवि के नाम का साथे यादवो ओही तरह टहकार लिखल रहत रहे. यादव समाज में लोक कवि खातिर एगो भावुकता भरल अपनापन उमड़े लागल रहे. यादव समाज के कर्मचारी, पुलिस वाले त आके गोड़ छूवें आ छाती फूला के कहें कि, “अपने त हमनी के बिरादरी के नाम रोशन कर दिहनी.” जबाब में लोक कवि बहुते विनम्र भाव से मुसकिया बस देसु. यादव समाज के बहुते अफसरानो लोक कवि के ओही भावुक आँखिन देखसु आ उनुकर हर संभव मदद करसु, उनकर काम करवा देसु.

कुछुए दिन में लोक कवि के रुतबा अतना बढ़ गइल कि ऊ तमाम तरह के लोगन के मुख्यमंत्री से भेंट करवावे के पुल बन गइलन. छुटभईया नेता, अफसर, ठेकेदार आ इहाँ तकले कि यादवो समाज के लोग मुख्यमंत्री से भेंट करे खातिर, मुख्यमंत्री से काम करवावे खातिर लोक कवि के आपन जोगाड़ बना लिहले. अफसरन के पोस्टिंग, ठेकेदारन के ठीका त ऊ दिलवाइये देसु, कुछ नेता लोग के चुनाव में पार्टी के टिकटो दिलवावे के ऊ भरोसा देबे लगले. आ जाहिर बा कि ई सब कुछ लोक कवि के बुद्धि भा बेंवत से बहरी के रहे. परदा के बाहर ई सब जरुर लोक कवि करत रहले बाकिर परदा का पाछा से त उनुका पड़ोसी जिला के ऊ पत्रकार रहे जवना के चेयरमैन साहब लोक कवि से भेंट करवले रहले. आ ई सब कइलो पर लोक कवि वास्तव में मुख्यमंत्री का ओतना करीब ना हो पावल रहले जतना कि उनुका बारे में हल्ला हो गइल रहे. असल में ई सब करके मुख्यमंत्री के बेसी करीब ऊ पत्रकारे भइल रहे.

लोक कवि त बस मुखौटा भर बन के रह गइल रहलन.

इहे मुख्यमंत्री सगरी विधा के कलाकारन में आपन पैठ बनावे खातिर, ओह लोग के उपकृत करे खातिर एगो नया लखटकिया सम्मान के एलान कइलन जवना में दू, पाँच आ पचास लाख तक के नकद इनाम तक के व्यवस्था रहे. इहो प्रावधान राखल गइल रहे कि संबंधित कलाकार के गृह जनपद भा जहवों ओकरा के सम्मानित कइल जाव ओहिजा के कवनो सड़क के नाम ओह कलाकार का नाम पर राखल जाव. एह सम्मान से कई गो नामी-गिरामी फिल्मी कलाकार, निर्देशक, अभिनेता, गायक त नवाजले गइले एगो सुपर स्टार के अपना जिला में ले जा के मुख्यमंत्री उनुका के पचास लाख के पुरस्कार से सम्मानितो कइले. एह सम्मान समारोह में लोको कवि आपन कार्यक्रम पेश कइले. उनुकर एगो गाना “हीरो बंबे वाला लमका झूठ बोलेला” सबका पसन्द आइल आ उनुकर खूबे वाह-वाह भइल.

बाकिर लोक कवि खुश ना रहले.

लोक कवि के एह बात के गम रहे कि ऊ मुख्यमंत्री के करीबी मानल जाले, उनुका बिरादरी के नाहियो हो के उनुका बिरादरी के मानल जाले आ एहूले बड़हन बात तई रहे कि ऊ कलाकारो खराब ना रहले. मुख्य मंत्री के बहुते सभा लोक कवि के गायन बिना शुरु ना होखल करे. तबहियो ऊ एह लखटकिया सम्मान से वंचित रहले. तब जबकि एगो मशहूर फिल्म निर्देशक त मुख्यमंत्री के बाकायदा चिट्ठी लिख के भेजलसि कि फलां तारीख के हमार जनमदिन ह, आ हम चाहब कि रउरा एह मौका पर हमरो के सम्मान से नवाज दीं. आ मुख्यमंत्री ओह निर्देशक के बात मान लिहले रहले. ओकरा के सम्मानित कइल गइल रहे. कहल गइल रहे कि ई मुस्लिम तुष्टिकरण ह. ऊ निर्देशक मुसलमान रहुवे. बाकिर ई सब बात कहे-सुने के रहे. साँच बात इहे रहे कि ओह निर्देशक में असल में काबिलियत रहे आ ऊ कम से कम दू गो लैंडमार्क फिल्म जरुरे बनवले रहुवे. हँ, लेकिन मुख्यमंत्री के चिट्ठी लिख के ओह फिल्मनिर्देशक के अपना के सम्मानित करवावे वाला बात के जरुरे निंदा भइल रहे. एगो साँझी अखबार में फिल्म निर्देशक के एह चिट्ठी के फोटो कापी छप गइला से ई किरकिरी भइलो रहे. लेकिन गनीमत रहे कि ई चिट्ठी एगो साँझी अखबार में छपल रहे एहसे बात बेसी ना फइलल. लेकिन एह सब से खाली ओह निर्देशके के थूथू ना भइल. बलुक एह लखटकिया पुरस्कारो के बहुते छीछालेदर हो गइल.

लेकिन लोक कवि के एह सब से कुछ लेबे-देबे के ना रहे. उनुका त बस एह बात के चिंता रहे की ऊ एह सम्मान से वंचित काहे बाड़न.

बाद में कुछ लोग टोके भा कुछ लोग तंज करे वाला अंदाज में लोक कवि से पूछहु लागल, “रउरा कब सम्मानित हो रहल बानी ?” त लोक कवि खिसियाइल हँसी हँस के टार देसु. कहसु, “अरे हम त बहुत छोट कलाकार हईं !” बाकिर मन ही मन जर जासु.

आखिर एह जरहट के बयाब एक दिन शराब पियत घरी ओह पत्रकार के दिहले. पत्रकार तब ले टुन्न होखे जात रहे. सब कुछ सुन के ऊ उछलत कहलसि, ” त आप पहिलहीं ई इच्छा काहे ना बतवली ?”

“त ई सब अब हमरे बतावे के पड़ी ” लोक कवि शिकायत का अंदाज में कहलें, “राउर कवनो जिम्मेवारी नइखे ? रउरा त ई खुदे करा दिहल चाहत रहे !” लोक कवि तुनकत कहले.

“हँ भाई करा देब. दुखी मत होखीं.” कह के पत्रकार लोक कवि के भरोसा दिअवले. फेर कहले, “बाकिर एगो काम हमरो करवा देम.”

“राउर कवनो काम रुकलो बा का ” लोक कवि तरेरत कहले. ऊ तनाव में रहबो कइले.

“लेकिन ई काम तनी दोसरा किसिम के बा !”

“का हऽ ?” लोक कवि के तनाव धीरे धीरे छँटे लागल रहे.

“आप किहाँ एगो डांसर है.” पत्रकार आह भरले आ जोड़ले “बड़ कटीली हियऽ. ओकर कट्सो गजब के बा. बिल्कुले नस तड़का देबेले.”

“अलीशा नू ?” लोक कवि पत्रकार के नस पकड़ले.

“ना, ना !”

“त अउर कवन बिया हमरा किहाँ अइसन कटीली डांसर जवन आपके नस तड़का देत बिया ?”

“ऊ जवन निशा तिवारी हियऽ नु !” पत्रकार सिसकारी भरल आह लेत कहले.

“त ओकरा के त भुलाइये जाईं.”

“का ?”

“हँ.”

” त आपहू लोक कवि, ई सम्मान भुला जाईं.”

“खिसियात काहे बानी !” लोक कवि पुचकारत कहले, “अउरियो त कई गो हसीन लड़िकी बाड़ी सँ.”

“ना लोक कवि, हमरा त उहे चाहीं.” पत्रकार पूरा रुआब आ शराब में रहले.

“का बा ओकरा में ? ओकरा ले निमन त अलीशा बिया.” लोक कवि मनावत कहले.

“अलीशा ना लोक कवि, निशा ! निशा कहीं, निशा तिवारी.”

“चलीं हम त मान गइनी बाकिर ऊ मानी ना.” लोक कवि मन मसोसत कहले. आखिर लखटकिया सम्मान के द्रोपदी जीते के सवाल रहे.

“काहे ना मानी ? रउरा त अबहिये से काटे में लाग गइनी.” पत्रकार भड़कल.

“काटत नइखीं, हकीकत बतावत बानी.”

“चलीं रउरा ओर से ओ॰के॰ बा नू ?”

“हँ भाई ओ॰के॰ बा.”

“त फेर एनियो डन बा.”

“का डन बा ?” लोक कवि के अंगरेजी बुझाइल ना रहे.

“अरे मतलब कि राउर सम्मान हो गइल.”

“कहाँ भइल, कब भइल सम्मान ” लोक कवि घबरात बोलले, “सब जबानी-जबानी हो गइल ! जब आपके चढ़ जाले त अइसहीं इकट्ठे दस ठो ताजमहल खड़ा कर देबेनी.” लोक कवि बुदबुदइले. बाकिर साँच इहो रहे कि लोको कवि के चढ़ चुकल रहे.

“कहें घबरात बानी लोक कवि !” पत्रकार बोललसि, “डन कह दिहनी त हो गइल. मतलब आपके काम हो गइल. हो गइल समुझीं. अब ई हमरा इज्जति के बाति बा कि रउरा के ई सम्मान दिलवाईं. मुख्यमंत्री सार से काल्हुवे बतियावत बानी.”

“गाली जिन दीं”

“काहे ना दीं ? बंबई से आ के सारे सम्मान पइसा ढो ले जात बाड़न सँ आ एहिजे बइठल हमरा लोक कवि के पूछलो नइखे जात.” ऊ बहकत कहलसि, “आजु त गरियाएब, काल्हु भलही ना गरियाईं.”

“देखम कहीं गाली-गलौज से काम बिगड़ मत जाव.” लोक कवि आगाह कइलन.

“कहीं काम ना बिगड़ी. अब आप सम्मानित होखे के तइयारी करीं आ कवनो दिने निशा के इंतजामो के तइयारी मत भुलायब !” कह के पत्रकार गिलास में बाचल शराब खटाक से देह में ढकेललन आ उठ खड़ा भइले.

“अच्छा त प्रणाम ! लोक कवि सम्मान मिलला का खुशी में भावुक होत कहले.

“हम त जाते बानी त “प्रणाम” काहे कहत बानी ?” पत्रकार बिदक के बोललसि. दरअसल पत्रकार अबले लोक कवि के “प्रणाम” के निहितार्थ जान चुकल रहे कि लोक कवि अमूमन केहू के टरकावे भगावे का गरज से “प्रणाम” कहेले.

“गलती हो गइल.” कह के लोक कवि ओह पत्रकार के गोड़ छू लिहले आ कहले, “पालागी.”

“त ठीक बा, काल्हु परसो ले मुख्यमंत्री से संपर्क साधत बानी आ बात करत बानी. लेकिन आप एकरा के डन समुझीं.” पत्रकार जात जात कहले.

“डन ? मतलब का बतवले रहीं आप ?”

“मतलब काम हो गइल समुझीं.”

“आप के कृपा बा.” लोक कवि फेर उनकर पाँव छू लिहले.

काल्हु परसो में त जइसन कि पत्रकार लोक कवि के भरोसा दिहले रहलन बात ना बनल लेकिन बरीसो ना लागल. कुछ महीना लागल. लोक कवि के एह खातिर बाकायदा दरखास्त देबे के पड़ल. फाइलबाजी आ ढेर सगरी गैर जरूरी औपचारिकता के सुरंग, खोह आ नदियन से लोक कवि के गुजरे के पड़ल. बाकी चीजन के त जइसे आदत हो गइल रहे बाकिर जब पहिले आवेदन देबे के बात आइल त लोक कवि बुदबुदइबो कइले कि, “ई सम्मान त जइसे कि नौकरी हो गइल बा.” फेर उनुका आकाशवाणी वाला आडिशन टेस्ट के दिन याद आ गइल. जवना में ऊ कई बेर फेल हो चुकल रहले. ओह घरी के बात याद कर के ऊ कई बेर घबड़इबो कइले कि कहीं एह सम्मानो से आउट हो गइलन तब ? फेर फेल हो गइलन तब ? तब त समाज में बहुते फजीहत हो जाई आ बाजारो पर एकर असर पड़ी. लेकिन उनुका अपना किस्मत पर गुमान रहे आ पत्रकार पर भरोसा. पत्रकार पूरा मन से लागलो रहे. बाद में त ऊ एकरा के अपना इज्जति के सवाल बना लिहलसि.

आ आखिरकार लोक कवि के सम्मान के घोषणा हो गइल. बाकिर तारीख, दिन, समय आ जगहा के घोषणा बाकी रहे. एहूमें बड़ दिक्कत सामने आइल. लोक कवि एक रात शराब पी के होस आ धीरज दुनु गवाँ दिहलन. कहे लगले, “जहाँ कलाकार बानी तहाँ बानी. मुख्यमंत्री किहाँ त भड़ुवो से गइल गुजरल हालत हो गइल बा हमार.” ऊ भड़कले, “बताईं सम्मान खातिर अप्लीकेशन देबे पड़ल, जइसे सम्मान ना नौकरी माँगत होखी. चलीं अप्लिकेशनो दे दिहली. अउरीओ जवन करम करवइलन कर दिहनी. सम्मान “एलाउंस” हो गइल. अब डेट एलाउंस करावे खातिर पापड़ बेल रहल बानी. हमहू आ पत्रकारो. ऊ अउरी जोर से भड़कलन, “बताईं, ई हमार सम्मान हऽ कि बेइज्जति ? बताईं रउरे लोगिन बताईं.” ऊ दारू महफिल में बइठल लोगन से सवाल पूछत रहले. बाकिर एकरो जबाब में सभे खामोश रहे. लोक कवि के पीर पर्वत बनत देख सबही लोग दुखी रहे. चुप रहे. बाकिर लोक कवि चुप ना रहलन. ऊ त चालू रहलन, “बताईं लोग समुझत बा कि हम मुख्यमंत्री के करीबी हईं, हमरा गाना का बिना उनुकर भाषण ना होला अउरीओ ना जाने का का !” ऊ रुकले आ गिलास के शराब देह में ढकेलत कहले, “लेकिन लोग का जाने कि जवन सम्मान बंबई के भड़ुआ एहिजा से बेभाव बिटोर ले जात बाड़न सँ उहे सम्मान पावे खातिर एहिजा के लोग अप्लिकेशन दे रहल बा. नाक रगड़त बा.” एह दारू महफिल में संजोग से लोक कवि के एकालाप सुनत चेयरमैनो साहब मौजूद रहलें लेकिन ऊ शुरु से खामोश रहले. दुखी रहले लोक कवि के दुख से. लोक कवि अचानके भावुक हो गइले आ चेयरमैन साहब का तरफ मुखातिब भइले, “जानऽतानी चेयरमैन साहब, ई अपमान हमरे अपमान ना हऽ सगरी भोजपुरिहा के अपमान हऽ”. बोलत बोलत लोक कवि अचानके बिलख के रोवे लगले. रोवते रोवत ऊ जोड़लन, “एह नाते जे ई मुख्यमंत्री भोजपुरिहा ना हऽ.”

“अइसन नइखे.” कहत कहत चेयरमैन साहब, जे बड़ी देर से चुपी सधले लोक कवि के दुख में दुखी बइठल रहले, उठ खड़ा भइले. ऊ लोक कवि का लगे अइले. खड़े खड़े लोक कवि के माथ पर हाथ फेरले, केश सहरवले, उनका गरदन के हौले से अपना काँख में भरले, लोक कवि के गाल पर उतरल लोर के बड़ा प्यार से अपना हाथे पोछले आ पुचकरलन. फेर आह भर के कहले, “का बताईं अब हमरा पार्टी के सरकार ना रहल, ना एहिजा ना दिल्ली में. बाकिर घबराये आ रोवे के बात नइखे. काल्हुवे हम पत्रकार के हड़कावत बानी. दू-एगो अफसरन से बतियावत बानी कि डेट डिक्लेयर करो !” ऊ तनी अकड़ले आ जोड़ले, “खाली सम्मान डिक्लेयर कर दिहला से का होखे के बा ?” फेर ऊ लोक कवि का लगही आपन कुरसी खींच के बइठ गइलन आ लोक कवि से कहले, “लेकिन तू धीरज काहे गँवावत बाड़ऽ ? सम्मान डिक्लेयर भइल बा त डेटो डिक्लेयर होखबे करी. सम्मानो मिली.”

“लेकिन कब ? दुई महीना त हो गइल.” लोक कवि अकुलइले.

“देख, बेसी अगुताइल ठीक नइखे. तूही त कहल करेले कि बेसी कसला से पेंच टूट जाला त का होई ? जइसे दू महीना बीतल चार छह महीना अउरी सही.” चेयरमैन साहब कहले.

“चार छह महीना !” लोक कवि भड़कले.

“हँ भाई बेसी से बेसी. एहसे बेसी का सतइहें साले.” चेयरमैन साहब बोललन.

“इहे त दिक्कत बा चेयरमैन साहब.”

“का दिक्कत बा ? बतावऽ त ?

“आपे कहत बानी नू कि बेसी से बेसी चार छह महीना !”

“हँ, कहत त बानी.” चेयरमैन साहब सिगरेट धरावत कहलन.

“त इहे डर बा कि पता ना छह महीना ई सरकार रहबो करी कि ना. कहीं गिर-गिरा गइल त ?”

“बड़ा दूर के सोचत बाड़ऽ तूं भाई.” चेयरमैन साहब दोसर सिगरेट धरावत कहले, “कहत त तू ठीक बाड़ऽ. ई साला रोज त अखाड़ा खोलत बाड़े. कब गिर जाय सरकार कुछ ठीक नइखे. तोहार चिंता जायज बा कि ई सरकार गिर जाव आ अगिला सरकार जवने केहू के आवे का गारंटी बा कि एह सरकार के फैसला के ऊ मानबे करी !”

“त ?

“त का ! काल्हुवे कुछ करत बानी.” कह के घड़ी देखत चेयरमैन साहब उठ गइलन. बहरी अइलन. लोक कवि का साथे अउरियो लोग आ गइल.

चेयरमैन साहब के एंबेसडर स्टार्ट हो गइ आ एने दारू महफिल बर्खास्त.

दोसरा दिने चेयरमैन साहब पत्रकार से एह बारे में बात कइलन, रणनीति के दू-तीन गो गणित समुझवलन आ कहलन, “छत्रिय होइयो के तू एह अहिर मुख्यमंत्री के मुँहलगा हउवऽ, अफसरन के ट्रांसफर पोस्टिंग करवा सकेलऽ, लोक कवि खातिर सम्मान डिक्लेयर करवा सकेलऽ, पचासन अउरियो दोसर काम करवा सकेलऽ बाकिर लोक कवि के सम्मान के डेट डिक्लेयर ना करवा सकऽ ?”

“का बात करत बानी चेयरमैन साहब ! बात चलवले त बानी डेटो खातिर. डेटो जल्दिये एनाउंस हो जाई.” पत्रकार निश्चिंत भाव से बोलल.

“कब एनाउंस होखी डेट ? जब सरकार गिर जाई तब ? ओने लोक कवि अलगे अफनाइल बा.” चेयरमैनो साहब अफनाइले कहले.

“सरकार त अबही ना गिरी.” पत्रकार गहिर साँस लेत कहलसि, “अबही त चेयरमैन साहब, ई सरकार चली. बाकिर लोक कवि के सम्मान के डेट एनाउंसमेट खातिर कुछ करत बानी.”

“जवने करे के होखे करऽ भाई, जल्दी करऽ.” चेयरमैन साहब कहले, “ई भोजपुरियन के आन के बाति बा. आ फेर काल्हु इहे बात कहत लोक कवि रो दिहले रहे. आ इहे सही बा कि ई अहिर मुख्यमंत्री अबही ले कवनो भोजपुरिहा के त ई सम्मान दिहले नइखे. तोहरा कहला सुनला से लोक कवि के अहिर मानत, जे कि ऊ हवे ना, कवनो तरह सम्मान त डिक्लेयर कर दिहलसि लेकिन डेट डिक्लेयर करे में ओकर फाटत काहे बा ?”

“अइसन नइखे चेयरमैन साहब.” ऊ बोलल, “हम जल्दिये कुछ करत बानी.”

“हँ भई, जल्दिये कुछ करऽ-करावऽ. आखिर भोजपुरियन के आन-मान के बाति हऽ !”

“बिल्कुल चेयरमैन साहब !”

अब चेयरमैन साहब के के बताईत कि एह पत्रकार बाऊ साहब खातिरो लोक कवि के सम्मान के बात उनुका जरूरत आ उनुका आनो के बात रहे. ई बात चेयरमैनो साहब के ना, सिर्फ लोके कवि के मालूम रहे आ पत्रकार बाऊ साहब के. पत्रकार फेर एह बात के कहीं अउर चरचा ना कइलन आ लोको कवि एहबात के केहू के बतवलन ना. बतवतन त भला कइसे ? लोक कवि खुदे एह बात के भुला गइल रहले.

डांसर निशा तिवारी के बात !
लेकिन पत्रकार के त ई बात याद रहे. चेयरमैन साहब से फोन पर बात कइला का बाद पत्रकार के नस फेर निशा तिवारी खातिर तड़क गइल नस-नस में निशा के नशा दउड़ गइल. आ दिमाग के भोजपुरी के आन के सवाल डंस लिहलसि.


फेरु अगिला कड़ी में


लेखक परिचय

अपना कहानी आ उपन्यासन का मार्फत लगातार चरचा में रहे वाला दयानंद पांडेय के जन्म ३० जनवरी १९५८ के गोरखपुर जिला के बेदौली गाँव में भइल रहे. हिन्दी में एम॰ए॰ कइला से पहिलही ऊ पत्रकारिता में आ गइले. ३३ साल हो गइल बा उनका पत्रकारिता करत, उनकर उपन्यास आ कहानियन के करीब पंद्रह गो किताब प्रकाशित हो चुकल बा. एह उपन्यास “लोक कवि अब गाते नहीं” खातिर उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान उनका के प्रेमचंद सम्मान से सम्मानित कइले बा आ “एक जीनियस की विवादास्पद मौत” खातिर यशपाल सम्मान से.

वे जो हारे हुये, हारमोनियम के हजार टुकड़े, लोक कवि अब गाते नहीं, अपने-अपने युद्ध, दरकते दरवाजे, जाने-अनजाने पुल (उपन्यास), बर्फ में फंसी मछली, सुमि का स्पेस, एक जीनियस की विवादास्पद मौत, सुंदर लड़कियों वाला शहर, बड़की दी का यक्ष प्रश्न, संवाद (कहानी संग्रह), सूरज का शिकारी (बच्चों की कहानियां), प्रेमचंद व्यक्तित्व और रचना दृष्टि (संपादित), आ सुनील गावस्कर के मशहूर किताब “माई आइडल्स” के हिन्दी अनुवाद “मेरे प्रिय खिलाड़ी” नाम से प्रकाशित. बांसगांव की मुनमुन (उपन्यास) आ हमन इश्क मस्ताना बहुतेरे (संस्मरण) जल्दिये प्रकाशित होखे वाला बा. बाकिर अबही ले भोजपुरी में कवनो किताब प्रकाशित नइखे. बाकिर उनका लेखन में भोजपुरी जनमानस हमेशा मौजूद रहल बा जवना के बानगी बा ई उपन्यास “लोक कवि अब गाते नहीं”.

दयानंद पांडेय जी के संपर्क सूत्र
5/7, डाली बाग, आफिसर्स कॉलोनी, लखनऊ.
मोबाइल नं॰ 09335233424, 09415130127
e-mail : dayanand.pandey@yahoo.com

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