भगवान और उनकी भक्ति की परंपरा सदियों से चली आ रही है। इसी कंसेप्‍ट को वर्तमान परिवेश के अनुसार भोजपुरी फिल्‍म ‘डमरू’ के जरिए पर्दे पर लाने की कोशिश है यह फिल्‍म, जो भक्ति और श्रद्धा की कहानी बयां करती है। ऐसा कहना है अभिनेता पद्म सिंह का। वे इस फिल्‍म में नकारात्‍मक किरदार में नजर आ रहे हैं। इससे पहले वे हिंदी फिल्‍म गंगाजल, अपहरण, चक दे इंडिया, द लीजेंड ऑफ भगत सिंह, डायरेक्‍ट इश्‍क जैसी कई फिल्‍मों में नजर आ चुके हैं। भोजपुरी फिल्‍म ‘मुन्‍ना बेरोजगार’, ‘गंगा जैइसन पावन पीरितिया हमार और ‘सजनवां अनाड़ी, सजनिया खिलाड़ी’ के अलावा एक मराठी फिल्‍म भी की हैं। वहीं, 100 से अधिक टीवी धारावाहिक में भी पद्म सिंह नजर आ चुके हैं। अब वे भोजपुरी फिल्‍म ‘डमरू’ कर रहे हैं, जिसकी शूटिंग पूरी हो चुकी है।

बाबा मोशन पिकचर्स प्राइवेट लिमिटेड के बैनर तले बन रही फिल्‍म ‘डमरू’ के बारे में पद्म सिंह कहते हैं कि इस फिल्‍म में एक नया प्रयोग देखने को मिलेगा। जब भक्‍त मुसीबत में हो तो सिर्फ भक्‍त ही परीक्षा क्‍यों दे? भगवान पर भक्‍तों की श्रद्धा इसलिए होती है कि वे भक्‍तों की सारे कष्‍ट हरते हैं। फिल्‍म में क्‍लाइमेक्‍स में यह निष्कर्ष निकलता है कि भगवान अपने भक्‍तों की खुशी के लिए हमेशा तत्‍पर रहते हैं। इसके लिए वे किसी न किसी रूप में पृथ्‍वी पर आते हैं और भक्‍तों की सहायता करते हैं । उनके कष्‍ट का निवारण करते हैं।

उन्‍होंने आज के दौर में फिल्‍म के विषय की प्रासंगिकता के बारे में कहा कि ईश्‍वर का महत्‍व भक्ति से है। इसलिए युग बदले, मगर नहीं बदला तो ईश्‍वर के प्रति भक्ति भाव। आरध्‍य उस वक्‍त भी थे और आरध्‍य आज भी हैं। भक्ति हर जगह विद्यमान है। चाहे विवेका नंद की भक्ति हो या द्रोणाचार्य गुरू शिष्‍य परंपरा में। ईश्‍वर की भक्ति का न तो अंत हो सकता है और न होगा। पद्म सिंह ने हिंदी और भोजपुरी इंडस्‍ट्र के बारे में चर्चा करते हुए कहा कि दोनों इंडस्‍ट्री काफी अलग है और दोनों का अपना महत्‍व है। मगर मेरे लिए भाषा कभी समस्‍या नहीं बनी। एक कलाकार के नाते मुझे सभी भाषाओं में काम करने में मजा आता है, क्‍योंकि भाषा तो एक माध्‍यम है। संवेदना और भाव भंगिमा ही अभिनय की मूल में हैं।

पद्म सिंह ने फिल्‍म ‘डमरू’ में अपनी भूमिका को लेकर कहा कि फिल्‍म में मैं निगेटिव किरदार में हूं, जो भगवान के अस्तित्‍व को नकाराता है। खुद को ही ईश्‍वर मान लेता है और अहंकार में चूर रहता है। मगर बाद में जब वह मुसीबत में पड़ता है, तब वह महसूस करता है कि ईश्‍वर सर्व शक्तिमान है। उससे बड़ा न तो कोई है और न होगा। हर कंकर में शंकर हैं। उन्‍होंने भोजपुरी इंडस्‍ट्री पर गंभीरता से बात करते हुए कहा कि यहां अभी तक पूरी तरह व्‍यवसायीकरण नहीं हो सका है, जिसका असर पर फिल्‍मों पर पड़ता है। हिंदी और साउथ की तरह यहां भी लोगों को अपनी क्षमता के अनुसार काम में 100 फीसदी एफर्ट देना होगा, इंडस्‍ट्री को उचित सम्‍मान मिलेगा। इसलिए फिल्‍म मेकरों को परिवेश, प्रथा, व्‍यक्ति को केंद्र में रखकर फिल्‍में बननी चाहिए।

उन्‍होंने अभिनेता अवधेश मिश्रा को इंडस्‍ट्री का अमिताभ बच्‍चन बताया तो खेसारीलाल के जज्‍बे को सलाम भी किया। उन्‍होंने कहा कि अ‍वधेश मिश्रा इस इंडस्‍ट्री में भीष्‍म पितामह हैं। भोजपुरी सिनेमा इंडस्‍ट्री ने बदलाव के बड़े दौर देखे। बहुत कुछ बदला और एक कोई नहीं बदला तो वो हैं अवधेश मिश्रा। वे आज जिस मुकाम पर हैं, वह अपने आप में अद्भुत है। जब वे अभिनय कर रहे होते हैं, तब मैं उनको देखते रह जाता हूं। वे इंसानियत, काम, व्‍यवहार समाज के प्रति समर्पित संपूर्ण व्‍यक्तित्‍व के धनी हैं। वहीं, दूसरी ओर खेसारीलाल यादव के बारे में बस इतना जान लिजिए कि भोजपुरी के वे सबसे बेहतरीन अदाकार में से एक हैं। वे अपने काम के प्रति समर्पित रहते हैं। वे अपने किरदार को जीवंत बनाने मे कोई कसर नहीं छोड़ते, इसलिए आज वे इंडस्‍ट्री में इतनी तेजी से आगे बढ़ रहे हैं।

पद्म सिंह ने भोजपुरी फिल्‍मों पर लगते रहे अश्‍लीलता के आरोप पर अपनी बेबाक राय रखी और कहा कि अर्थ में अनर्थ तलाशने पर अनर्थ ही मिलेगा। फूहड़ता की जहां तक बात है, तो फिल्‍म की कहानी समाज के बीच की ही होती है। उन्‍हीं परिवेश को हम पर्दे पर दिखाते हैं। जिसका मतलब ये कभी नहीं होता है कि हम उसे बढ़ावा दे रहे हैं। हमारे यहां फिल्‍मों का चलन रहा है क्‍लाइमेक्‍स में अच्‍छाई की जीत होती है और बुराई हार जाती है। जहां तक रही बात भोजपुरी सिनेमा को मल्‍टीप्‍लेक्‍स तक ले जाने की तो मैं यहां कहना चाहूंगा कि भोजन के बाद मनोरंजन हर तबके के लोगों की जरूरत है। लेकिन एक बड़ा तबका है, 400 रूपए खर्च कर परिवार के साथ मनोरंजन के लिए वहां नहीं जा सकते। इसलिए ऐसे भी प्रयास हों, जहां उन्‍हें भी उनके बजट में मॉल वाली सुविधा मिले।

उन्‍होंने कहा कि आज थियेटर में फिल्‍म को प्‍यार करने वाले जुनूनी लोग जाते हैं औ गर्मी में पसीने से तरबतर हो कर भी फिल्‍में देखते हैं। वहीं, दर्शकों का परिवार सहित थियेटर तक नहीं पहुंच पाने में हमारी परंपरा और संस्कार भी आड़े आती है। ये जड़े इतनी गहरी है कि फिल्‍मों में दिखाये जाने वाले प्रेम प्रसंग आज भी लोग परिवार के साथ नहीं देखते हैं। ऐसे दृश्‍य के साथ वे सहज नहीं हो पाते हैं। रिश्‍तों की मयार्दा का हमारे समाज में बहुत महत्‍व है। आज सिनेमा तो आधुनिक हुआ है, मगर हम पूरी तर‍ह से वेसटर्न कल्‍चर को आत्‍मसात करने के लिए तैयार नहीं है। इसमें अभी समय लगेगा।


(अतुल – रंजन से बातचीत पर आधारित)

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