दू नाव पर पैर रखला पर जिनगी ना चली.

by | Mar 18, 2016 | 0 comments

– अभय कृष्ण त्रिपाठी “विष्णु”

AbhayTripathiVishnu

एक व्यक्ति दू नाव पर सवारी, कइसे ? समस्या विकट बा आ ओहु से विकट बा ओकर समाधान. सबसे बड़ बात ई कि समाधान के चिंता केहु के नइखे काहे से कि आज हर केहु जेतना ज्यादा मिल जाये ओतना नाव पर सवारी करे खातिर ना सिरिफ लालाईते बा बलुक सवारी के मजा लेबे खातिर कवनो हद तक जाए खातिर तैयार बा. ना केहु समझे के तइयार बा आ ना केहु का पास समुझावे के शक्ति मौजूद बा. सबसे बड़ समस्या ई कि सामने वाला के त्यागो करल मुश्किल काहे से अपना के छोड़ल आसान ना होला. चलीं पहिले वस्तु स्थिति समुझावे के कोशिश करत बानी एह उमेद में कि शायद केहु हमरा से बेहतर सोच राखत होखे.

समाज भा परिवार, नर भा नारी ओकरा के चलावे खातिर एगो नियम बनल बा, भा बना लीहल जाला. ई नियम सामाजिक, धार्मिक, देश क कानून क मिलल जुलल रूप होला जवन या त सभके मान्य होला भा बहुमत के राय से बनावल होला आ ई सभकरा पर बराबर रूप से लागू होला. नियम भा परंपरा समय चाहे काल अनुसार बदलतो जाला बशर्ते सब सहमत होखे भा बहुमत वर्ग एकरा साथे खाड़ हो. नियम, परंपरा के बदले खातिर समय अउर काल का अनुसार विरोधो होत रहेला आ विरोध सफल ना भइला पर समाज अउर परिवार में टूटो होत जाला.

एक से सहमत ना भइला पर कुछ लोग के अलगा होके दुसरका वर्ग भा जमात में शामिल होखल आज आम बात बा. शायद एही क परिणाम बा कि आज समाज में अनगिनत विचारधारा, धर्म, जाति, मौजूद बा. एक छोड़ के दूसर के हाथ थामल में कवनो बुराई नइखे बाकि एहु के साथ रहब अउरी ओहु के साथ रहब के ही दू नाव के सवारी के संज्ञा दीहल जाला जवन कि उचित नइखे आ झगड़ा झंझंट के जड़े कहाई ओकरा के. जदि केहु के कवनो समाज चाहे परिवार के अंग बन के रहेके बा त ओकरा ओह समाज चाहे परिवार के परम्परा, नियम आ संस्कृति के मानही के पड़ी. इहाँ ई कहल बेमानी होखी कि हम तोहरा के मानत बानी लेकिन नियम हमार चली.

नियम हो भा परंपरा आ चाहे सामाजिक कानून सब एक दूसरा के पूरक हो सकेला बाकि केहु एक दूसरा के काट ना सकेला. हर केहु के अपना अपना हिसाब से जिए के अधिकार बा आ इहे कारन बा कि एक धरम से दू धरम, एक परंपरा से दू परंपरा आ फेर एहु के टुकड़ा होत गइल. लेकिन अपना अधिकार के आड़ में अपना साथे दूसरो के जिनगी नरक करे क अधिकार केहु के पास नइखे. बात के अउरी खुल के कहे के बात हो त फिलहाल हम शनि शिंगणापुर के घटना के उदाहरण देब.

एगो परंपरा बरीसन से चलल आवत बा, जेकरा नइखे माने के बा ऊ अलगा हो जाओ आ दूसर शनि के मंदिर बना के पूजा शुरू करे. के रोकले बा. बाकि जदि ओहि शनि मंदिर के माने के बा त उहाँ के परंपरा के सम्मान पहिले करे के पड़ी. ज्यादा सरल भाषा में कहीं त हम ई कहब कि जदि हमरा अपना परिवार के साथे रहे के बा त गलत भा सही परिवार के मुखिया के बनावल नियम के पालन करही के पड़ी. जदि कवनो सदस्य एह नियम के नइखे मानल चाहत त ओकरो परिवार के साथे रह के सबकर जिनगी नरक करे के त कवनो औचित्य नइखे.

समझावे खातिर जरूर शनि शिंगणापुर के नाम लिहल बा बाकि ई स्थिति कमोवेश हर विषय आ स्थिति पर लागु होला. जबकि व्यवहार के स्तर पर ई हो रहल बा कि ना खेलब ना खेले देब, बस खेलवे बिगाड़ेब. आ एमा आग लगा के तमाशा देखे वाला लोगन के चाँदी हो रहल बा आ शायद फायदो हो रहल बा. बाकि अइसना लोग के तुलना बन्दर से बेसी ना होखी. लेकिन जदि अइसन लोग बन्दर बा त बकिया लोग काहे बिलाई बन के दू बिलाई के लड़ाई में बनरन के फायदा वाला कहावत चरितार्थ कर रहल बा?

आग लगाइब खुदहु जरब,
आज ना सही काल त मरब,
ना रही जग ना ही तू विष्णू,
दिल मिलाइब तब ही तरब.

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