बढ़ावन – 1 : लोक का भाव-भूमि पर

by | Aug 21, 2015 | 0 comments

– डाॅ. अशोक द्विवेदी

AKDwivedi-Paati
हमार बाबा, ढेर पढ़ुवा लोगन का बचकाना गलती आ अज्ञान पर हँसत झट से कहसु, “पढ़ लिखि भइले लखनचन पाड़ा !”
पाड़ा माने मूरख; समाजिक अनुभव-ज्ञान से शून्य. आजकल तऽ लखनचंद क जमात अउर बढ़ले चलल जाता. ए जमात में अधूरा ज्ञान क अहंकार आ छेछड़पन दूनों बा. कुतरक त पुछहीं के नइखे. ई लोग कबो “आधुनिकता आ बदलाव” का नाँव पर त कबो देखावटी “स्त्री मुक्ति” का नाँव पर आ कबो कबो समता-समाजवाद का नाँव प पगुरी (वैचारिक जुगाली )करत मिलिए जाला.

सावन का एही हरियरी तीज पर एगो बिद्वान भड़क गइले. उनका ए तीज बरत करे वाली लइकी आ मेहरारुवन में मानसिक गुलामी आ पिछड़ापन लउके लागल. कहले कि मेहरारुवन के ई बरत-परब बंद क देबे के चाही. एम्मे पुरुष-दासता क झलक मिलत बा. सुख सौभाग आ पति का दीरघ जीवन खातिर काहें खाली मेहरारुवे बरत करिहें सऽ? फेसबुक पर उनका एह नव बिचार प “झलक दिखला जा” देखे वाली एगो बोल्ड मेहरारू उनकर टनकारे सपोट कइलस. फेर त फेसबुकिया भाई लोग के मन बहलाव क उद्दम भेंटाइ गइल.

कुछ दिन से सावन का महीना में महादेव का भक्ति भाव में लरकल-लपटाइल लोगन क हर हर -बम बम सुनत हमहूँ रमल रहलीं. ओने झुलुवा झूलत, कजरी गावत लइकी मेहरारुन क उत्सव-परब हरियरी तीज आ गइल. प्रेम आ हुलसित उल्लास क अइसन सहज अभिव्यक्ति करे वाला परब जान लीं कि हमार सुखाइल मन अउरी हरियरा गइल. कजरी राग के रस-बरखा मन परान तृप्त क दिहलस. लोक-उत्सव इहे न हऽ; हम सोचलीं. ओने हमार बिद्वान पढ़ुवा मित्र पगुरी में बाझल बाड़े. उनके प्रेम आ हुलास से भरल ए मौसम में मानसिक गुलामी लउकत बा. ए लोक परब का बत में सुन्दर सुजोग वर (जीवन साथी) भा पति के आयु आ सौभाग क कामना में असमानता आ अनेत लउकत बा. ऊ समता खातिर अतना खखुवाइल बाड़े कि सुई का जगहा तलवार उठावे प आमादा बाड़े.

अब हम उनके कइसे समझाईं कि “लोक” आ ओकरा सांस्कृतिक-अभिप्राय के रहस्य समझे खातिर लोक का भावभूमि पर उतरे के परेला. विरासत में मिलल आचार-बिचार ठीक से समझला का बादे न ओकरा के पुनरीक्षित भा नया रूप रंग देबे का बारे में सोचल जाई. तीज, चउथ आ भइया दूज आ जिउतिया (जीवित पुत्रिका) भूखे वाली मेहरारुवन क मनोभूमि प उतरऽ त बुझाई कि उनहन का एही अवदान पर परिवार आ समाज टिकल बा. उनहन का पवित्र मनोभाव आ कामना के मानसिक दासता क संज्ञा दे दिहल त्याग तप आ प्रार्थना के अपमाने न बा.

अतीत क कवनो बात कइला भा ओकर परतोख देहला पर कुछ बुद्धजीवी कुटिल मुस्कान काटत हमके परंपरावादी कहि सकेला बाकि हम भोजपुरिया लोक आ जीवन संस्कृति के हईं. अतीत में कुल्हि माहुरे नइखे; ओमे अमृतो छिपल बा जेवन हमन का जीवन के नया भावबोध आ अनुभव ज्ञान संपदा से जोरि सकेला. भौतिक तरक्की आ नव ज्ञान का जोम में हमन का पीढ़ी के संवेदनहीन आ मूल्यविहीन हो जाये क ज्यादा खतरा बा.

लोकज्ञान पहिलहूँ शास्त्र ज्ञान ले कम ना मनात रहे आ शास्त्रमत ‘लोकमत’ से पछुवा जात रहे. लोक आ शास्त्र मिलिये के हमहन का समाज के संस्कारित कइलस. लोकधर्म मानवधर्म बनल आ मानव का स्वच्छन्दता आ निरंकुशता के अनुशासित कइलस; ओके संस्कारित कइ के समाजिक बनवलस. हमहन क भोजपुरिया समाज एही आचार बिचार आ संस्कार से बन्हाइ-मँजाइ के चमकल. काल चक्र में अलग अलग समय सदर्भ में, एह लोक रीति में कुछ अच्छाई कुछ बुराई आइल होई; बाकिर कुल मिलाइ के हमहन का पारिवारिक संस्कृति क नेइं (नींव) एही तरे परल.

(आगा अगिला बेर)

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(4)

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(7)
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(5)

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