“संतोख अतने बा / कि गाँव अपना में अझुराइल / अपने में परेशान / अपने में मगन / अतने में गील / कि हिनिके उड़ा देब! / हुनके भठा देब! / उनकर मामर हेठ करब! / बहुत जल्दिये गोटी सेट करब!!” ना, ना. गलत समुझला के जरूरत नइखे. बतकुच्चन में कविता पाठ करे के कवनो इरादा नइखे हमार. हम त बस मौजूदा हालात पर बतकुच्चन करे चलल रहीं. आ ओहीमें मामर आ जाँगर पर बतियावे के इरादा रहल. मामर के बात मन में आवते डा॰ अशोक द्विवेदी के एगो कविता के ई लाइन याद पड़ गइल आ ओकरे से शुरुआत कइल सोचनी. एहसे एक फायदा त ई भइल कि मामर के मतलब समुझावे से बाच गइनी. मामर आ मामरी, स्वाभिमान आ प्रतिष्ठा, केहू का लगे तब आवेला जब ऊ अपना जाँगर से कुछ अइसन कर देखावेला कि देश समाज ओकर इज्जत करे लागो. एह हफ्ता अचानक एगो खबर सुर्खी में आ गइल बा. देश के एगो बड़का नेता के, कुछ लोग उनुका के देश के नेता माने के तइयार नइखे ई दोसर बात बा, अपना सभा में बोले ला अमेरिका के एगो विश्वविद्यालय बोलावा भेजले रहलें. अचानक कुछ लोग ओहिजा उनुकर अइसन गोटी सेट कर दिहल कि उनकर मामर हेठ हो जाव. अब एह मामर हेठ करे का फेर में देश के मामरी हेठ हो गइल त ओहसे ओह लोग के का? ऊ लोग त बस हर तरह से एके काम में लागल बा कि केहू तरह एह नेता के हेठी कइल जाव. अब हेठी केकर होखत बा से त समय बताई.
बतिया पंचे के रही, खूंटवा रहिये पे रही वाला मानसिकता के लोग लोकतंत्र में वाक् स्वतंत्रता के बात त करेला बाकिर ओकरा के मानेला अपना फायदा ले. ई लोग दोसरा के दुनु आँख फोड़वावे ला जरूरत पड़ी त आपनो एगो आँख फोड़वा ली. हँ त बात मामर के कइल जाव. मामर आ गुमान में फरक होला. बिना कवनो गुण अपना के खास मानल गुमान होला जबकि अपना बेंवत पर, अपना जाँगर पर, अपना काम का बल पर जवन भाव मन मे आवेला तवन मामर होला. मामर से मामरी मिलेला घमंड से ना. हँ मामर के खिलाफ करे वाला लोग में अपना छल बल कुचक्र के गुमान जरूर होला. ओह लोग के अपना विघ्नजना होखे के गुमान होला. कि देखऽ कइसे फलनवा के औकात देखा दिहनी. ओकरा ई ना लागे कि एहसे ओकर खुद के औकात सामने आ गइल कि कि कतना छल छन्हर भरल बा ओकरा में. ई लोग में अतना बेंवत ना होखे कि कवनो बड़ रेघारी का सोझा ओहू ले बड़ रेघारी खींच पावसु. ऊ त बस खींचल रेघारी के मेटा के छोटहन करे में लागल रहेला. फेंटा बान्ह अपना काम में भर जाँगर लागल आदमी के पोंछिटा खींचे के ई लोग अपना जीवन के मकसद बना लेला. ओरहन कइला के जरूरत त ओह आदमी के बा जेकर पोंछीटा खिंचात बा बाकिर अपना जाँगर का बल पर काम करे में लागल आदमी ओह लोग से ओरहन का करी जे ओरहने के आपन ओढ़ना बिछवना बना लिहले होखे.
अब ओढ़नी पर याद आइल कि फगुआ के मौसम में ढेर लोग के ओढ़नी ले के ओरहन के मौका मिल गइल बा. पिछला दिने एगो सोशल साइट पर पढ़ले रहीं कि ओरहन आ ओढ़नी एके ह. मन हँस के रहि गउवे रोमन लिपि में ओरहन आ ओर्हनी लिखे में भरम होखबे करी आ गाँव समाज से टूटल लोग अपना लोक भाषा से अनचिन्हार होखत जात बाड़ें त ओरहन का कइल जाव, केकरा से कइल जाव? बस बतकुच्चन करत रहीं बात से बात निकालत रहीं. केहू रउरा बतकुच्चन के बकतूत कहे त कहत रहे.
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