बतकुच्चन – ६९

by | Jul 23, 2012 | 0 comments


पीर से पीर कि पीर के पीर कि पीरे पीर बना देले आ तब पीर खातिर पीर सहाउर हो जाले? अब एह पीर के रीत से पिरितिया बनल कि पिरितिया में पीर के रीत बन गइल बा? संस्कृत के प्रीत बिगड़त बिगड़त कब पिरित हो गइल आ एह पिरितिया के संबंध पीर से अस जुड़ल कि अलग कइल मुश्किल हो गइल. पिरितिया के पीर ऊ जाने जे कबो पिरित कइले होखे, पिरित में पड़ल होखे. ना त बाँझ का जनीहें प्रसवति के पीड़ा?

पीड़ा के बिगड़ल रूप पीर हवे आ पँहुचल संत महत्मो के पीर कहल जाला. जे पीर हो गइल ओकरा दुनिया के पीर से सहाउर बनही के पड़ी ना त ऊ दोसरा के पीर कइसे हर पाई. हरे वाला के निवारक भा उद्धारक कहल जा सकेला बाकिर हर चलावे वाला त हरवाहे बनि के रहि जाला. अलग बाति बा कि अब ट्रैक्टर आ कंबाइन का जमाना में हरवाही त कब के बिला गइल बा. गइल जमाना जब दुआर पर बान्हल बैलन के जोड़ी से मालिक के औकात झलकत रहे आ देखे आ देखावे के कवनो मौका छोड़ल ना जात रहे. समधी बन्हन खोलाई में बैले खोल ले जाए पर अड़ जासु. अब बैल रह स भा ना बन्हन खोलाई के परंपरा अबहियो जिन्दा बा बाकिर बकरी के माई कहिया ले खरजिउतिया भूखी? आजु ना त काल्हु बाकी परंपरन का तरह एहु परंपरा के जाहीं क बा. काहे कि ना त अब आंगन रहि गइल बा ना अंगना में छवावे वाला माड़ो.

माड़ो जे ना समुझत होखे से जान लेव कि मण्डप के एगो रूप ह माड़ो. हर मण्डप के माड़ो ना कहल जाव. माड़ो भा मड़वा ओह मण्डप के कहल जाला जवन शादी करावे खातिर घर का आंगन में छावल जात रहे आ अबहियों छवाला. अलग बाति बा कि अब अंगना का बदले घर का छत पर भा कवनो उत्सव भवन का भीतर. खैर बात कहाँ से कहाँ चलि आइल. शुरू कइले रहीं पीर आ पीर से त ओही पीर पर लवटल जाव.

पीर के पीर के जाने ला? पीर अपना हिरदा में कतना पीर समवले रहेला से के देखे जानेला? पीर पेरइलो में होखेला. ऊँख पेरइला से रस निकलेला, आदमी पेराला त आँखि से लोर निकलेला. बाकिर कुछ लोग अइसनो पेराला कि ऊ लोरो ना बहा सके आ एह पीर के सहि के पीरो ना बन पावे. अइसने पीर राजगो का लगे बा जे जदयू से मिलल पीर सहे ला मजबूर बा. बाकिर राजग कबो पीर ना बनि सके. काहे कि पीर बने खातिर जिनिगी के जिम्मेवारी से उपर उठे के पड़ेला.

पीर का लगे ना त अपना के ढोवे के जिम्मेवारी होला ना अपना परिवार के. ऊ त सब कुछ दोसरा पर छोड़ के निश्चिंत हो जाला आ खुद पीर बनि जाला. ओकर पिरित कवनो दोसरा जीव से ना लाग के सगरी जीव के जीवन देबे वाला से लाग जाला आ तबहिये ऊ पीर कहल जाला. ना त कतने राँझा कतने महिवाल पीर बन गइल रहते. बाकिर अपना पिरितिया के पीर ना झेल पवला का चलते ऊ राँझा महिवाल जस मजनूं बनि गइलें. तबहियो अतना त देखाइए दिहलन कि पीर आ पिरित के जोड़ बहुते मजगर होला.

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