डॉ. रामरक्षा मिश्र विमल के डायरीRRM-Vimal

 

चले दीं, प्रयोग बहे दीं धार

काल्हु “ये दिल माँगे मोर” पर बहस होत रहे. हम कहलीं कि भाई ‘मोर’ का जगहा ‘और’ कहलो पर त कुछ बिगड़ी ना. फेर काहें एकर ओकालत करतारे लोग. हर भाषा में लिखे-पढ़ेवाला लोग विदेशी शब्दन का मोड़ पर कुछ देर रुकिके सोचेले, काहेंकि धड़ल्ले से एकर प्रयोग कइला के मतलब बा व्यंग-बौछार के शुरुआत के नेवता. इहाँ का इंगलैंड में पैदा भइल रहीं….जी, एंग्लो इंडियन हईं…. इहाँ का लेखन पर उत्तर आधुनिकतावाद के असर बा….. एह तरह के जुमलन का अलावा कुछ ना मिली त एगो बिदेशी मीडिया के दिहल अपमानजनक शब्द ‘हिंगलिश’ त जरूरे सुने के मिल जाई. हमरा सबसे खराब हिंगलिश लागेला, जवनाके चार भाग में एक भाग हिंदी(हिं) आ तीन भाग अंग्रेजी (ग्लिस) बा. कहनाम (ध्वनी) सीधा बा कि एह भाषा के आधारभूत संरचना माने रीढ़ के हड्डी अंग्रेजी बिया आउर बाकी सभ हिंदी. एह सोच के चलावेवाला आ सँकारेवाला- दूनो लोगन के बहादुरी आ स्वाभिमान के जतना बड़ाई कइल जाव, कमे कहाई. ए घटिया शब्द के वकालत करेवालन के ई काहें ना बुझाला कि खुद अंग्रेजिए में 20 प्रतिशत शब्द ओकर बा आ शेष 80 प्रतिशत विश्व के अउर भषन के. तब ओकरा के कहल जाई ‘इंविश्व’? कवनो अइसन भाषा नइखे, जवना में बिदेशी शब्दन के प्रयोग सँकारल नइखे गइल. हमनी किहाँ लमटेन, रेल, अस्पताल, गिलास, बर्तन, कुर्सी, कफन, गबन, टेबुल, बेंच, पुलिस, मजिस्ट्रेट- ढेर अइसन शब्द बाड़े स, जवन भोजपुरी में प्रयुक्त होके भोजपुरिए बन गइले सन. जब उहनी के अपनावे में हमनीका तनिको ना सकुचइलीं जा त, आजो कुछ नया शब्दन के अपनावे से परहेज ना करेके चाहीं. हँ, एहमें सावधानी जरूरी बा. ओही नया शब्दन के अपनावल जाव, जेकर हमनी किहाँ विकल्प नइखे. अब रात खातिर नाइट लिखल-बोलल जाई त कहीं से न्यायसंगत ना कहाई. ई हास्यास्पद होई आ खतरनाको. हम त कहबि कि अनुवाद से भरसक बचे के कोशिश कइल जाव. जरूरी विदेशी शब्द कुछ दिन में अपने आप भोजपुरी बन जइहें सन. कुछ त बेंच से बेंच आ पुलिस से पुलिसे रह जइहें सन आ कुछ ग्लास आ लैटर्न शब्द से गिलास आ ललटेन (लमटेन) हो जइहें सन. एह स्वीकार से हमनी के भोजपुरी भाषा के स्वरूप में व्यापकता आ अंतर्राष्ट्रीयता के भी समावेश हो जाई. एहसे हम त ईहे कहबि कि बिदेशी शब्द अपनाईं बाकिर सम्हरि के.

एगो अउरी बात. भाषा के प्रयोग पर बतोबरन के खूब असर होला. एहसे जो अंग्रेजी शब्दन के कुछ जदो (ज्यादा भी) प्रयोग मिल जाए आ ऊ स्वाभाविक लागे त नाक-भौं मत सिकोरीं सभे. ई समय के माङ बा, दकियानूसी से काम ना चली. समय ओह प्रयोगन के खुदे चलाई भा उड़ा दी. अभी जरूरत बा जादा से जादा आ गुणवत्ता से भरल लिखल-बोलल. चलें दी प्रयोग बहे दीं धार.

अनुवाद उहे, जे रच बस जाए

एक महीना पहिले एक आदमी एगो प्रश्न पूछि के हमरा के अजीब पेशोपेश में डाल देले रहे. जइसे ‘थैंक्यू’ का प्रतिउत्तर में ‘युअर वेलकम’ जइसन कुछ ना कुछ कहल जाला, ओइसहीं धन्यवाद का प्रतिउत्तर में का कहल जाई ? त हमार एगो मित्र चट दे कहि दिहले- “राउर स्वागत बा, कहीं आ घर के पता दे दिहीं.” एह ‘चट दे’ पर हँसी त खूब भइल बाकिर विषय के गंभीरता में कवनो कमी ना आइल. संतोषजनक जबाब ना मिलल.

हम कबो-कबो सोचींले कि हर विदेशी शब्द के अनुवाद खातिर लबलबाइल ठीक ना होखे. जवन शब्द कवनो खास संस्कृति के अंग बाड़े सन, उहनी के अनुवाद से हमनी के बचेके चाहीं. थैक्यू, सॉरी, गुड मार्निंग आदि शब्द अपने आप में संस्कृति के अविभाज्य बिंब बाड़े सन आ इहनी के अनुवाद जादा दिन ना चल पाई. हमनी किहाँ जब केहू उपकार करेला त थैंक्यू से काम ना चले. जीवन भर कृतज्ञ होके रहेके परेला. “प्रति उपकार करउँ का तोरा”, “कपि से उरिन हम नाहीं”- ईहे हमनी के संस्कृति ह. थैंक्यू कहिके भा कुछ पइसा देके चल दिहला से उपकार के भार ना उतरी एहिजा. एहसे अनुवाद कइके पूरा संस्कृति समेटला से नीमन होई कि जहाँ औपचारिकता के जरूरत बा, सीधे थैंक्यू बोल दीं आ ओकरा बाद लौटावेवाला नेवतो-पेहान ले लीं.

गुड मॉर्निंग. एकर माने होला (राउर सुबह शुभ होखे, नीके बीते). ई त हमनी किहाँ असिरबाद हो गइल. हमनी किहाँ बड़ असिरबाद देले आ छोट प्रणाम करेले. तीसर त कुछ ना होखे आ पछिम में दूनो में केहूँ भा दूनो गुड मॉर्निंग कर सकऽता. आउर त आउर टाइम देख के अभिवादन करीं. 12 बजे रात के बाद जब फोन आवे त अन्हुवाते ‘सुप्रभात’ कहीं. अपनहूँ जम्हाई लीं आ अगिलो के सरग के सुख दिहीं. ढेर लोग बोली- रतिए खा ? हमार कहनाम बा कि अंतर्राष्ट्रीय दिन शुरू हो गइल नु जी त अपना अंतर्राष्ट्रीय व्यक्तित्व के अब खिले दीं. रेडियो का किरिपा से सुप्रभात त आजकल केहू समझ लेता बाकिर गुड आफ्टरनून, गुड इवनिंग, गुड डे आ गुड नाइट के अनुवाद कतना लोग जानतारे ? आ एह अनुवाद से कवन खजाना मिल जाई भा गंगानहान हो जाई ? ‘सॉरी’ आदि शब्द भी एही तरह के बाड़े सन. हम त ईहे कहबि कि ई शब्द अपने आप में एगो खास संस्कृति के प्रतिनिधित्व करतारे सन. व्यवहार में जरूरी लागे त सीधे प्रयोग में कवनो संकोच ना होखेके चाहीं काहेंकि अनुवाद में कठिनाई बहुत बा. तबहुँओ जो बेहतर अनुवाद मिले त अपना भाषा के कोष बढ़ावे से परहेज ना होखेके चाहीं. ओही शब्दन के अनुवाद कइल ठीक होई, जेकरा हमरा संस्कृति में रच-बस जाए के गुंजाइश होखे.

नोटबंदी

नोटबंदी का एलाने के दिन से हम देखतानी कि सोशल साइट पर कवनो ना कवनो विधा में कला का नितनवीन रूप के दर्शन खूब हो रहल बा. लोग परेशानो बाड़े आ चुहलो करे से बाज नइखन आवत. पहिल बार बुझाइल कि साहित्य, संगीत आ कला नीयन इमानदारियो के सृजन-कार्य (स्वाभाविक का अलावे) बरियारी होखेला. जहाँ लोगन का दिमाग में ईमानदारी डरे ढुके लागल बिया ओहिजे संचार आ जनसंचारो के माध्यम साहित्य, संगीत आ कला का सरोवर में जमिके नहान करे में जुटि गइल बाड़न. नीति आ अनीति पर शास्त्रार्थ जमिके चल रहल बा. भाई, हमरा त तुलसी बाबा याद आवतारे- “को बड़ छोट कहत अपराधू.“ जय हमार प्रिय भारतवासी !

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2 thoughts on “नीक-जबून- 4”

कुछ त कहीं......

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