– डाॅ. अशोक द्विवेदी
रतिया झरेले जलबुनिया
फजीरे बनि झालर झरे
फेरु उतरेले भुइंयाँ किरिनियाँ
सरेहिया में मोती चरे !
सुति उठि दउरेले नन्हकी
उघारे गोड़े दादी धरे
बुला एही रे नेहे हरसिंगरवा
दुअरवा प’ रोजे झरे
बुची चुनि-चुनि बीनेले फूल
आ हँसि हँसि अँजुरी भरे;
जब उतरेले भुइयाँ किरिनियाँ
सरेहिया में मोती चरे !!
चह चह चहकत चिरइयन से
सगरो जवार जगे
सुनि, अँगना से दुअरा ले तानल
मन के सितार बजे
छउँकत बोले बछरुआ;
मुँड़ेरवा प’ कागा ररे;
फेरु उतरेले भुँइयाँ किरिनियाँ
सरेहिया में मोती चरे !!