केसर के गंध लेके पुरवा चलल रहे

by | Jan 24, 2012 | 0 comments


(स्मरण – आचार्य गणेशदत्त ‘किरण’)
(पाती के अंक 62-63 (जनवरी 2012 अंक) से – 8वी प्रस्तुति)

– प्रभाष कुमार चतुर्वेदी

(आखिरी पाँच बरिस)

कविता केसर का गंध जइसन मादक आ पागल बनावे वाली होले. कवि के रचना पर कवि अपना आ पाठक लोग साथे सुनवइयो लोग के पागल बना देला –
केसर के गंध लेके पुरवा चलल रहे
देखलीं त तहरा घर के खिरकी खुलल रहे.

कवि जी प्रकृति का जर्रा-जर्रा में कन-कन में भगवान के दिहल गंध क मजा लेत बाड़न. कवि जी प्रेमी, कविता प्रेमिका. ईश्वर के एह करिश्मा के, के समझा पावेला ? लछुमन, राम क भई रहलन, बाकिर उहो राम क चरित के ना समझ पवलन. कविता क लोच, लचक पर कवि खुद कैस अइसन पागल रहन. एही चाल पर एही अदा पर त कैस निछावर हो गइल.

प्रेमिका के शरीर के छूके जेवन पुरवा चली ऊ प्रेमिका का शरीर क सुगंध लेके चली. जहाँ कवि प्रेमी होखे, कविता प्रेमिका होखे ओहिजा कविता का सुगंध से कवि काहें नाहीं कैस हो जाई ? कवि मजनू हो जाला, कविता लैला.

हमार गुरुदेव ‘किरण’ जी अन्हार के खतम करे खातिर आ भोर लिआवे खातिर जिनगी भर जुझलन. बुला अन्हार अन्हेरे के कहल जाला. जुलम का कारन पढ़ाई छूटल. कालेज आ विश्वविद्यालय क मुंह ना देखलन. हमरा विचार से विद्या स्त्री ह. स्त्री मोह-माया बंधन ह. ज्ञान पुरुष ह. मुक्ति-मोक्ष ज्ञान से मिलेला. अज्ञान के तम के अन्हेर के ज्ञान क एगो किरन भगावेला दूर बहुत दूर. अपना गुरु के हम ज्ञानी मानींला. गुरुजी रहलें – आचार्य, ज्ञानी आ महापंडित.

‘किरन’ जी मुअलन आ मरि-मरि के जियलन. अपना आन-बान खातिर, अपना इज्जत आ शान खातिर, समाज के रक्षा खातिर ऊ रोज-रोज मर मिटत रहलन. अउर जे कही कि किरन जी मर गइलन तऽ ओके हम ‘नासमझ’ कहब. किरन रोजे आपन उजाला भोरे से फैलाई. जब तक धरती आ सृष्टि रही, किरन आपन उजाला फइलावे वाला धरम, अन्हेर मिटावे वाला करम ना छोड़ी. किरन के साहित्य जुग-जुग आपन धरम-करम निबाही. साहित्य के हर विधा – नाटक, उपन्यास, लेख, कविता, समालोचना, गजल, रूबाई, मुक्तक, सानेट, प्रबंध-काव्य, खण्ड-काव्य, हाइकू आदि पर उनकर समान अधिकार रहे.

‘किरन’ जी से पहिला बेरी मुलाकात सन् 2005 में मई-जून के महीना में भइल रहे. मुलाकात के कारन रहे गोरखपुर विश्वविद्यालय में एम॰ए॰ अन्तिम वर्ष में लघु शोध के रूप में हम ‘किरन’ जी के व्यक्तित्व आ कृतित्व“ विषय चुनले रही. ‘किरन’ जी के विषय में, उनका गीत लेखन के विषय में, हम बचपने से सुनले रहीं. मन में भोजपुरी भाषा आ कवि के प्रति भाव रहे, जवन अवसर पावते फूट पड़ल आ उनुका पैतृक गाँव बैरी पहुँच गइलीं.

‘किरन’ जी से जब संवाद भइल कि हम आप पर लघु-शोध करे आइल बानी त उहाँ के विषय पुछलीं. विषय ‘व्यक्तित्व आ कृतित्व’ बतवते उहाँ के इंकार क देनीं. कहलीं बाबू भोजपुरी में एकएगो अगड़घत्त कवि बा लोग, तहरा के हमहीं मिललीं हाँ ? एकरा बाद जब हम जिद्द कइ के पूछे लगलीं त उहाँ के खड़ी बोली में आपन परिचय एह रूप में दिहलीं
किसी संतप्त का टूटा हुआ अरमान हूँ मैं,
नदी के पेट का डूबा हुआ जलयान हूँ मैं.
बुझी-सी वर्तिका हूँ दीप की, जैसे उपेक्षित,
घृणा के योग्य लेकिन हूँ नहीं, इन्सान हूँ मैं.

हमरा मन में अउर कुछ पूछे के आवेग रहे. तब तक उहाँ के कहलीं, अउर जानल चाहऽत बाड़ऽ ?
किसी चक्रान्त का निष्कर्ष हूँ, परिणाम हूँ मैं
प्रभा के शून्य-सा अपकर्ष का आयाम हूँ मैं.
अनल का एक कण, जो दब गया प्रतिकूलता से,
उसी प्रतिकूलता का क्षीण अंग अनाम हूँ मैं.

कवि के प्रति हमार अउर जिज्ञासा बढ़ल. ऊहाँ के आपन अंतिम लाइन में जवन परिचय देहलीं उहे उहाँ के परिचय आ साहित्य के उत्स भूमि हऽ.

हमार नाम वैरागी हऽ बाकिर हम किरन जी से मिललीं त उहाँ के साँचो के वैरागी पवलीं. मान-सम्मान से बहुत दूर सादा जिनिगी बसर करे वाला संत. छल-प्रपंच से दूर. प्रशंसा आ निन्दा से दूर. सहृदय मनीषी. हमरा के शिष्य त बनवलन, बाकिर अतिथि सत्कार कइला का बाद. भरपेट स्वादिष्ट भोजन, ठंढा-गरम सब कुछ खिअवला-पिअवला का बाद.

‘किरन’ जी अपना धर्मपत्नी के नाम ना लेस. ऊ हमेश उनके ‘लिलिया के माई’ कह के सम्बोधित करस. किरन जी आ माता जी अपना जिनगी के छोट-बड़ घटना के हर बात खोल के बतावस हमरा से. कइसे दुराकांछी लोग कतल का केस में फँसवलन. कइसे उनकर प्रिय पुत्र के अभिमन्यु अस चक्रव्यूह में फँसा के कतल कइल गइल. कइसे ऊ पुलिस के दुश्चक्र में प्रताड़ित भइलन. कइसे किरन जी के दारोगा झूठा केस में बूट से मरलस ? घायल शेर, घायल योद्धा अस किरन जी थाना में दहाड़ मारत रह गइलन. कविवर के दुश्मन उनुका के डकैत साबित करे के प्रयास में रहल लोग. आजीवन कारावास के सजा करीब-करीब सुनिश्चित हो गइल रहे. एही बीच कविवर के रचना ‘अग्निपथ’ कोर्ट में लागल. जज एतना प्रभावित भइल कि कविवर बाइज्जत बरीं हो गइलन.

‘किरन’ जी अपना जीवन के अप्रिय प्रसंगन के हमरा से ना बतावसु, लेकिन किरन जी के धर्मपत्नी, (लिलिया के माई) ओह प्रसंगन के भी खुलके हमरा से बतावस. ‘लिलिया के माई’ हर घरी किरन जी के साथ देहली, अंतिम साँसो के उहे साक्षी बाड़ी. एक बार एगो प्रसंग में बतवली कि किरन जी पर एकबार कातिलाना हमला होखे वाला रहे. किरन जी शौच खातिर सुबह-सुबह घर से दूर सुनसान खेत में बइठल रहन. श्रीमती जी छत से देखली हमलावर दूर से आवत बाड़ें सऽ. ऊ बंदूक चलावे ना जानत रही, लेकिन फाँड़ में गोली आ हाँथ में बंदूक ले के तेजी से बढ़ के शौच करत किरन जी के पीछे से गंजी खींच के बंदूक थमा दिहली. धाँय-धाँय गोलियन के गर्जन से सारा गाँव सन्न रह गइल रहे. किरन जी के जान लिलिया के माई एह तरे बचवले रही. आजो लिलिया के माई पचहत्तर बरिस के अवस्था में वीरांगना अस लागेली.

‘किरन’ जी के हम अपना गाँवें उनवाँस जवन हमरा से पहिले आचार्य शिवपूजन सहाय के गाँव हऽ, कई बार बोलवलीं. ऊहाँ के छोट-बड़ एकाध गो सम्मान सभ भी आयोजित करवलीं. एह आवाजाही में हमारा पिताजी पर गुरुदेव किरन जी आ किरन जी पर पिताजी दूनों जाना एक दूसरा पर एतना आकृष्ट भइलन कि पिता जी बार-बार किरन जी के घरे आ किरन जी पिताजी के पास आवसु.

गृहप्रवेश, शादी, तिलक का अवसर पर किरन जी हमार मुख्य अतिथि रहलीं. बड़े-बड़े विद्वान, अफसर, नेता, प्रोफेसर अक्सर आवसु, आ किरन जी के व्यक्तित्व से अभिभूत हो जाव लोग.

एक बार हमरा तिलक का अवसर पर गुरूदेव के साथे, जवन दुर्घटना हो गइल कि हमार पूरा परिवार सन्न रहि गइल. हम आज तक ओह अपराध बोध से निबट ना पवलीं. ऊ अपराध बोध हमरा के ‘किरन’ जी के अन्तिम समय में किरन जी से दूर कई देलस लेकिन किरन जी हमरा मन से कभी दूर ना गइलें. घटना ई भइल कि पूरा गाँव, तिलकहरू आ जवार के भोजन करवला के बाद करीब रात के 12 बजे परिवार के लोग भोजन करे बइठल रहे. गुरुदेव दालान में अन्य सम्मानित अतिथियन का साथे सूतल रहलीं. ऊहाँ के सेवा के जिम्मेदारी हमरा बड़ भाई ‘महात्मा’ के दिहल रहे. एतने में अचानक बरखा सुरू हो गइल. महात्मा जी अन्य अतिथियन के समुचित व्यवस्था करे में जुट गइलें. एही बीच किरन जी लघुशंका खातिर नाली पर जाए चाहत रहलीं. ऊहाँ के कई बार महात्मा-महात्मा आवाज लगवलीं. ओहिजा उपस्थित अन्य लोग ई ना समझ पावल कि किरन जी केके आवाज दे तानी. बड़ भाई महात्मा के घरेलू नाम बबलू रहे. किरन जी बड़ा उत्साही व्यक्तित्व के रहलीं. ऊहाँ के अपना अस्वस्थ शरीर आ कमजोर दृष्टि के दरकिनार कइ के खुद खड़ा होखल चहलीं, लेकिन दुर्भाग्य शरीर धोखा दे देलस आ ऊहाँ के दिवाल के भरम में तेज गति से चलत स्टैंड फैन में हाथ डाल देनी. पूरा पंजा पंखा में पड़ते चार गो अंगुरी कट के झूल गइली सन. खून के फौब्बारा से सारा बिछावन सराबोर हो गइल. डाक्टर के बोलवा के पट्टी बंधावल गइल. खून एतना बहे कि बंद होखे के नावें ना ले. मुख्य अतिथि किरने जी रहलीं. सब स्तब्ध रहे. किरन जी के दर्द घटावे वाली आ नींद क दवा खूब दिआइल. किरन जी कहलीं कि अब हम ना बाँचब. बाकिर तोहन लोग के हम आशीर्वाद देत बानी कि भगवान तोहन लोग क मंगल करसु. आ पिता जी से कहलें कि जेवन होखे वाला होला तेवन होला, विधि के विधान इहे रहल ह. तोहन लोग अपना मन में अपराध बोध मत रखिहऽ जा. सुबह किरन जी कुछ ठीक भइलीं त जीउ में कुछ सांस आइल. पिताजी बहुत दुःख का साथे माताजी (श्रीमती किरन) से घर में जाइके घटना के बतवनी आ दुआर पर किरन जी के देखे खातिर बोलवलीं. किरन जी समझलीं कि हमार परिवार अपराध बोध से घिर गइल बा. हमनीं के सहज बनावे खातिर सुबह किरन जी गा-गा के आँख चमका-चमका के हाँथ से अभिनय कऽ के आपन रचल गीत सुनवलीं. संयोग कि रात के नर्तकी महफिल में इहे गीत गवले रहे. माता जी (श्रीमती किरन) उहाँ के चुप करवावस आ कहस, का लड़िकचुल्ली कइले बाड़ऽ ? हिलला डुलला से फेरू खून बहे लागी. किरन जी कहलन- ‘का बोलऽताड़ू, जब गोली लगला से मउवत ना आइल तऽ हे अंगुरी छिछोहइला से मउवत ना आई.’

‘किरन’ जी के एगो अऊर प्रसंग हमके याद बा. एक बार हमरा दुआर पर विद्वान मण्डली के जमघट लागल रहे. किरन जी ओहू सभा में मुख्य अतिथि रहीं. उत्तर प्रदेश सरकार के वरिष्ठ आई॰ए॰एस॰ विनोद शंकर चौबे, गोरखपुर विश्वविद्यालय के प्रख्यात इतिहासकार व साहित्यकार प्रो॰ माताप्रसाद त्रिपाठी, सागर विश्वविद्यालय के अ॰ प्रोफेसर डॉ॰ आशुतोष मिश्र, डॉ॰ धीरेन्द्र राय, डॉ॰ इन्द्रदेव राय, डॉ॰ अवधेश तिवारी, डॉ॰ महात्मा, श्री सुदर्शन पाण्डेय (प्रोफेसर साहब), डॉ॰ त्रिभुवन जइसन विद्वान साहित्यकार लोग उपस्थित रहे. दुपहर के भोजन के बाद साहित्यिक गलचऊरा सुरू हो गइल. हमरा बाबू जी के किरन जी से बोलवावे खातिर कुछ छेड़े के आदत रहे. ऊहाँ के किरन जी के सुना के कहलीं – ‘इतिहास कुछ ना हऽ. गड़ल कब्र खोद के निकालल, राजा-रानी क कहनी, खण्डहर आ टीला क कहनी हऽ. एके जानल आ ना-जानल बराबर हऽ.’ एह बात पर प्रो॰ माताप्रसाद त्रिपाठी जी कहनी – ‘ना ! एतने इतिहास ना ह, मानव सभ्यता क विकास क गाथा, कुशल शासन-प्रशासन के अध्ययन, आ जन कल्याण के उपाय के खोज इतिहासे बतावेला.’ पं॰ विनोद शंकर चौबे कहलन – ‘एतने ना. हमरा प्रशासन क खामी, गुण-दोष, दिश-निर्देशन, मार्ग-दर्शन इतिहासे से पता चलेला. देश में सुख-शंति कायम कइसे होई, ई उपाय इतिहास बताई.’

किरन जी मौन सधले रहीं. बाबूजी फिर आपन एगो बिना माँगल सलाह देहनीं – ”आप लोगन के चाहीं कि सरकार के सलाह देहीं जा कि हिंदी आ इतिहास क पढ़ाई बंद क देहल जाय.“ किरन जी – ‘ल ना ! ई काहें?’
बाबू जी – ‘कविता का हऽ’ – ”एगो झूठ कल्पना. नदी गावतिया, फूल हंसऽता, हिमालय सर उठवले बा, ई झूठ ना त का हऽ. कविता में रोवऽ, रोवावऽ, गावऽ, गवावऽ, ई कुल का हऽ. समय बरबाद कइला क सिवा ?“
किरन जी एकर जबाब दिहलीं –
इन्सान वही जो रोता है इन्सान वही जो हंसता है
गैरों के सुख-दुःख में न जिए इन्सान नहीं वो पत्थर है.

किरन जी अपना अंतिम समय में शारीरिक रुप से एकदम अशक्त हो गइल रहीं. कान, आँख, पैर, सभ जबाब दे देले रहे, खाली वाणी के ओज बचल रह गइल रहे. हम अपना चरित्रवन वाला मकान के गृहप्रवेश में ‘किरन’ जी के लेबे खातिर उहाँ के सोहनी पट्टी वाला मकान पर गइल रहीं. बाबूजी गृहप्रवेश के दू-दिन पहिलहीं गुरूदेव से आवे खातिर अनुरोध कइले रहीं. किरन जी हमरा किहाँ आवे खातिर बहुते उत्साहित रहीं. हम उहाँ के पीठ पर टाँग के घर से मुख्य सड़क तक ले अइनी आ फेरू रिक्श से आवास पर. गुरूदेव के ओह दिन के शान-बान एकदम निराला रहे. हांथ में सुन्दर छड़ी, सर पर काली टोपी. चमचमात कुर्ता-धोती पर काला जैकेट. कंधा पर पश्मीना के शाल. शाल के ऊपर एगो गोटादार झालरदार गमछा. साइत किरन जी का पोशाक का सामने ओह दिन पं॰ नेहरूवो जइसन पोशाक के सौखीन एकदम हवा हो जइतें. तिरछी काली टोपी, गरदन एगो विशेष अदा में तिरछा सहारा लेके. चलत खानी चाल में एगो गजब बड़प्पन झलकत रहे.

मकान पर पहुँचते ओहिजा उपस्थित सभ अतिथि लोग किरन जी के उठ के स्वागत कइल. बातचीत होखे लागल. जलपान के बाद पिताजी गुरूदेव के गला में एगो बड़हन फूलमाला डललीं.

पिताजी कहलीं – ‘भाभी जी में देवर के आधा हक होला कविवर. उनका गला में भी माला डाल देईं नऽ?’

गुरूदेव कहलीं – ‘अरे ! आपके आधा हक नाहीं पूरा हक बा. आधा हक त समाज देलहीं बा आधा आप वकील हईं लड़ि के लेइये लेब.’

‘तऽ आपकऽ आज्ञा बा नऽ ?

गुरूदेव – ‘हँ जी, आप उनका गर में जयमाल डाल देहीं आ ऊ आपका गर में जयमाल डाल देंसु, गनना त हम जानते बानीं कि आप लोग के पहिलहीं ले बनल बा.’ एकरा बाद दूनों जन ठठाके हंस देहल.
ना आरती उतारे मन्दिर में लोग जाई
ईमान अगर नर में तनिको बनल रहे..
हम दर्द सुनवलीं त सब मुस्कुरा उठल
कुछ लोग बतावल जे बढ़िया गजल रहे..
कुछ लोग बतावल जे भाष के दोष बा
एने त अपना मुँह पर बारह बजल रहे..

बेईमानी आ ढकोसला के खिलाफ किरन जी बिगुल फुंकले रहलीं जिनगी भर. जमाना से लड़लीं बाकिर झुकलीं ना. ‘मुंह पर बारह बजल रहे’ एगो क्रांतिकारी नारा हऽ, कविवर के. अभाव के जिनिगी में भी प्रशंसा आ निन्दा से दूर. जइसे कैस के जमाना पागल कहल, ओइसहीं किरन जी जिनगी भर पागल कहइलें. राणा प्रताप दर-दर ठोकर खइलन बाकिर अकबर के जै ना बोललन. प्रताप पागल रहलन आजादी के. कैस पागल रहे प्रेम के, किरन पागल रहलन राणा नियर आन के, कैस नियर लैला के, प्रिया कविता, प्रेमिका कविता आ सुन्दरी कविता खातिर.

लैला माने कालिख, किरन माने अंजोर, ज्योति, प्रकाश. जइसे रात के बिना दिन के अर्थ नइखे, वइसहीं लैला बिना कैस बेमानी बा. अइसनें अन्हार आ, किरन के सम्बन्ध बा. जग के अन्हार मिटावत-मिटावत किरन अमिट हो गइलन. उहां के चहितीं त खूब ठाढ-बाट के जिनिगी बीतित, बाकिर राणा के अरावली में भटकल पसन्द रहे. किरन जी अपना सिद्धांत से समझौता कबो ना कइलन.

किरन जी हमनी के छोड़ के चल गइलन, लोग अइसन कहत बा. हमरा त इ बुझाता कि किरन जी आजुओ कहीं नइखन गइल. ऊ उहें गइलन जवन मनुष्य के, जीवात्मा के अंतिम लक्ष्य होला.


पिछला कई बेर से भोजपुरी दिशा बोध के पत्रिका “पाती” के पूरा के पूरा अंक अँजोरिया पर् दिहल जात रहल बा. अबकी एह पत्रिका के जनवरी 2012 वाला अंक के सामग्री सीधे अँजोरिया पर दिहल जा रहल बा जेहसे कि अधिका से अधिका पाठक तक ई पहुँच पावे. पीडीएफ फाइल एक त बहुते बड़ हो जाला आ कई पाठक ओकरा के डाउनलोड ना करसु. आशा बा जे ई बदलाव रउरा सभे के नीक लागी.

पाती के संपर्क सूत्र
द्वारा डा॰ अशोक द्विवेदी
टैगोर नगर, सिविल लाइन्स बलिया – 277001
फोन – 08004375093
ashok.dvivedi@rediffmail.com

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(1)


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(3)


24 जून 2023
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(4)

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(7)
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(5)

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