‘गंगा-तरंगिनी’ (पुस्तक समीक्षा)

by | May 5, 2012 | 0 comments

जिये-जियावे क सहूर सिखावत अमानुस के मानुस-मूल्य देबे वाली ‘गंगा-तरंगिनी’
‘गंगा-तरंगिनी’ (काव्य-कथा) अभिधा प्रकाशन, मुजफ्फरपुर. मूल्य – पचास रुपये.
प्रथम संस्करण. कवि – रविकेश मिश्र

(पाती के अंक 62-63 (जनवरी 2012 अंक) से – 22वी प्रस्तुति)

– सांत्वना द्विवेदी

गंगा के दूनो पाट मनुष्य के जिये आ जियावे के सहूर सिखावेला. ओकरा भव-बोध के नया आधार नया विस्तार देला. गोमुख-गंगोत्री से निकलल गंगा उत्तराखंड से यू.पी., बिहार होत पच्छिम बंगाल गंगासागर तक का यात्रा में पहाड़, जंगल आ खेती के त जीवनी-शक्ति मिलबे करेला, पशु-पक्षी आ मानव के यति-गति आ प्राण मिलेला. रास्ता में ऋषिकेश, हरिद्वार, प्रयाग आ काशी जइसन जगह गंगा का निर्मल जल का पवित्रता के धरन कइला से, पुण्यवान तीरथ बन जाला. परलोक से लोक आ लोक से लोकोत्तर क यात्रा ह ई गंगा. ‘भारतीय मन’ – खास कर ‘लोकमन’ से शाश्वत संबंध बनावे वाली गंगा राह में जवना-जवना नदियन से मिलि के ‘संगम’ रचेली ऊ जगहिये पतितपावन हो जाला. ओइजा स्नान कइ के लोग तन-मन निर्मल करेला. गंगा का प्रति अनुरागी आस्था आ विश्वास के, ‘लोक मन’ में बढ़ियात लहर आज तक नइखे थमल – चाहे ऊ जतना बढ़ियासु भा बहावसु, इहाँ के लोगन के जिये-मुवे दूनो हालत में गंगाजी रोग-शोक-पाप नाशिनी परम फल दायिनी बाड़ी.

त एही गंगा क ‘स्मृतिबोध’ करावत, एक सौ सोलह सवैयन क संग्रह हवे – पं. रविकेश मिश्र के ‘गंगा-तरंगिनी’. लोक-भावना आ आस्था के सँजोवल, इतिहास-परंपरा आ संस्कृति के सहेजल, ‘महिमा’ आ ‘महातम’ क सकारल मानवी-विवेक के नाँव हवे ‘गंगा-तरंगिनी’. गंगा के उद्गम, अवतरण, लीला-यात्रा के अतीत आ वर्तमान से जोड़त रविकेश मिश्र गंगा के आज के विडंबनामय-जथरथ से रू-ब-रू करावत बाड़न जवन में गंगा के अस्तित्वे दाँव पर बा. जवना में ऊ जनतंत्री दोमुही-ढुलमुल-राजनीति के शिकार होत बाड़ी, जवना में मानव-मूल्यन क छीजत-भिहिलात आ अतिक्रमण क भेंट चढ़त बा. गंगा आ उनकर दूनो पाट बड़-बड़ शहरन का गंदगी, कचरा आ सड़ांध के बटोरत, समेटत गंगा से मनुष्य क दूरी दिन पर दिन बढ़वले जा रहल बा.

भोजपुरी भाषा के बेंवत आ ताकत से, ‘भोजपुरी मन’ के सरधा-विस्वास आ चिंता-फिकिर से भोजपुरी क्षेत्र का सोच-सरोकार आ भावना से जुड़ि के ‘गंगा जी’ के ई स्तुति-स्तवन, प्रार्थना-निहोरा अद्भुत बा. गंगा-तरंगिणी में 116 गो सवैया संकलित बा. कवि का अनुसार ‘लोकमन’ में बसल, ‘लोक संस्कृति’ में रचल-रमल गंगा के वर्तमान दश के व्यथा-कथा कहला का साथ-साथ ‘गंगा के बहाने देश-दुनिया के खोज-खबर लेहल’ चाहऽता. सुधी-सहृदय-संस्कारित-सुसंस्कृत कवि पं. रविकेश मिश्र, का भीतर गंगा के जवन छवि-छटा उभरल, ओके सजीवे उरेहे आ आस्थावान लेख गंगा के विमल-सुयश गावे-सुनावे में ‘गंगा-तरंगिनी’ के रचना भइल होई, एम्मे कवनो शक-शुबहा नइखे. खुशी एह बात के बा कि गंगाजी के बहाने कवि जब अपना देश आ समाज के अंदरूनी चाल-ढाल के पड़ताल करत बा, त तटस्थ नइखे रहि पावत ओकर धार आ तेवर बदल जाता. उहाँ ऊ गंगा के जरिये बिगड़ल ‘जनतंत्र’ के छिपल चेहरा देखावे के सार्थक उतजोग करत लउकत बाड़न.

‘सुमिरन’ के पहिली लाइन में गंगा जी के ‘गणेश के माई के सौति’ कहलें बाड़न, एगो पिटा-पिटाइल परिपाटी पर चलके उनकर बखान नइखन कइले, एगो देवी के रूप् में सुंदर से सुंदरतम बनावत, नख-शिख वर्णन नइखन कइले. गंगा माई कइसे भरत के गँवई संस्कृति से जुड़ल बाड़ी एकर वर्णन ‘रोटी-बेटी’ में लिखत ख रविकेश मिश्र कहत बाड़ें –
‘ओही कमाई में सबके समाई बा,
मनई से चिरई-चुरूंग के हिस्सा.’

माने सभकरा के साथ लेके चले वाला संस्कृति में परिवार के सदस्य निहर हिस्सेदारी करत गंगा माई. ई कृति लोक संस्कृति के संगे-संगे गंगा मइया के रूपक के जरिये एगो अउर खस संस्कृति के परिकल्पना करत बा, ऊ ह लोकतंत्र के संस्कृति, जहाँ ऊ कहत बाड़न कि छोट आदमी, होखे भ बड़, कौनो जाति धर्म के होखे, भले ऊ देश के पूर्व प्रधनमंत्री जवाहरलाल नेहरू होखस सभकर, राखि ओही धरा में समाविष्ट हो जाला.
लंदन लौटल नेहरू के भी जब
राखि समेटि एही में फेंकाला.

अपना भूमिका में रविकेश मिश्र एह बात के स्वीकारो कइले बाड़न कि ‘जवने तरे गंगा ब्रह्मा के कमंडल में रहि के व्यक्तिगत संपत्ति रहली आऽ फेर सार्वजनिक हित खातिर धरती पर अइली, का ई एगो रूपक नइखे हो सकत – सत्ता के, समृद्धि के – व्यक्तिगत राजशाही से मुक्त होके लोकतंत्र के रूप में ढलले के.’ गंगा राजा के ना, लोक के बाड़ी.

संस्कृति और परंपरा से जुड़ल गंगा के एह रूप में देखला में आधुनिक सोच बा एगो आधुनिक दृष्टि बा जवना से एह कविता के एगो सांचा दिहल बा. एह कृति के खूबसूरती, एहकर गरिमा एही मंतव्य में छुपल बा. हमनी के आज समाज में जवन आधुनिकता ले आवे के कोशिश करऽ तानी जा. या विद्वान लोग जवन यूरोपियन आधुनिकता के नकार के भारत के आधुनिकता के देशज आधुनिकता कहत बाड़ें अउर ओकर बीज मध्ययुग के साहित्य में परंपरा से जोड़ के देखत बाड़े, ओह लोगन के तनी झांक के एक बार हमनी के क्षेत्रीय साहित्यो, लोक साहित्य में भी देख लेबे के चाहीं.

काफी समय बाद भोजपुरी में लंबी कविता देखे के मिलल, खुशी भइल कि कृतिकार एके प्रबंध काव्य नइखन बनवले. लमहर कविता लिखे के परिपाटी लगभग खतमे होता, अइसने में एह विधा के प्रयोग कइल अपने आप में बेजोड़ बा. अउर ओहू से बेजोड़ बा एह कविता में भइल प्रयोग. मिश्र जी कविता के कुछ उपशीर्षक भा मथेला में बंटले बाड़े जइसे ‘कथा-पुरान’, ‘लोक-मत’, ‘आपन-मत’, ‘रोटी-बेटी’ आदि. लेकिन ओकरा के बँटलो के बाद कविता के लय गंगाजी के धार नियर टूटल नइखे. मिश्र जी खुद भी मानेलन कि ‘कविता आ नदी के धार मनमौजी ह.’ आ भाषा त ठेठ माटी में सनाइल बिया, ओह में शिष्टता खोजल मूर्खता होई, इहे एह कृति के सफलता ह कि ई लोकजन खातिर ह अभिजन-खातिर ना. कालातीत कवि हमेशा कृति पर कम रचना-प्रक्रिया पर ढेर कहे के कोशिश करेला, मिश्र जी के ई पंक्ति हमके अज्ञेय के ‘शेखर: एक जीवनी (1)’ के भूमिका के याद दियवलस –
तीस बरस ले बीज पकल,
टकटोरत राह, न लांघत घेरा.

बिम्ब अइसन बाटे कि अगर रउवां ओह संस्कृति, परंपरा, आ माटी के रग-रग से वाकिफ नइखीं त रउवां बुझाई ना. जे सूर्य भगवान अउर संध्या के बियाह, फेरू, यम और यमुना के जन्म, संध्या के छोड़ के गइल आ बाद में अइला के मिथक जानत होई उहे एह पंक्ति के बूझ सकेला – ‘साथे बहावें कलिन्दी के ऊ, जमराज भी आवे त बार न टूटी’.

वर्तमान में गंगाजी के जवन स्थिति बा ऊ शोकजनक बा. भूपेन हजारिका के गीत याद आवत बा ‘ओ गंगा तुम, ओ गंगा बहती हो क्यों?’


पिछला कई बेर से भोजपुरी दिशा बोध के पत्रिका “पाती” के पूरा के पूरा अंक अँजोरिया पर् दिहल जात रहल बा. अबकी एह पत्रिका के जनवरी 2012 वाला अंक के सामग्री सीधे अँजोरिया पर दिहल जा रहल बा जेहसे कि अधिका से अधिका पाठक तक ई पहुँच पावे. पीडीएफ फाइल एक त बहुते बड़ हो जाला आ कई पाठक ओकरा के डाउनलोड ना करसु. आशा बा जे ई बदलाव रउरा सभे के नीक लागी.

पाती के संपर्क सूत्र
द्वारा डा॰ अशोक द्विवेदी
टैगोर नगर, सिविल लाइन्स बलिया – 277001
फोन – 08004375093
ashok.dvivedi@rediffmail.com

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