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गुदगुदी में लोर

by | Mar 30, 2021 | 0 comments

  • आशारानी लाल

अबहिंए सोझा एतना न परछाई रेंगत रहीसन कि ना बुझाय कि कवना के ढेर निहारीं आ कवना के कम। मन अउँजिया गइल रहे। देखलीं कि कुल परछाइँयन बिचे तऽ हमहीं खड़ा बानीं, ई कुल तऽ अपने बाड़ीसऽ, साथे-साथे ओमें जे लोगवो लउकता- ऊहो अपने बा। लगलीं निहारे। असल में बात ई रहे कि हम अकेलहीं बइठल रहीं।

अकेलहूँ बइठे के एगो बेरा होला। ई बेरा कब होई आ कब एकर सामना करे के परी- एके केहू जानेला ना। हम तऽ अपना भर जिनगी ई बात सोचलहूँ ना रहीं, बाकी जब कपारे पर गइल, तब का करीं? हमार बाबूजी हमार बियाह भरल-पूरल घर में कइले रहन। ओह घरी हमरा घर में खम-खम लोग भरल रहत रहे। हमरा दूगो ससुर आ दूगो सास रही। हम दूनो ससुर के बड़का आ छोटका बाबूजी कहत रहीं, ओसहीं सासो लोगिन के बड़की आ छोटकी अम्माँ कहल करीं। बहुत दिन ले हमरा ना बुझाइल कि एह बड़का-बड़की आ छोटका-छोटकी में, के हमार अपन सास-ससुर बा। हमरा ई बात केहू से पुछहूँ के धिधिरिक ना परत रहे, हँ मने-मने चिन्हे परिचे के सोचत रहत रहीं। एह सोचला-बिचरला में केतना दिन-रात बीत गइल, ना बुझाइल, काहे कि सूरज बाबा क उगल आ बूड़ल देखे के तऽ कबो हमके मोके ना भेंटात रहे।

सूरज आ चाँन त ओह घरवा के लोगवे रहे। कहते बानी कि ओह घर में बहुते लोग रहे। बियाह का पहिलीं सुनले रहीं कि हमार दुलहा छव भाई आ चार बहिन रहन। ओहू में ऊ सबसे बड़ भाई रहन। घर क बड़की पतोह बनला से सबकर अरमान हमरे पर टीकल रहत रहे। घर में दिन-रात देवर-ननद लोग भरल रहत रहे, तब हम कब सूरज आ चान का ओरी ताकीं। हमार मनवा तऽ ओही लोगिन क देख-देखके कपसल रहत रहे। केहू क सोझा तऽ हम खटिया-मचिया पर बइठते ना रहीं, कबो बइठे के मोको भेंटाय तब भड़ से केवाड़ी भुड़के आ घर में केहू न केहू हाजिर हो जात रहे- ई बात कहते-कहते कि अरे! हमार भउजी अकेले बइठल बाड़ी का? ऊ तऽ उदासिए गइल होइहन, चाहे अपना नइहर क अँगना में पहुँच गइल होइहन, तबे नऽ कहे लोग कि- का-ए-भउजी तोहके के पकड़ले रहल हऽ – कि कूदके खटिया पर से नीचे बइठ गइलू हऽ। तोहार भइया लोग तोहके दबोचले ना-नऽ रहल हऽ? का- करीं, हमरा त ई कुल बात ओह घड़ी बुझाते ना रहे।

ऊ घर हमार ससुरा रहे, एहिसे उहाँ क छोटो लइका-लइकी हमसे ओहदा में बड़े रहे। छोटो से अदब-लिहाज आ इज्जत से बतियावल हमार फर्ज बनत रहे। हम ओह घर क पतोह रहीं चाहें दुलहिन-बलहिन बनल रहीं तब हमके चाँहीं कि भुंइयाँ चटाई चाहे बोरा बिछा के बइठीं। कवनो देवर ननद से ऊपर हमके बइठे के ना चाँहीं। मने-मने एह बात के ठेस हमके बहुत चोट पहुँचावत रहत रहे, बाकी देवर लोग कुछु-कुछु कहिके हँसावत रहत रहे तब मन क घाव छू मंतर हो जात रहे। हमहूँ ओह लोगिन क बाते में सब खुनुस भुला जात रहीं।

एक सबेरे से सास-ननद क आवाजाही शुरू हो जात रहे, रोज सबेरे भोर होते होते, जब चुहचुहियवा बोलेले, ओही घड़ी हमके अपना देंह क काम से फुरसत पावे के परत रहे। सब लोगवे कहत रहे कि दुलहिन क उठल, हाथ-मुँह धोवल, नहाइल-धोवल केहू के देखे के ना चाँहीं। हमहूँ इहे करत रहीं। डर लागत रहत रहे कि ननद लोग के घर में घुसे के बेरा हो जाई। अवते लागी लोग हाथ चमका के आ थपरी बजाके हमके चिकोटी काटे; साथहीं तरह-तरह क बोलो बोली- कि राते का भइल रहे ए- भउजी? हमार त मन करे कि एह लोग
के लगाईं- दू चपत, बाकी हमार खीस जुरते गायबो हो जात रहे ।

कबो-कबो हम इहे सोचीं कि बाबूजी कहले रहन कि हम ओह घर क बड़ पतोह बन के जाइब तब बहुते मान-मर्यादा आ इज्जत पाइब। बाकी इहाँ तऽ हमहीं सबसे छोट बनल रहीं। असल में बाबूजी त दुअरा पर रहत रहन, घर का भितरी का होला- ऊ जनते ना रहन। हम केतनो पढ़ल लिखल रहीं त का, एह घड़ी आ ओह लोगन क बिचे हमार कुल पढ़ाई-लिखई क गिआन ओसहीं भुला गइल रहे- जइसे ऊधव क गिआन गोपिन लोग का सोझा। कहे के ई बा कि ओह घर में सब एक दूसरा क भाई-बहिन, माई-बाप, चाचा-चाची चाहे बेटा-बेटी क एगो गुटे रहे। ई गुट सियारन क बोली जब न तब बोलल करत रहे। जइसे एगो सियार हुँआ-हुआँ करेला तब कुल्ही एके साथे हुँआ-हुआँ करे
लागेलन सन। असहीं घर में पतोहन क कवनो बेजाँय चाहे बोली-चाली पर भर घरवे चिल्लाए जागत रहे। पतोह क कइसे रहे के चाँहीं, केकरा से बोले-बतियावे के चाँहीं, कबो नइहर क बखान ना करे के चाँहीं एह कुल नियम-कानून क जानकार पूरा घरवे रहे, एहिसे सब एकही बोली एक्के साथे बोले लागे। ई कुल ओह घर क रहन-चाल देखके हमहीं नाहीं गाँव जवार क सब पतोह लोग चुपा गइल। मेहरारून क इहे चुप्पी ओह लोग के देबी बना देलस- ए बाबूजी।

बाबूजी देबी क पदवी पाके मेहरारू लोग खुश भइल कि ना- ई बात तऽ केहू पुछबे ना कइल। तब अब रउरा सुनी कि राउर दीहल गुलजार घर में कइगो पतोहन के अइला से खूबे लोग बढ़ गइल। हम ओह घर क खाली बड़की पतोहे ना हीं, हमरो बेटा-बेटी, पतोह-दामाद, नाती-नतकुर, पोता-पोती बहुते लोग आइल आ ऊ घर अब बवरी लोगिन से खमच गइल रहे। ओह घर में ए- बाबूजी हम बहुते खुश रहीं, दिन-रात सबका बीचे चहचहातो रहीं, बाकी भइल का कि राउर एह दुलारी धिया चाहे भगमनिया बेटी क भगिए एक बेरिए उलट-पटल गइल। ऊ लोगिन क बीचे रहियो के अकेल हो गइलीं आ उदास रहे लगलीं।

बाबूजी भरल घर क लोगवा तऽ अबो रउरा बेटी के खूबे पूछेला, बोलेला, बतियावेला, बाकी सोझा केहू लउकेला ना। ऊ लोग रउरा बेटी के हँसइबो करेला, कबो-कबो चिकोटियो काटेला तबो कवनो मनई-मानुष सोझा रहिके ई कुल ना करेला। रउरा पूछब कि तब ई कुल कइसे होला- तऽ सुनी! एगो छोटहन करिया मशीन जेके लोग मोबाइल कहेला- उहे लोग हमरा हथवा में धरा देले बा आ कहले बा कि ई जब इ मोबाइल घनघनाई तब हम एकर एगो बटन दबाके अपना कान में सटा लिहल करब। हमके ओह लोगिन
क कुल बात ओहि में सुना जाई। सब बतिया सुनियो के हमार मन ओह लोगिन के देखे खातिर ओसहीं तरसत रहि जात रहे, जइसे-जाड़ा-पाला क दिन में दुअरा पर पसरल घाम सुन के ओके लोढ़े खातिर भितरी घर में बइठल पतोहन के। सबकर बोली- बात आ बिचार तऽ कबो-कबो ओह मशीन से सुनाइए जाला, बाकी ए बाबूजी- ऊहाँ हमके कवनो मनई-मानुष ना लउकेला। ऊ घर जेके एक बेरी मनसाइन घर कहल जात रहे, ओइजा बात-बात में हँसी-ठहाका गूँजत रहत रहे- अब ओइसन घर तऽ लउकबे ना करे। ई मनवा लोगिन से भरल-पूरल घर में रहियो के सबसे बोले बतियावे खातिर छटपटाते रहि जाता, ओसहीं जइसे पानी से बहरा आके मछरी छटपटाले।

साँच पूछीं तऽ ए बाबूजी! अब हम रउवा के गुहार लगा के ई कहल चाहतानी कि राउर सउँपल लोगिन से भरल घर में हम अकेल भऽ गइल बानीं, जबकि घर भर क सब लोगवा हमार अपने बा। एही घड़ी राउर सोच कि दू-गो ससुर आ दूगो सास अवरी दसगो भाई-बहिन क बिचे हमरा के रउवा भेंजले रहीं- कुल पुरान बात भऽ गइल बा। अब ई घर लोगिन क नया गिआन से भर गइल बा। घर बाहर सब जगह एह मोबाइल क हवा एतना तेज बह रहल बा कि ऊ अब लूहे बनके नइखे रह गइल, ऊ आन्ही-तूफान क रूप ध्यार लेले बा। जेकरा लगे मोबाइल बा ऊ केहू दूसरा का ओरी तकते नइखे। हरदम ओही में ताकत-झाँकत रहऽता। एगो कवि गागर में सागर क बात कहले रहन, बाकी इ नन्ही चुकी मोबाइल जइसन सीसी में तऽ पूरा दुनिया-जहाने भर गइल बा। बाबूजी! एहिसे छोट-बड़ सब एके अपना हाथे में लेले रहता। इहे कहे के परऽता कि- ”पास रहिके भी हैं कितनी दूरियाँ, हाय रे इंसान की मजबूरियाँ।“ ई मजबूरी हमरा जइसन सब उमिरगरो लोगिन के भऽ गइल बा।

अब हमरो चहचहात सुख के दिन क अन्त हो गइल बा। लागऽता कि ऊ दिनवे उलट-पलट गइल बा। बोले-बतियावे के तऽ सभे बोलत-बतियावत बा, बाकी सोझा केहू लउकत नइखे। पछतावा इहे बा कि हम एह नया पढ़ाई के तऽ पढ़लहूँ नइखीं नऽ- एहिसे अब सब लोगिन का बीचे बउराहिन बन गइल बानी। हम तऽ जब पढ़त रहीं त ना- त् रेडियो देखले रहीं, नऽ टी0बी0, तब आज क ई नया-नया मशीन जेके- टच मोबाइल, कम्प्यूटर आ लैप-टाप कहल जाला कइसे जानब? अब ई कुल तरह-तरह क मशीन आके सब जगहा अपन अइसन तूफानी हवा चला देले बा- कि हमरा अइसन उमरदराज पुरनका लोग एह भरल घर में रहियो के अकेल भऽ गइल बा। पुरनका लोगिन क अकेल बइठल देखिके घरवा क
कुल मनसाइन चहचहात बतिया झुण्ड बना के बेर-बेर झूमत-झामत चल आवत बाड़ी सऽ आ ओह लोग के घेर लेत बाड़ीसन। एह झूमत इयादन के परछाईं सब ओरी पसर जाता। कबो-कबो मन मार के, हमरो के बइठल देख के ई कुल पुरनकी बतिया गुदगुदावे लागत बाड़ी सऽ तऽ कबो जोर-जोर से चिकोटी काट लेत बाड़ीस, तबो हमार मनवाँ हँसत-बिहँसत नइखे, बलुक दुनू अँख्यिा भर जा तारीसन। काहे अइसन होता, हमरो नइखे बुझात – गुदगुदी में ई लोर कइसे बहे लागता? अकेले बइठके हँसलो तऽ हम नइखीं नऽ जानत तब बुझाता कि ई रोवलके आसान बा। एह उमिर में सबका बीचे रहियो कि, हमरा अस लोग अब अकेलहीं भऽ गइल बा। लागता कि अब असहीं अकेल चुपचाप
बइठल-बइठल हमनी के जिनगी के ई दिया एह इयाद क परछाईंन के बीचे कब आ कइसे बुता जाई- ए घरी के लोग जानियो ना पाई। बुताइल दिया बाती क बास जब मोबाइल वाला लोगिन का नाक में जाई तब न लोगवा हड़बड़ा के दउरी-भागी।

(पता – काकानगर, डी-2/147, नई दिल्ली-110003)

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