चितकबरा पहाड़ वाला गाँव

by | Jun 13, 2021 | 0 comments

  • अशोक द्विवेदी

चितकबरा पहाड़ का अरियाँ अरियाँ जवन ऊँच-खाल डहरि ओने गइल रहे, ओकरा दूनो ओर छोट-बड़ गई किसिम के बनइला फेंड़ रहलन स. कुछ हरियर पतई से झपसल आ कुछ एकदम निझाइल. टप्पा-टोइयाँ कुछ कँटइला झाड़ आ मुँजवानी.

पुलिया का बगल में बनावल चउतरा पर खड़ा हमरा मन में एक-ब-एक खेयाल आइल कि ओह सुनसान निरजन राह से आवे वाली आदिवासी मेहरारुवन के करेजा कतना पोढ़ बा. साँझि खा जब ओह पहाड़ के अपना अँकवारि में भरेले त अचके एगो करियाह बादर ओकरा किनारा रेंगे लागेला. अन्हार के चद्दर फारत, बजार से लवटत मेहरारुवन के जमात निधड़क फाल डालत, पहाड़ का ओह पार अइसे चल जाला, जइसे ऊ डहरि जुग-जुगांतर से उनहन के चीन्हत जानत होखे आ चितकबरा पहाड़ उन्हनी के रखवारी करत होखे.

थोरिकी भर हटि के दू तीन फर्लांग दक्खिन एगो अउर पहाड़ रहे, जहवाँ गाड़ल दू गो ऊँचा खम्हा पर टँगाइल दू गो टाली साफे लउकत रहुवी सऽ. उहाँ से खम्भा-दर-खम्हा खिंचाइल तार फैक्ट्री में चलि गइल रहुवे. ‘रोप वे’ पर लटकल ई टाली जब अपना ‘फुल इस्पीड’ में फैक्ट्री का ओर जाली स, त उन्हनी के चिचियाहट आ कर्कस आवाज एह शान्त इलाका के शांति छिया-बिया क देला आ सड़क प जात लोग बरबस मूड़ी उठाइ के ऊपर देखे लागेला.

पुलिया का बायाँ अलँगे बनल ढलान चितकबरा पहाड़ का ओर गइल रहे. ओकरा बारे में जाने खातिर हमार मन अभी कुनकुनात रहे कि एगो नंग धड़ंग आदिमी ढलान से उतरत लउकल. हमरा भीतर से एगो आवाज निकले-निकले भइल, बाकि गर में बाझि गइल. जइसे हम कुछ पुछतीं, ऊ आदमी होह निकल गइल. ‘आज जरूर हम ओने जाइब बे गइले खाली सुनल-सुनावल बात आ कपोल-कल्पित कहानियन का
आधार पर इहाँ का बासिन्दन का बारे में कवनो धारना बना के लवटल हमके हमेसा कचोटत रही’, हम सोचलीं आ हमार गोड़ खुद-ब-खुद ढलान का तरफ बढ़ गइल.

जवन डहरि हमके लम्मा भइल सुनसान, निरजन आ पातर लागल रहुवे, निगिचा गइला पर साफ-सुथरा, चिक्कन आ चाकर लागे लगुवे. बे-पतई के लँगटे खड़ा उदास फेंड़न के टुसियाइल डाढ़ि ई बतावे लगुवी सन कि जल्दिये ई हरियर-हरियर पतइयन से तोपा जइहन स. तकरीबन दू किलोमीटर आगा गइला पर हमके जवन कुछ लउकुवे ऊ अपना आप में एगो अचरजे रहुवे.

लम्मा भइल भकसावन लागे वाला ऊ चितकबरा पहाड़ आगा जाके एगो आसान ढाल में बदल गइल रहुवे. हमरा सोझा एगो बहुत बड़हन घाटी रहुवे. चारु ओरि से फेंड़न से घेराइल. ‘बुझला एक दू किलोमीटर अउरू आगा गइला पर जंगल होई…..’ हम सोचुवीं. ढाल से नीचे एगो हरियर मनसायन गाँव लउकत रहुवे. तकरीबन पाँच-छव बिगहा में फइलल ओह समतल जगहा में, ठावाँ-ठँई पत्थल सरियाइ के बनावल कई गो घर उहाँ के रहे वालन के जीवट आ साहस के छछात सबूत रहुवन स. हम आपन नजर एक बेर चितकबरा पहाड़ पर डलुवीं. ओकरा ऊँच बड़हन काया पर अनगिनत छोट बड़ फेंड़ आ झाड़ी उगल रहुवे. ओही पर एगो दू गो गाइयो बकरी चरत लउकत रहुवी स.

गाँव कहाये वाला एह दस पनरह घरन का टोला का चारू ओर खेत के छोट-छोट कई गो टुकड़ा रहुवे, जवना के हरियरी ई बतावत रहुवे कि ई थोरिकी भर लोग अपना पौरुख आ मेहनत से एह जगह के धीरे-धीरे खेती जोग बना लेले बा. हम ढलान से नीचे उतरि आइल रहुवीं. घाम आ पसेना से अकुताइल मने मन ईहे सोचत रहुवीं कि कहाँ से कहाँ हम एह अनचीन्हल जगहा प आ गइनीं. अतने में एगो टनकार गीत के सुरलहरी हमार ध्यान अपना ओर घींचि लेहुवे. हम ओही दिसा में, छाँह फइलवले खड़ा फेंड़ का ओर फलगरे बढ़ि गउवीं.

ओरियइँ-ओरि पान बोअलीं
अहो रे पान बोअलीं
सोइ पान चढ़ि गइले छन्हियाँ
त छन्हियाँ सुरँग भइले… …. ….

वाह? के कही कि ई निपढ़ पहाड़ी लोगन के गाँव हऽ? कुछ मेहरारू एगो छोटहन फेंड़ का नीचे बइठि के गावत रहुवी स. लगहीं एगो फूस के ओहार ओढ़ले दू कोठरी वाला घर रहुवे. ओकरा दुआरी पर, कोरा में एगो आल्हर लड़िका लेले एगो जवान मेहरारू हँसत रहुवे. बुझला ई मेहरारू लड़िका भइला के खुसी में सोहर गावत बाड़ी स. एह दुपहरिया में, अपना खाली समय के चटख आ जियतार रंग देबे खातिर गावल, इन्हनी खातिर कतना जरूरी बा?

…. हम ओह ऊँच जगहा प फेंड़ तर खड़ा सोचत रहुवीं. ‘आरे सोइ पान चढ़ि गइले छन्हियाँ, त छन्हियाँ सुरंग भइले….

अब सेइ पान चाभेले सोमारू राम
जँवरे सोमारू पिच ढारेले
तीसी देई के अँचरे
त अँचरा सुरंग भइले…. ….. ’

गाइ के पगहा धइके घींचत एगो गोर लमछर लइकी कहीं से आइल आ घर का पूरुब ओरी गाड़ल खूँटा में ओके बान्हि देलस. फेरु ओकरा थान पर मुँह रगरत बछरू के गर में लपटाइल रसरी खोललस आ दोसरा खूँटा में बान्हि के, ओही फेंड़ का नीचे, हँसत धवरि आइल. ओकरा आवते गीत अउरू टनकार हो गइल.

अब अँवरेहि कँवरे ननदिया
त हुनुकि-ठुनुकि बोले
भउजी कहाँ रंगवउलिउ अँचरवा
त अँचरा सुरंग भइले?

हम गीत के अरथ समुझे के कोसिस करे लगुवीं. ओरी ओरी बोवल पान के लतर छान्ही पर चढ़ि के चारू ओर पसर गइल बा. छान्ही ओसे सुन्दर लागतिया. पान के बीड़ा बना के खाये वाला अउर केहू ना, तीसी देई के सवाँग सोमारू होइहन. पान खइला का बाद प्रेम-बतकही में उनकर पीक तीसी देई का अँचरा पर परि गइल आ रंगदार हो गइल. गोरकी लइकी के हाथ के इसारा समुझि के गोदी में लड़िका लेले महेरारू ठठाइ के हँसे लागल रहे. ओकरा दाँत के सफेदी जइसे चारू ओर छिटा गइल. मेहरारू फेरू लहकि के गवली सन…

ननदी पनवाँ त चाभइ तोहर भइया
त अब तोहर भइया
पिच ढारि देहलिन अँचरवा
त अँचरा सुरंग भइले हो…

गीत के आखिरी लाइन आवत आवत कूल्हि हँसे लगली सन. एही बीचे केहू के जोर से चिल्हिकला के अवाज सुनाइल आ कूल्हि औरत उठि के खड़ा हो गइली सन. हमरो नजरि पहाड़ का दोसरा ओरी ढलान से उतरत ओह अदिमी प चलि गइल, जेकरा कपार प लकड़ी के एगो भारी बोझा रहे. ओकरा तनकिये पाछा एगो दोसर हट्टा-कट्ठा अदिमी कवनो बूढ़ के पिठइँयाँ लदले, गते गते नीचे उतरत रहे.

  • ”का भयल रे ऽ ऽ?“ एगो बूढ़ मेहरारु बदहवास ओनिये धवरल. बोझा लिहले अदिमी निगिचा पहुँचि गइल रहे. ऊहो तनिकी भर मुँह उठा के चिल्हिकल-
  • ”बाढ़ू काका लकड़ी तोरत के फेंड़ से गिरि गएन. “
  • ”का भयल हो भइया हमरे बाबू के?“ गोरकी लइकी अन्हुवाइल ओनिये भागल. ओकरा कपार के आँचर नीचे गिरि के लसरात रहे.
  • ”अरे बस थोड़ी सा चोट लगी हय; घबड़ाए का कउनो बात नहीं रे जुगनी!“ बोझा पटकला का बाद ऊ नवहा अँगुरी से माथ क पसेना काछत बोलल आ ओनिये बढ़ गइल.

फेर कूल्हि मिलि के धीरे धीरे उहाँ पहुँचल अदिमी का पीठि से बुढ़वा के उतारे लगलन सऽ.

  • ”लऽ! ई हरदी-चूना बुढ़ऊ के हाथे गोड़े आ पीठि पर लगाय द लोगिन. हम अबहियें इनके गरम दूध-हरदी लियावत हईं. पी लिहैं त दरद कम होइ जाये. “ तीसी देई कहाये वाली मेहरारू एक ठे बड़हन कटोरा जुगनी
    के थम्हावत घर में भागि गइल.

हमार मन भारी हो गइल रहे. अचके ई कइसन बिघिन परि गइल. अब उहाँ ढेर देर ले रुकल हमके अजीब लागत रहे. सोचलीं, चुपचाप लवट चले के चाहीं, ना त केहू के नजर परल त बेमतलब पूछ-पुछउवल में अबेर हो जाई. पहाड़ का ओही झाड़ीदार ऊँच-खाल डहरि से लवटत खा, हमके बकरी चरावत कुछ लडिका लउकलन सऽ. उन्हनी का आँखि में हमके ओहर से जात देखि कुछ चिहइला के अंदाज रहे. हमके पियास लाग गइल रहे. चाह-पानी का गरज से, हम पुलिया से कालोनी जाये का बजाय बजार का ओर चल दिहनी. कई ठे ट्रक हाँय-हाँय करत, धूरि उड़ावत बगल से गुजर गइले सन, बाकि हमरा ओघरी कुछ ना बुझाइल. रहि-रहि दिमाग में चितकबरा पहाड़ के गोदी में बसल ऊ गाँव आ ओइजा के रहवइयन के चित्र उभरि आवत रहे.

एह पहाड़ी इलाका में अइले अभी दुइये-तीन दिन भइल रहे. हमार ओवरसियर दोस्त इहाँ का बारे में चिट्ठी लिखले रहलन…. ”इहाँ बस पहाड़े पहाड़ बा. चारू ओर पत्थल के टुकड़े फइलल लउकी. पहाड़ काटे, तूरे आ लदान करे वाला मजूरन का सँगे एह नीरस जगहा में बहुत उदासी आ मायूसी बा. चीझ समान इहवाँ बहुत महँगा बा. इहाँ के मूल बाशिन्दन में छछात गरीबी आ असिच्छा बा. उनहन के तौर-तरीका ओइसहीं पुरान. ई अतना सिधवा आ निरछली बाड़न सऽ कि उनहन के भूख के फयदा केहू उठा सकेला…. “.

चिट्ठी के इहे कुछ लाइन हमके इहाँ आवे खातिर मजबूर कऽ देले रहे. इहाँ अइला प फैक्ट्री का अलावा, जवन कुछ लउकल ओमे अफसर आ लेबर कालोनी, एकान्ता में बनल एगो मनोरंजन हाल, एगो ऊँच पहाड़ी प नया डिजाइन के बनावल मन्दिर आ ई खरबिदार ढंग से दूनो पटरी पर लागल टुटपुँजिहा बजार. एमें पाँच सात गो पक्का दोकानन आ घरन के छोड़ि दिहल जाव त बकिया दोकान बड़-छोट गुमटी आ ‘टीन शेड’ वाला घरन में बाड़ी स. उन्हने में ठावाँ-ठईं बीचे में घुसरल कुछ टूटल फूटल गुमटी आ मड़ई डालल चाह मिठाई के दोकान बा.

आजु पता ना काहें हमके इहाँ ढेर उदासी आ सन्नाटा लागत बा. फैक्ट्री का बड़हन देवाल का अरियाँ कुछ ‘करकट शेड’ बनावल बा आ ओकरा आगा समतल छोट मैदान में बीसन गो ट्रक लागल बाड़न सऽ. साइत ऊ टीन के शेड ड्राइबर-खलासियन के रुके-ठहरे खातिर बनावल होई, जवन इहाँ से सीमेन्ट ढोवे आवत होइहें सऽ.

मनसायन के टाइम बस सँझिये खा लउकेला. जब फैक्ट्री से छूटल मजदूर-कर्मचारी बहरियालन स आ बजार के पटरी प लागल दोकानन में रौनक आ जाला. इहाँ के मूल बाशिन्दा फैक्ट्री लगलो पर, एह फैक्ट्री से कटल, अपना पुरान ढंग-ढर्रा में जी रहल बाड़न स. बुद्धी, बल बेंवत कूल्हि अछइत, गरीब आ बेरोजगार.

पहाड़न का एह देस में आस-पास अउरी गाँव होइहन सऽ आ उहाँ नया जमाना के फयदा आ बिकासो पहुँचल होई; बाकि चितकबरा पहाड़ का पाछा बसल ओह छोट गाँव आ उहाँ के रहवइयन के देखला का बाद, हमके इहे समझ में आवऽता कि ऊ अबहियों जिनिगी के लड़ाई बड़ा मेहनत, मसक्कत् आ फटेहाली में लड़ि रहल बाड़न स. जंगल नावे मातर के रहि गइल बा. खेती नाँवे मातर के हो सकल बा. बस गाय, बकरी, मुर्गा मुर्गी, लकड़ी आ गोइँठा बेचल. कुछे अइसन होइहें स, जवन इहाँ साहब सुब्बा आ ठीकेदारन किहाँ नोकरी का नाँव पर सेवा-टहल करत होइहें स.

साँझ भइला, जब दिन भर के तवाइल पहाड़ गर्मी छोड़े आ सेराये लागेलन स त एगो अजीब किसिम के उमस आ चिपचिपाहट चारू ओरि फइल जाला. फैक्ट्री से निकलत मजदूरन के झुंड अनाधुन सड़क पर भागेला आ दू भाग में बँट जाला. एगो बजार का ओरी आ दुसरका लेबर कालोनी का ओरी. फेर निकलेलन स इंजीनियर, साहेब आ फैक्ट्री के बाबू. आजुओ हम अपना ओभरसियर दोस्त के इंतजार में सड़क का बायाँ अलँगे एगो छोट अदनार गुलमोहर का छाँह में खड़ा रहनी. हमरा पाछा ओइसने अउर कई गो छोट छोट गुलमोहर के फेंड़ रहलन सऽ. जवन सड़क से मन्दिर का सीढ़ी ले बड़ा तरतीब से लागवल गइल रहलन स.

सुर्ती ठोंकत, बीड़ी धरावत ढेर मजदूर अब आगा बढ़ि गइल रहलन स. उनहन का पसेनियाइल देंहिं के महक अभिन ले हमरा नाक में सुरसुरात रहे. चितकबरा पहाड़ का ओर से आवे वाली डहरि से कई गो मरद आ मेहरारुअन के टोली बजार का ओर चलि गइल रहे. उभरल जबड़ा, धुरियाइल कपार आ गुल्ली अस छटकल माँसपेसी वाला कुछ उघारे निघार अदिमी, अबहियें कपार पर लकड़ी के बोझ लेले गुजर गइले हा स. खड़ा-खड़ा हमार मन अब अझुरा गइल…., हम सोचलीं.

थोरहीं देर में हमके ढलान से सड़क पर चढ़त कुछ औरतन के नया जमात लउकल. उनहनों के कपार पर; गोइंठा के खाँची, पत्तल के बंडल आ लकड़ी के बोझा रहे. एगो मेहरारू, जवना के पेट कुछ उभरल रहे, अपना हाथ में दू गो मुर्गा लेले रहे. उनहन के गोड़ रसरी से बान्हल रहे. कुल्हिन के सरीर पर औसत किसिम के सूती साड़ी रहे. एकाध गो का साड़ी में दोसरा कपड़ा के चिप्पी आ बड़-बड़ पेवन लउकत रहे. हम उनहन का पाछा-पाछा बजार का ओर बढ़त रहनी.

लकड़ी के बोझा लेले एगो सँवराह आ चोख नैन-नक्स वाली नवहा लइकी का पाछा गोंइठा के खाँची लेले उहे गोरकी लमछर लइकी ‘जुगनी’ रहे, जवन काल्हु घाही बुढ़वा का ओर बाबू-बाबू कहि के दवरल रहे. सड़क का किनारा खड़ा एगो ड्राइबर आ एगो खलासी पहिलहीं से उनहन के तजबीजत रहलन स. ड्राइबर कुछ कहलस आ कूल्हि ठउरी थथम गइली सन.

  • ”फुटकर निकाला ना बाबू!“ सँवरकी लइकी के चलकल हमके लम्मे भइल सुनाइल. कान्ही पर तौलिया धइले, गंजी-लुंगी पहिरले ओह ड्राइबर के उमिर तीस-पैंतीस का आसपास रहल होई. ओकरा हाथ में पचास के नोट रहे. ओकर आँखि अजीब कामुक आ छेछड़ा अस सँवरकी लइकी का कसमसाता देंहि पर गड़ल रहुवी स आ ऊ बेहया लेखा दाँत चियरले ओकरा से कुछ कहत रहे.
  • ”फुटकर नाहीं रही तऽ का तोहार लकड़ी ना बेचाये?“
  • ”ठीक हय. तो अब हम फुटकर करावे का जिमवार ना होउब. “
  • ”ठीक हव, तब लकड़ी ले चलऽ!“ ड्राइवर हँसत पटरी का तरफ खड़ा ट्रक का ओर बढ़ि गइल. सँवरकी मुस्कियाइल आ अइँठि के ओकरा पाछा चल दिहलस.
  • ”कहाँ पटकि दीं?“ सँवरकी के सवाल सुनाइल
  • ”उहाँ, हो ट्रक का लग्गे!“ ड्राइवर हाथ से इसारा कइलस.

इंतजार में खड़ा जुगनी के भौंह टेढ़ हो गइल. बुझला ओके ड्राइवर के रंग-ढंग नीक ना लागल. ऊ जाये लागल त ओकरा पाछा खड़ा उभरल पेट वाली औरत टोकलस, ”कुसुम्ही के आ जाये देतू बहिनी!“

  • ”ऊ इहैं देरी करी लुचुटी! पता नाहीं काहे हमका एकर चाल-ढाल नीक नाई लागत हय!“ जुगनी के बड़-बड़ आँखिन में खीसि झलकत रहे.

हमार नजर छनभर खातिर ट्रक कालऽ इतमीनान से मुस्कियात बतियावत कुसुम्हीं पर गइल. ड्राइवर नोट ओकरा ओरी बढ़ावत पुलिया का ओर कुछ इसारा करत रहुवे.

  • ”हम लोगन चलत हईं कुसुम्ही ढेर देर करी!“ कहिके जुगनी बजार का ओर बढ़ गइल. ओकरा पाछा दू गो अउर मेहरारू चल दिहुवी स. उभरल पेट वाली औरत एगो बुढ़िया का सँगे उहें रुकल रहुवे.

चाह का दोकान का ओरि बढ़त हम ओह जवान लइकियन का बारे में सोचत रहुवीं, …. दूनों में कतना फरक बा. एगो एह बजार के हिस्सा बन चुकल बिया आ दुसरकी अब बने जा तिया. लागऽता जुगनी पहिले-पहिल बजार में आइल बिया हो सकेला बाप का घाही भइला का कारन मजबूरी में ओके आवे के परल होखे. कुसुम्ही के चंचलता, सोखी आ खुलापन देखि के साफे बुझा जाता कि ऊ चलता-पुर्जा आ चल्हाँक बिया, जबकि जुगनी के सोभाव में गम्हिराई, सीधापन आ निरछली भइला के सबूत मिलऽता.

चाय वाला किहाँ आलू चाँप आ समोसा खातिर धक्का-मुक्की करत फैक्ट्री-मजदूरन में साफ कपड़ा वाला बाबू ‘चाय जल्दी’ के शोर मचावत, अउँजा रहल बाड़न स. हम अउर आगा, दोसरा चाह का दोकान का ओर घुमले रहुवीं कि हमार ओभरसियर दोस्त लउकि गउवन. उनका सँगे एगो फेसनेबुल टाइप के नौजवान रहुवे.

  • ”इनसे मिलऽ! ई हउवन इन्जीनियर सोमनाथ जी, एकदम मस्त आ दिलफेंक. “

उनसे हाथ मिलावत खा, हमार नजर उनका नजर के पीछा करत लिट्टी वाला ओह दोकान का ओर चलि गउवे, उहाँ जुगनी खड़ा रहुवे. ओकर खाली खाँची अब ओकरा बायाँ हाथ में लटकल रहुवे. हम अपना दोस्त के तकुवीं. हमार मनोभाव समझि के ऊ खँखारत बोलुवन, ”चलऽ भाई, एक-एक कप चाह हो जाव!“

  • ”यार तूँ त जानते बाड़ऽ, एह बेरा हम चाह ना पीहीं!
    भाई साहब के पियावऽ! तबले हमहूँ मनफेरवट क लिहीं!“
    सोमनाथ बड़ा बेतकल्लुफी से कहुवन आ ओनिये चल दिहुवन, जेने जुगनी गइल रहुवे. हमके उनकर ई ओछ ढंग नीक ना लगुवे.

चाह पीयत खा हमार दोस्त उनका बारे में बतउवन, ”यार, ई बड़ा अजीत आदमी हऽ. खाली एगो नोकर का सँगे रहेला ओतना बड़ क्वाटर में. सुरू सुरू में जब ई इहाँ आइल रहे, त एकर मनवे ना लागे, बाकि एघरी त ई बेल्कुल रंगे बदल देले बा. रोज साँझि खा बजार में उँउड़ियाई. मेडिकल का दोकान वाला से दारू के एकाध गिलास लीही आ रात गइला क्वाटर पर जाई. “

  • ”का, एइजा मेडिकल का दोकान में शराबो बेचाला?“ हम पुछुवीं.
  • ”ना भाई, ऊ दोकानदार एइजा मकान बनवले बा. ओकरा पीछा वाला कोठारी में ऊ खास डाक्टर आ इंजीनियर लोग खातिर अंग्रेजी शराब के बेवस्था क देला. बाकि एकर त रोजे के धंधा बा. बेमतलब पइसा फूँकेला. इहाँ का एगो दूगो लइकियन के पटवलहूँ बा ससुरा. देखलऽ हा ना, ओह गोरकी लइकी का पाछा कइसे लपछियाइल लागि गइल हा. “
    चाह के पुरवा फेंकत हम पुछुवीं, ”त का एइजा के लइकी अतना बदचलन बाड़ी सन?“
  • ”ना भाई, हम ई नइखीं कहत. दरसल भूख आ जरूरत का अउर चीझन का चलते ए गरीबन के लचारी आ सोझबकई के फायदा अइसन लोग उठावे में माहिर होला. एनिये कहीं के एगो नया उमिर के नोकर रखले बा. ऊ एकर खाना-पीना का इंतजाम का साथे अउर किसिम के देखभाल करेला. “
  • ”बड़ा घटिहा बा ससुरा!“ हम चाह का दोकान से उठत कहुवीं.
  • ”हमहूँ कुछ तर-तरकारी ले लिहीं!“ हमार दोस्त चाह वाला के पइसा देत कहुवन.

तरकारी के एगो बड़हन दुकान का सोझा गुजरत खा, हमरा ई बुझउवे जइसे ए पहाड़ी इलाका में शहर से आवे वाली तरकारियन के कुंजड़ा, बासिये में मिलाइ के बेचेलन स. कुछ मेहरारू खाँची में.

  • ”का भाव बा हो?“ हमार दोस्त एगो से पुछुवन?
  • ”सात रुपया किलो!“

हरियर हरियर घन रोआँ वाली, करइली लेखा ओह तरकारी के हम पहिले पहिल देखले रहुवीं.

  • ”ई कवन तरकारी ह?“ हम एगो हाथ में उठावत पुछुवीं.
  • ”एके एइजा ‘खेकसा’ कहल जाला! एकर तरकारी परोरा का भुजिया नियर लागेला आ भात दाल पर बहुत नीक लागेला. हमार दोस्त रुमाल में बान्हत सब्जी हमके थमावत कहुवन. “
    पइसा दिहला का बाद रुमाल हमरा हाथ से लेत ऊ पुछुवन, ‘चलबऽ? कि अभी रुकबऽ?’
  • ”चलऽ हम थोरी अउरी घूम फिर लीं!“ हम अनमनाहे कहुवीं.

किरिन डूबे लागल रहे आ धीरे धीरे अन्हार के छतरी बजार का बहरा तनाये लागल रहे. बड़ दोकानन में बल्ब आ ट्यूबलाइट जर गइल रहे. हम एगो मेडिकल स्टोर पर जाके पेट का गैस के एगो दवाई लेबे लगुवीं.

  • ”दरद के दवाई हय?“ पाछा से कवनो मेहरारू के बोली सुनि के हम तकलीं. एगो बुढ़िया का सँगे जुगनी खड़ा रहे.
  • ”कइसन दरद बा? पेट में?“ दोकानदार पुछलस.
  • ”नाहीं, चोट लगी बाय. ओही पर लगावे वाली चाही. “

सड़क पर इंजीनियर सोमनाथ लउकलन. जइसे ऊ जुगनी के लवटे के राह देखत होखसु. ओही जा थोरिकी भर हटि के कुसुम्ही एगो मेहरारू सँगे खड़ा रहे.

जुगनी दवाई लेके जब सड़क पर पहुँचल त सोमनाथ ओकरा बगल से निकलत कुछ कहत लउकलन. जुगनी उनका ओर आँख तरेर के तकलस, फेर कुछ कहि के चल दिहलस. कुसुम्हीं हँसत ओकरा पाछा हो गइल. सोमनाथ कुछ खिसियइला अस खड़ा रहलन. दूर जुगनी मेहरारूअन का सँगे एगो अँगौछी गंजी वाला दोकान पर खड़ा रहे. साइत उनहन के उहाँ कुछ कीने बेसाहे के होई. हमहूँ रमत झमत बजार से बहरा चल दिहनी.

जुगनी बाकई सुघ्घर रहे. रूप-रंग, देहि के गढ़ाव कूल्हि लेहाज से. एके नजर में केहू के अपना ओर आकर्षित करे में त कुसुम्यिों कम ना रहे; बाकिर जुगनी के चमक-दमक से एकदम अलग रहे वाला सोभाव, ओकर विशेषता बन गइल रहे. जइसे इहाँ के फेंड़ पौधा आ फूल प्रकृति के कूल्हि कोप झेलियो के अपना सहज भाव में खिल जालन सऽ आ देखे में टटका सुन्दर आ आकर्षक लागेलन सऽ, ओइसहीं हमके जुगनी लागल.

पुलिया का चउतरा पर बइठल हम चितकबरा पहाड़ के चुपचाप अन्हार में लुकात देखत रहुवीं. बजार उड़सि चलल रहुवे. लम्मा भइल इंजीनियर सोमनाथ एगो मइलाह पाएँट-बुसट वाला करिया नवहा का सँगे आवत लउकुवन. हम आपन मुँह सड़क का दोसरा ओर घुमा लिहुवीं.

  • ”बड़ी कड़क लइकी बिया! ससुरी तनिको टस से मस ना भइँलि हा. तेंही कुछ उपाय करु! तोके सौ रुपिया अलग से इनाम पक्का!“
  • ”नाँय मालिक पहाड़ वाले गाँव की लड़की है ऊ. एकदम पक्का मिजाज होत है इनहन का. ऊ रुपया पइसा से बस में ना आए. ओके देख के ही समझ में आ जात है कि ऊ बड़ी करुवी हय!“
  • ”चुप सारे, तें कवनो काम के नइखे. “ खउआइल सोमनाथ ओके डपट दिहलन.

अपना चाल का असफलता से खिसियाइल इंजीनियर साहब कालोनी जाए वाली सड़क पर मुड़ गइलन. उनका पाछा पाछा चुपचाप चलत ओह नोकर के बात से हमके समझ में इहे अउवे कि पहाड़ वाला ओह गाँव के औरत अपना प्रति सजग आ सील वाली होली सन. बाकि दिन में कुसुम्ही के देखि के त ई नइखे बुझात.

ठंढा हवा का चलला से देंहि के चिपचिपाहट खतम हो गइल रहुवे. पहाड़ का ऊँचाई पर, जगर मगर लाइट में लउकत मंदिर, ए बेरा बड़ा शांतिमय आ मनभावन लागत रहुवे. पहाड़ काटि के बनावल सीढ़ी का दूनों ओर लगावल छोट-छोट फेंड़न के हरियरी मंदिर पर जरत बल्ब का मद्धिम अँजोर में अउर अच्छा लागत रहुवे.

  • ”अरे पगली, तैं का जानत हई? ऊ फेक्ट्री में बहुत बड़ा अपसर हय! तैंने झिड़िक दिया उसे. अरे ऊ चाहे तों एक मिलिट में तोरे बापू के दरबान बना देय. “ ढलान से नीचे उतरत मेहरारुवन में साइत ई आवाज कुसुम्ही के रहे.
  • ”तो चल काहें नहीं गई तूँही ओकरे सँग? तोरे बापू के ऊ दरबान बना देत. अउर खबरदार, हमें ई सब बात नीक नाँय लगत. “
  • ”जुगनी, अगर ऊचाहि देय, तो तोहका जबरन घर से उठवाय लेय. “
  • ”देख कुसुम्ही, जरूरत परलै पर हम जान लेबै और देवै दूनो जानत हई. औ इज्जत के जिनिगी जियै क अउर बहुत रास्ता हय. तैं तो बहकि गई हय! अपन जिनिगी नरक करे जात हई. हम्में तो अब तोहरे सँग आवहूँ जाये में लाज लगत हय!“ जुगनी कहत कहत दउड़त आगा चलि गइल.

दूर धुँधलाह होत जात कुछ मेहरारून के टोली में सामिल होत, जुगनी साँचो हमके पहाड़ के बेटी लागल. कुसुम्ही ओसे काफी पाछा छूट गइल रहे. हमके लागल, जइसे ऊ जान बूझ के पाछा छूट गइल रहे. ओकरा मद्धिम होत चाल से हमके इहे समझ में आइल. अचानक कवनो ट्रक के तेज रोसनी में हमार आँखि चकमका गइल. हम दोसरा ओर मुँह घुमा लिहनी. ट्रक पुलिया का पहिलहीं ढलान का लगे रुकि गइल. ओकरा भीतर जरत बलब के मद्धिम रोसनी में हमके ऊहे दिन वाला ड्राइबर लउकल. इंजन बन क के, इतमीनान से ऊ नीचे उतरल आ टार्च जरावत, ढलान से नीचे उतरि गइल. थोरहीं देर बाद ओकरा टार्च के अँजोर में, ऊँचाई पर बहुत धीरे-धीरे डेग डालत कुसुम्ही लउकल. चितकबरा पहाड़ का ओह निसबध राह में ओ घरी ऊ एकदम अकेल रहे.

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सहयोग भेजला का बाद आपन एगो फोटो आ परिचय
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पर भेज दीं. सभकर नाम शामिल रही सूची में बाकिर सबले बड़का पाँच गो भामाशाहन के एहिजा पहिला पन्ना पर जगहा दीहल जाई.


अबहीं ले 10 गो भामाशाहन से कुल मिला के पाँच हजार छह सौ छियासी रुपिया के सहयोग मिलल बा.


(1)


18 जून 2023
गुमनाम भाई जी,
सहयोग राशि - एगारह सौ रुपिया


(3)


24 जून 2023
दयाशंकर तिवारी जी,
सहयोग राशि - एगारह सौ एक रुपिया


(4)

18 जुलाई 2023
फ्रेंड्स कम्प्यूटर, बलिया
सहयोग राशि - एगारह सौ रुपिया


(7)
19 नवम्बर 2023
पाती प्रकाशन का ओर से, आकांक्षा द्विवेदी, मुम्बई
सहयोग राशि - एगारह सौ रुपिया


(5)

5 अगस्त 2023
रामरक्षा मिश्र विमत जी
सहयोग राशि - पाँच सौ एक रुपिया


पूरा सूची


एगो निहोरा बा कि जब सहयोग करीं त ओकर सूचना जरुर दे दीं. एही चलते तीन दिन बाद एकरा के जोड़नी ह जब खाता देखला पर पता चलल ह.


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