लोक कवि अब गाते नहीं – १३

by | Sep 28, 2011 | 0 comments

(दयानंद पाण्डेय के लिखल आ प्रकाशित हिन्दी उपन्यास के भोजपुरी अनुवाद)

बारहवाँ कड़ी में रउरा पढ़ले रहीं
त्रिपाठी जी के चरचा आ इहो कि लोक कवि कइसे घबड़इले जब पता चलल कि उनुका भतीजा के एड्स हो गइल बा. ओकरा के तुरते बंबई भिजवा दिहले एह हिदायत का साथे कि कतहू ऊ लोक कवि के नांव गांव के नाम ना ली.


दरअसल लोक कवि के सगरी चिंता एहकर रहल कि अगर कहीं लोग के ई पता चलि गइल कि उनुका परिवार में केहू एड्स रोगी बा त बदनामी त होखबे करी, कलाकार भाग जइहें आ कार्यक्रमो खतम हो जाई. मारे डर के आ बदनामी के केहू बोलइबे ना करी. फेर अचानके खयाल आइल कि जवन कलाकार कमलेश का साथे गइल बा, कहीं ओह सार के पता चल गइल आ बात बेबात बात उड़ा दिहलसि तब का होई ?

यह सोचिये के ऊ घबरा गइले. भागत खुद स्टेशन गइले. ओह कलाकार आ कमलेश के बंबई जाये से रोक दिहले आ कमलेश से कहले कि अब तोहार बाग गांव से आई, तबहियर जइहऽ. ओकरा के बोलवा भेजले बानी. फेर ऊ विधायक निवास वाला गैराज पर चल गइले.
लोक कवि के परेशानी के कवनो पार ना रहल !
ऊ सोचे लगलन कि आखि़र कहां फंस गइल ई ? बाहर दिल्ली, बंबई त दूर, गांव से बहरा नातेदारी, रिश्तेदारी छोड़ कहीं गइल ना ई रोग पवलसि कहवाँ से ई ? उनुका समुझ से बाहर रहल ई.
ओने भंवर में कमलेशो रहल.
लोक कवि के अफरा तफरी देख समुझ त उहो गइल रहे कि कवनो गंभीर बेमारी हो गइल बा आ यौन रोग. लेकिन एड्स हो गइल बा, अबही ले एकर अंदाज ओकरा ना रहल. तबहियो ऊ रह-रह के गांवे के एगो पंडित के बेटा के सरापे लागल.
भुल्लन पंडित के बेटा गोपाल !

एक समय भुल्लन पंडित गांव में न्यौता खाए खातिर मशहूर रहले. गरीबी में जियला का बावजूद ऊ बड़ा ईमानदार, निष्कपट, सोझउक, आ भोला रहले. उनुका दूइये गो दिक्कत रहल. एक त गरीबी, दोसर बढ़िया खाये के ललक. गरीबी त जस के तस रहल उनुकर आ ऊ जइबे ना करे. बाकिर निमना खाये के उनुकर ललक न्यौते में जब तब पूरा हो लेव. चाहे शादी बिआह होखे, चाहे केहू के गृह प्रवेश, चाहे केहू के मरन होखे भा पैदाइश. उनुका कवनो फरक ना पड़त रहल. नाम उनुकर भलही भुल्लन तिवारी रहल बाकिर ई सब बाति ऊ भूलात ना रहले. कतहियों, कवनो प्रयोजन में न्यौता खाए खातिर ऊ आ उनुकर लोटा हरमेस तइयार रहत रहल.

बलुक उनुकर लोटा उनुका से बेसी मशहूर रहल. बहुते बड़, बहुते भारी. ऊ न्यौता खाए जासु त लवटति घरी लोटा में भरसक दही भरवा लेसु, अंगोछा में चिउड़ा, चीनी बन्हवा लेसु फेर पान चबावत न्यौता खाये वालन के नेतृत्व करत वापस घर किओर चल देसु. ई सोच के कि जल्दी चलीं जेहसे पंडिताइनो के भूख मिटे चिउड़ा-दही से जवन ऊ लोटा, अंगोछा में बन्हले रहसु. काहे कि न्यौता खाये जाये से पहिले भुल्लन पंडित अपना पंडिताइन के कड़ेर आदेश दे के जासु कि, ‘चूल्हा मत जरइहे, खाए के हम ले आइब !’ कह त जासु पंडित भुल्लन तिवारी पर जरूरी ना रहत रहे कि हर बेर वापसी में उनुका लोटा में दही आ अंगोछा में चिउड़ा-चीनी बान्हले होखे. जजमान-जजमान पर निर्भर करत रहे. से पंडिताइन लगभग कई बेर भूखे पेट सूतसु. भुल्लन पंडित आ उनुकर बेटा गोपाल त सोहारी, तरकारी आ चिउड़ा दही खा के आवसु. डकार भरसु. लेकिन पंडिताइन मारे भूख के पानी पी-पी के करवट बदलसु. लेकिन भुल्लन पंडित उनुका के चूल्हा जरावे ना देसु. कहसु ‘भोजन अब बिहान बनी.’ पंडिताइन एह तरह बार-बार पानी पी-पी के करवट बदलत-बदलत परेशान हो चुकल रहली से बाद का दिन में भुल्लन पंडित के गइला का बाद जल्दी-जल्दी चूल्हा जरा के चार रोटी सेंक के खा लेसु आ चूल्हा फेर से लीप पोत के राख देसु कि लागो कि जरले ना रहे. बाकिर भुल्लनो पंडित मामूली ना रहलन. न्योता खा के लवटसि आ शक होखते चुल्हानी में जा के माटी के चूल्हा हाथ से छू-छू के देखसु. आ जे तनिको हलुका गरम मिल जाव त आ कई बेर त नाहियो मिले तबहियो चूल्हा छूवत कहसु, ‘लागत बा बुढ़िया चूल्हा जरवले रहुवे !’ आ अतना कहि के भुल्लन पंडित दू-तीन राउंड अपना बुढ़िया से लड़ झगड़ लेसु. खास कर के तब जब ऊ लोटा भर के दही आ अंगोछा भर के चिउड़ा-चीनी जजमान किहां से पा के लवटल रहसु.

भुल्लन पंडित के विपन्नता के अंत इहें ले ना रहे. हालत ई रहे कि गांव काओरि से अगर केहू माथ मुड़वले गुर जाव त ओकर खेत ना रहत रहुवे. ओकरा के देखते भुल्लन पंडित ओह बाल मुड़वला के रोकलेसु. रोक के ओकरा गाँव के नाम, के मरल, कब मरल, तेरही कब बा ? वगैरह के ब्यौरा पूछ बइठसु. अइसनका में कई बेर लोग नाराजो हो जासु. खास कर के तब जब केहू मरल ना रहत रहे आ तबो भुल्लन पंडित मरलका के जानकारी मांग लेसु. बाकिर केहू के नाराजगी से भुल्लन पंडित के कवनो सरोकार ना होखे, उनुका त अपना एह दरिद्रता में मधुर भोजने भर से दरकार होखे. मिल गइल त बहुत बढ़िया, ना मिलल त हरे राम !

भुल्लन पंडित का साथे अब उनुकर बेटा गोपालो न्यौता खाए में माहिर होखल जात रहे. भुल्लन पंडित आ उनुका बेटा गोपाल का बीच न्यौता खाए के एगो शुरुआती प्रसंग गांव त का ओह जवार भर में बतौर चुटकुला चल पड़ल रहुवे. ई कि जइसे कवनो बाछा के ‘कुटाई’ का बाद हर जोते में बड़ पापड़ बेले के पड़ेला, ओकरा के ‘काढ़े’ के पड़ेला, माहिर बनावल पड़ेला, ठीक वइसहीं भुल्लन पंडित अपना इकलौता बेटा गोपाल के ओह जमाना में न्यौता खाए में माहिर बनावत रहले.

एक बेर कवनो जजमान किहाँ भोजन का समय जब अधिका पंडित लोग चिउड़ा दही सट-सट सटकत रहुवे आ फेर सोहारी तरकारीओ सरियावत रहे, बिना पानी पियले त अइसनका में गोपाल बार-बार पानी पियत रहुवे. गोपाल के बेर-बेर पानी पियला का चलते भुल्लन पंडित परेशान हो गइले. कबो खांस-खंखार के ओकरा के पानी ना पिये के इशारा करसु त कबो कोहनी मार-मार के. बाकिर गोपाल जे बा कि हर दू चार कौर का बाद पानी पी लेत रहुवे. बावजूद भुल्लन पंडित के कोहनियवला, खँसला, खँखरला के. जजमान का घर से निकल के रास्ता में रोक के भुल्लन पंडित अपना बेटा गोपाल के एही बाति पर तीन चार थप्पड़ लगवले आ कहले कि, ‘ससुरे ओहिजा पानी पिये गइल रहसु कि भोजन करे ?’
‘भोजन करे !’ गोपाल थप्पड़ खइला का बाद बिलबिला के भुल्लन पंडित के बतवलसि.
‘त फेर बेर-बेर पानी काहे पियत रहले ?’ भुल्लन पंडित विरोध जतवले’
‘हम त तह जमा-जमा के खात रहलीं !’ गोपाल बोलल. त भुल्लन पंडित फेरु ओकरा के मारे लगलन आ कहे लगले, ‘जे ई बाति रहल त ससुरा हमरो के बतवले रहतिस, हमहू तह जमा-जमा के खइले रहतीं !’ ई आ अइसनके तमाम किस्सा भुल्लन पंडित का गांव जवार में लोगन का जुबान पर चढ़ चुकल रहे.

बहरहाल, बाद का दिनन में भुल्लन पंडित के इहे बेटा गांव में चोरी चकारी खातिर मशहूर हो गइल. तब जब कि भुल्लन तिवारी न्यौता खइला का मामिला में चाहे जवन जसु अपजसु कमइले होखसु दोसरा मामिलन में उनुका नाम पर कवनो एको गो दाग लगवले ना लागत रहुवे. उनुका शराफतो के किस्सा उनुका न्यौता खाये वाला किस्सन के संगही चलल करे. भुल्लन पंडित अपना गड़ेर खेत के पतई जरइबे ना करसु, कहसु कि, ‘पतई जराएब त साथे-साथ पता ना बेचारा कतना कीड़ो मकोड़ो जर जइहें सँ.’ ऊ जोड़सु, ‘कीड़ो मकोड़ा आखि़र जीवे हउवन सँ. काहें जराईं बेचारन के ?’

बाकिर समयो के अजीब चक्कर चलत रहले. एही भुल्लन पंडित के बेटा जस-जस बड़ होखल जात रहे, चोरी लुक्कड़ई में ओकर नाँव बढ़ले जात रहुवे. पुलिसो केस होखल शुरू हो गइल रहे. ब्राह्मण के विपन्नता ओकरा के अपराधी अउर लंपट बनवले जात रहुवे.

अतना कि भुल्लन पंडित परेशान हो गइलन. एही परेशानी में कुछ लोग उनुका के सलाह दिहलसि कि ऊ गोपाल के शादी करवा देसु. शायद शादी का बाद ऊ सुधर जाव. भुल्लन पंडित अइसने कइले. गोपाल के शादी करवा दिहलन. शादी का बाद साल छ महीना त गोपाल जवानी के मजा लूटे का बहाने सुधरल रहल, चोरी चकारी छूटल रहल. लेकिन जइसहिंये ओकर मेहरारू पेट से भइल, सेक्स के पाठ लायक ना रह गइल, गोपाल फेरू अपराध के राह पर खड़ा हो गइल. हार थाक के भुल्लन पंडित कुछ खेत गिरवी रख के पइसा लिहलन आ पासपोर्ट वगैरह बनवा के गांवे के एगो आदमी का साथे गोपाल के बैंकाक भेज दिहलन. बैंकाक जाइयो के गोपाल के लुक्कड़ई वाला आदत त ना गइल बाकिर पइसा ऊ जरूर कमाये लागल आ खूब कमाये लागल.

कमलेश एही गोपाल के पकिया यार रहल. कमलेश गोपाल का साथ अपराध में त ना बाकिर लोफरई में जरूर हिस्सेदार रहत रहे. गोपाल ओह घरी बैंकाक से आइल रहुवे. गांव में एगो बरई परिवार रहे जवन पान वगैरह के छिटपुट काम करत रहे. ओह बरई के एगो लड़िका दिल्ली के कवनो फैक्ट्री में काम करत रहुवे आ ओकर बीबी गांवे में रहत रहे. ख़ूबसूरत रहल आ दिलफेंको. कोइरी जाति के एगो लड़िका से गुपचुप फंस गइल.

ऊ कोइरी अकसर रात के ओकरा घर में घुस कर घंटनो पड़ल रहत रहे. घर छोटहन रहे से घर के सगरी लोग अमूमन घर के बाहर दुअरे पर सूतत रहे. ऊ कनिया अबही नया रहल से घर का भितरिये सूते. अधरतिया के ऊ जब-तब केंवाड़ खोल देव आ कोइरी भीतर चल जाव. दरवाजा बंद हो जाव आ फेर भोरही में खुले. ई बाति गोपाल तिवारी के कतहीं से पता चल गइल. से गोपालो अपना मोंछि पर कई बेर ताव फेरलसि. ओह बरईन के फेरा मरलसि, लालच दिहलसि. बैंकाक के झाँसा दिहलसि. बाकिर सब बेअसर रहल. बरईनिया गोपाल के बांह में आवे से कतरा गइल.

आखि़र दिल के मामिला रहे आ ओकर दिल ओह कोइरी पर आइल रहे.

लेकिन गोपाल पर त बैंकाक के पइसा के नशा सवार रहे. हार माने के ऊ तइयार ना रहल. आखिरकार कमलेश का साथे मिल के ऊ एगो योजना बनवलसि, योजना मुताबिक एक रात सीढ़ी लेके गोपाल आ कमलेश बरई के घर का पिछवाड़े चहुंप गइले. कमलेश नीचे सीढ़ी पकड़लसि आ गोपाल सीढ़ी चढ़ के बरई के अँगना में कूद गइल. बरईन सूतल रहे. गोपाल जा के ओकरा बगल में लेट गइल बाकिर ऊ अफना के उठल आ खाड़ हो गइल. गोपाल का साथे हमबिस्तर होखे से खुसफुसाइये के सही, हाथ जोड़िये के इंकार कर दिहलसि. गोपाल रुपिया पइसा के लालच दिहलसि. तबहियो ऊ ना मानल त कोइरी का साथे ओकर संबंध के भंड़ाफोड़ करे के धमकी दिहलसि गोपाल त ऊ तनिका सा डिगल. लेकिन मानल तबहियो ना आ कहलसि निकल जा ना त हल्का मचा देब. बाकिर गोपलो एके घाघ रहुवे. कहलसि, ‘मचावऽ हल्ला, हमहू कहि देब कि तूहीं बोलवले रहू !’ ऊ बोलल, ‘फेर कोइरीओ वाला बात बता देब. गाँव में जी ना पइबू !’

हार गइल ऊ एह धमकी का आगा. पटा गइल ऊ गोपाल तिवारी के देह का नीचा. फेर त गोपाल तिवारी अकसरहें बरई के घर सीढ़ी लगावे लागल. सीढ़ी पकड़त-पकड़त कमलेशवो के जवानी उफान मारे लागल. कहे लागल, ‘गोपाल बाबा हमहूं !’ लेकिन गोपाल बाबा ओकरा के मना कर दिहले. कहलन कि, ‘जब हम वापिस बैंकाक चल जाएब त तूं सीढ़ी चढ़ीहऽ !’

आ साँचहू गोपाल बाबा के बैंकाक गइला का बादे कमलेश सीढ़ी चढ़ल. ठीक गोपाले वाला हालात कमलेशो का साथे घटल. बरई के बीवी एकरो के मना कइलसि. बाकिर कमलेश गोपाल का तरह बेसी समय ना लगवलसि. सीधे प्वाइंट पर आ गइल कि, ‘भेद खोल देब. भंडा फोड़ देब.’

फेर ऊ कमलेशो खातिर सूत गइल.

जइसे गोपाल के सीढ़ी नीचे कमलेश पकड़त रहुवे़ ठीक वइसहीं कमलेश के सीढ़ी एगो हरिजन रामू पकड़त रहे. रामू रहे त बिआहल आ अधेड़. हर जोतत रहे एगो पंडित जी के. एक गोड़ से भचकत रहे, लगभग लंगड़ा के चलल करे. बावजूद एह सब के ऊ रसिको रहल से कमलेश खातिर सीढ़ी पकड़ल करे, एह साध में कि एक दिन ओकरो नंबर आइबे करी. ऊ अकसर कमलेश से चिरौरीओ करे, ‘कमलेश बाबू आज हम !’ ठीक वइसही जइसे कमलेश कबो गोपाल के चिरौरी करत रहे, ‘गोपाल बाबा आज हमहूं !’ बाकिर जइसे गोपाल कमलेश के टार देव, वइसहीं कमलेश रामू के.

लेकिन एक दिन भइल का कि बरई के घर का पिछुवाड़ा सीढ़ी लागल रहे. लंगड़ा रामू मय सीढ़ी के रहे आ ओने कमलेश बरईन का साथे अँगना में “सूतत” रहे. एही बीच गांव के कवनो यादव परिवार के औरत बीच अधरतिया दिशा मैदान खातिर गांव का बगल के पोखरी किओर गइल. तबहिये ऊ बरई के घर के पीछे सीढ़ी लागल देखलसि. मारे डर के ओ बोलल ना. टट्टिओ ओकर रुक गइल आ भाग के घरे आ गइल. दुबक के सूत गइल बाकिर रात भर ओकरा नींद ना आइल.

सबेरे ऊ सोचलसि कि बरई के घर में चोरी के ख़बर सगरी गांव अपने आप जान जाई लेकिन चोरी के ख़बर त दूर चोरी के चर्चा ले ना भइल. गांव में त का बरईओ का घर ना रहल चोरी के चर्चा. मतलब चोरी भइबे ना कइल ? ऊ सोचलसि. लेकिन सीढ़ी त लागल रहुवे रात, बरई के घर का पिछूती. फेर ऊ सोचलसि जइसे ऊ डेरा के भागल, हो सकेला कि चोरो ओकरा के देखलें होखँ स आ डेरा के भाग गइल होखँ स. फेर ओकरा लागल कि मौका ताड़ के चोर फेरु चोरी कर सकेलें बरई का घर में. आखि़र लड़िका दिल्ली में कमात बा. से बरई के त आगाह ऊ करिये देव, गांवो वालन के बता देव कि चोर गांव में आवत बाड़े सँ. से ऊ खुसुर-फुसुर स्टाइल में ई बाति गांव में चला दिहलसि. बात के धाह कमलेशो के कान ले चहुँपल. एहसे कुछ दिन ले ऊ सीढ़ी के खेल भुलाइल रहल. कुछ दिन बीतल त ऊ सीढ़ी लगवलसि बरई का घर का पिछुवाड़े बाकिर खुद ना चढ़ल. सोचलसि कि पहिले ट्राई करवावल जाव. से रामू लंगड़ा से कहलसि कि, ‘बहुते परेशान रहले बेटा, आजु जो तें चढ़ !’ रमुआ आव देखलसि ना ताव, भचकत सीढ़ी चढ़ गइल. अबही ऊ सीढ़ी चढ़ के खपरैल ले चहुँपले रहल कि केहू ‘चोर-चोर’ चिल्लाइल. देखते-देखत ई ‘चोर-चोर’ के आवाज एक से दू, दू से तीन अउर तीन से चार में बढ़ती गइल. कमलेश त माथ पर गोड़ राखत भाग लिहलसि. बाकिर रमुआ खपरैल पर बइठले-बइठल रंगे हाथ धरा गइल. ऊ लाख कहत रहल, ‘हम नाहीं, कमलेश !’ ऊ जोड़तो रहल, ‘कमलेशे ना, गोपालो बाबा !’ बाकिर ओकर सुने वाला केहू ना रहल. काहे कि गोपाल त गांवे में ना रहुवे, बैंकाक चल गइल रहुवे आ कमलेश अपना घरे ‘गहीर नीने’ सूतल मिलल. से सगरी बाति रमुआ पर आइल. बेचारा फोकटे में पिटा गइल. लेकिन चूंकि बरई के घर के कवनो ‘सामान’ ना गइल रहे से थाना पुलिस ले बाति ना गइल आ गाँवे में रमुआ के मार-पीट के मामिला सलटा दिहल गइल.

बाकिर मामिला तब सचहूं निपटल कहाँ रहे भला ?
मामिला त अब उठल रहे. गांव में एके साथ सात-सात लोग एड्स से छटपटात रहुवे. खुलम खु्ल्ला. एड्स के बीया गोपाल बोवलसि कि ऊ लड़िका जे दिल्ली में रहत रहे, एह पर मतभेद रहल. बाकिर एड्स बांटे के सेंटर बरई के पतोहु बनल एहमें कवनो दुराय ना रहल. तबहियो अधिकतर लोग के राय रहल कि गांव में एड्स के तार भुल्लन तिवारी के बेटा गोपाल तिवारी का मार्फत आइल.

बरास्ता बैंकाक।

फिलहाल त बैंकाक से गोपाल तिवारी के एड्स से मरला के ख़बर गांव में आ गइल रहल आ गोपाल तिवारी के मेहरारू एड्स से छटपटात रहुवे. साथ ही बरई के पतोहू, बरई के बेटा, बरई के पतोहू से संबंध राखे वाला ऊ कोइरी, ओह कोइरी के मेहरारू आ एने कमलेश. सभही एड्स का चपेटा में रहुवे. लोक कवि के गांव में बाकियो लोग जे बैंकाक, दिल्ली, बंबई भा जहवाँ कतहीं बाहर रहे, सब के सब शक का घेरा में रहल.

उनुका एड्स होखो, न होखो बाकिर एड्स का घेरे में त सभही रहे.

भुल्लन तिवारी पर त जइसे आफते आ गइल. बेटा एड्स के तोहमत ठोंक के मर चुकल रहे आ कहीं कीड़े मकोड़े मत जर जाँ सँ एह डर से ऊँख के पतईयो ना जरावे वाला भुल्लन तिवारी एह दिने जेल में नेवता खात रहले. पट्टीदार सभ उनुका के एगो हत्या में फंसा दिहले रहले.

लेकिन लोक कवि एड्स फेड्स का फेरे में फंसे वाला ना रहले. आखिरकार ऊ अपना छोटका भाई के गांव से बोलवा के सब कुछ बहुते गँवे से समुझवले. मान मर्यादा के वास्ता दिहले. बतवले कि, ‘बड़ी मुश्किल से नाम दाम कमइले बानी एकरा के एड्स का झोंका में मत डुबावऽ !’ फेर रुपिया पइसा दे के बाप बेटे के बंबई भेज दिहलन, बता दिहलन कि, ‘ठीक हो जाव भा मर खप जाव तबहिये अइहऽ. आ जे केहू पूछे कि का भइल, भा कइसे मरल ? त बता दीहऽ कि कैंसर रहे.’ ऊ कहले, ‘हम पता करवा लिहले बानी कि ई बेमारी आहिस्ता से आ जल्दिये से मार देले.’ ऊ जोड़ले, ‘बता दीहऽ ब्लड कैंसर ! एहमें केहू बाचे ना.’

आ आखि़र तबले लोक कवि परेशान रहले, बेहद परेशान ! जबले कि कमलेश मर ना गइल. कमलेश बंबई में मरल त बिजली वाला शवदाह घर में फूंकल गइल. एही तरह बैंकाक में गोपालो तिवारी फूंकल गइल. लेकिन गांव में त विद्युत शवदाह गृह रहल ना. त जब कोइरी, बरई के परिवार वाले मरले ते लकड़ी से उनुका के फूंके के रहे. घर परिवार में जल्दी केहू तईयार ना रहल आगि देबे खातिर. डर रहे कि जे फूंकी ओकरो एड्स हो जाई. फूंकल त दूर के बात रहल, केहू लाशो उठावे भा छूवे के तइयार ना रहल. बाति आखिर में प्रशासन ले चहुँपल त जिला प्रशासन एह सब के बारी-बारी फूंके के इंतजाम करवलसि.

अबही ई सब निपटले रहल कि बैंकाक से लोक कवि के गांव के दू गो अउरी नौजवान एड्स ले के लवटले.
ई सब सुन के लोक कवि से ना रहाइल, ऊ माथा पीट लिहले. चेयरमैन साहब से कहले, ‘ई सब रोकल ना जा सके ?’
‘का ?’ चेयरमैन साहब सिगरेट पियत अचकचा गइले.
‘कि बैंकाक से आइल गइले बंद कर दिहल जाव हमरा गाँव के लोग के !’
‘तू अपना गांव के राजदूत हउवऽ का ?’ चेयरमैन साहब कहले, ‘कि तोहार गांव कवनो देश ह ? भारत से अलगा !’
‘त का करें भला ?’
‘चुप मार के बइठ जा !’ वह बोले, ‘अइसे जइसे कतहीं कुछ भइले ना होखे !’
‘रउरा समुझत नइखीं चेयरमैन साहब !’
‘का नइखीं समुझते रे ?’ सिगरेट के राख झाड़त लोक कवि के डपटत बोलले चेयरमैन साहब.
‘बात तनिको जे एने से ओने भइल त समुझीं कि मार्केट त गइल हमार !’
‘का तूं हर बाति में मार्केट पेलले रहेलऽ !’चेयरमैन साहब बिदकत कहले, ‘एह सब से मार्केट ना जाव. काहे कि भर गाँव के ठेका त तूं लिहले नइखऽ. आ फेर पंडितवनो के त एड्स हो गइल. ई बीमारी ह, एहमें केहू का कर सकेला ? केहू के दोष दिहला से त कुछ होखे ना !’
‘रउरा ना समुझब !’ लोक कवि बोलले, ‘आप काहें समुझब ? रउरा त राजनीतिओ कब्बो मेन धारा वाला ना कइनी. त राजनीतिये के दरद रउरा ना जानीं, त मार्केट के दरद का जानब भला ?’
‘सब जानीलें !’ चेयरमैन साहब बोलले, ‘अब तूं हमरा के राजनीति सिखइबऽ ?’ ऊ इचिका मुसुकात बोलले, ‘अरे चनरमा का बारे में जाने ला चनरमा पर जा के रहल जरूरी होला का ? भा फेर तोहार गाना जाने ला, गाना सुने ला गाना गावहू आवे जरूरी बा का ?’
‘ई हम कब कहनी !’
‘त ई का बोललऽ तू कि राजनीति का मेन धारा !’ ऊ कहले, ‘अब हमरी पार्टी के सरकार नइखे तबहियो हम चेयरमैन बानी कि ना ?’ ऊ खुद ही जवाबो दे दिहलें, ‘बानी नूं ? त ई राजनीति ना हऽ त का हऽ बे ?’
‘ई त हवे !’ कहत लोक कवि हाथ जोड़ लिहलन.
‘अब सुनऽ !’ चेयरमैन साहब बोलले, ‘जब-तब मार्केट-मार्केट पेलले रहेलऽ त जानऽ कि तोहार मार्केट कइसे ख़राब होखत बा ?’
‘कइसे ?’ लोक कवि हकबकइलन.
‘ई जे यादव राज में यादव मुख्यमंत्री का साथे तूं नत्थी हो गइल !’ ऊ कहले, ‘ठीक बा कि तोहरा बड़का सरकारी इनाम मिल गइल, पांच लाख रुपिया मिल गइल, तोहरा नाम पर सड़क हो गइल ! एहिजा ले त ठीक बा. बाकिर तू एगो जाति, एगो पार्टी खास के गवईया बनि के रह गइलऽ.’ ऊ उदास होत बोलले, ‘अरे, तोहार लोक गायक के मारे खातिर ई आर्केस्ट्रा कम पड़त रहल का कि तू ओहिजो नत्थी हो के मरे खातिर चल गइलाऽ फतिंगा का तरह !’
‘हँ, ई नोकसान त हो गइल.’ लोक कवि बोलले, ‘मुख्यमंत्री जी के सरकार गइला का बाद त हमार पोरोगराम कम हो गइल बा. सरकारी पोरोगरामों में अब हमरा के उनुकर आदमी बता के हमार नाम उड़ा दिहल जा ता !’
‘तब ?’
‘त अब का करीं ?’
‘कुछ मत करऽ ! सब समय आ भगवान के हवाले छोड़ि दऽ !’
‘अब इहे करहीं के पड़ी !’ लोक कवि उनुकर गोड़ छुवत कहले.
‘अच्छा ई बतावऽ कि तोहार जवना भतीजा के एड्स भइल रहे ओकरा बाल बच्चा बाड़े सँ ?’
‘अरे नाहीं, ओकर त अबहीं बिआहो ना भइल रहे.’ ऊ हाथ जोड़त बोलले, ‘अब की साल तय भइल रहे. बाकिर ससुरा बिना बिअहले मरि गइल ! भगवान ई बड़का उपकार कइलन.’
‘आ ओह बरई के बच्चा बाड़े सँ ?’
‘हँ, एक ठो बेटा बा. घर वाला देखत बाड़े.’ लोक कवि बोलले, ‘अउर ओह कोइरीओ के दू गो बच्चा घर वाले देखत बाड़े.’
‘एह बचवन के त एड्स नइखे नू ?’
‘ना.’ लोक कवि बोलले, ‘एह सभ के मर मरा गइला का बाद शहर के डाक्टर आइल रहले. एह बचवन के ख़ून ले जा के जँचले रहले. सब सही निकलल. कवनो के एड्स नइखे.’
‘आ ओह पंडितवा के लड़िकन के ?’
‘ओकनियो के ना.’
‘पंडितवा के कतना बच्चा बाड़न सँ ?’
‘एगो बेटी, एगो बेटा.’
‘पंडितवा के बाप त जेहल में बा आ पंडितवा अपना मेहरारू समेत मर गइल त ओकरा बचवन के देखभाल के करत बा ?’
‘बूढ़ी !’
‘कवन बूढ़ी ?’
‘पंडित जी त बेचारे बुढ़उती में बेकसूर जेहल काटत बाड़न, उनुकर बूढ़ी पंडिताइन बेचारी बचवन के जियावत बाड़ी.’
‘ऊ नेवता खा के पेट जिआवे वाला पंडित के घर के खर्चा-बर्चा कइसे चलत बा ?’
‘राम जाने !’ लोक कवि सांस लेत कहले, ‘कुछ समय ले बैंकाक के कमाई चलल ! अब सुनीं ला कि गांव में कब्बो काल्ह चंदा लाग जाला. केहू अनाज, केहू कपड़ा, केहू कुछ पइसा दे देला !’ ऊ कहले, ‘भीख समुझीं. केहू दान त देबे ना. दोसरे, लड़िकिया अब बिआहे लायक हो गइल बिया ! राम जाने कइसे शादी होखी ओकर.’ लोक कवि बोलले, ‘जाने ओकर बिआह होइयो पाई कि बाप के राहे चलि के रंडी बनि जाई !’ लोक कवि रुकले आ कहले, ‘बताईं बेचारा पंडित जी एतना धरम करम वाला रहले, एगो नेवता खाइल छोड़ी दोसर कवनो ऐब ना रहल. बाकिर जाने कवना जनम के पाप काटत बाड़न. एह जनम में त कवनो पाप ऊ कइले ना. लेकिन लड़िका एह गति मरल कलंक लगा के आ अपने बेकसूर रहतो जेहल काटत बाड़न !’
‘तू पाप-पुण्य माने लऽ ?’
‘बिलकुल मानीं ला !’
‘त एगो पुण्य कर लऽ !’
‘का ?’
‘ओह ब्राह्मण के बेटी के बिआह के खरचा उठा लऽ !’
‘का ?’


फेरु अगिला कड़ी में


लेखक परिचय

अपना कहानी आ उपन्यासन का मार्फत लगातार चरचा में रहे वाला दयानंद पांडेय के जन्म ३० जनवरी १९५८ के गोरखपुर जिला के बेदौली गाँव में भइल रहे. हिन्दी में एम॰ए॰ कइला से पहिलही ऊ पत्रकारिता में आ गइले. ३३ साल हो गइल बा उनका पत्रकारिता करत, उनकर उपन्यास आ कहानियन के करीब पंद्रह गो किताब प्रकाशित हो चुकल बा. एह उपन्यास “लोक कवि अब गाते नहीं” खातिर उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान उनका के प्रेमचंद सम्मान से सम्मानित कइले बा आ “एक जीनियस की विवादास्पद मौत” खातिर यशपाल सम्मान से.

वे जो हारे हुये, हारमोनियम के हजार टुकड़े, लोक कवि अब गाते नहीं, अपने-अपने युद्ध, दरकते दरवाजे, जाने-अनजाने पुल (उपन्यास, बर्फ में फंसी मछली, सुमि का स्पेस, एक जीनियस की विवादास्पद मौत, सुंदर लड़कियों वाला शहर, बड़की दी का यक्ष प्रश्न, संवाद (कहानी संग्रह, सूरज का शिकारी (बच्चों की कहानियां, प्रेमचंद व्यक्तित्व और रचना दृष्टि (संपादित, आ सुनील गावस्कर के मशहूर किताब “माई आइडल्स” के हिन्दी अनुवाद “मेरे प्रिय खिलाड़ी” नाम से प्रकाशित. बांसगांव की मुनमुन (उपन्यास) आ हमन इश्क मस्ताना बहुतेरे (संस्मरण) जल्दिये प्रकाशित होखे वाला बा. बाकिर अबही ले भोजपुरी में कवनो किताब प्रकाशित नइखे. बाकिर उनका लेखन में भोजपुरी जनमानस हमेशा मौजूद रहल बा जवना के बानगी बा ई उपन्यास “लोक कवि अब गाते नहीं”.

दयानंद पांडेय जी के संपर्क सूत्र
5/7, डाली बाग, आफिसर्स कॉलोनी, लखनऊ.
मोबाइल नं॰ 09335233424, 09415130127
e-mail : dayanand.pandey@yahoo.com

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अबहीं ले 10 गो भामाशाहन से कुल मिला के पाँच हजार छह सौ छियासी रुपिया के सहयोग मिलल बा.


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गुमनाम भाई जी,
सहयोग राशि - एगारह सौ रुपिया


(3)


24 जून 2023
दयाशंकर तिवारी जी,
सहयोग राशि - एगारह सौ एक रुपिया


(4)

18 जुलाई 2023
फ्रेंड्स कम्प्यूटर, बलिया
सहयोग राशि - एगारह सौ रुपिया


(7)
19 नवम्बर 2023
पाती प्रकाशन का ओर से, आकांक्षा द्विवेदी, मुम्बई
सहयोग राशि - एगारह सौ रुपिया


(5)

5 अगस्त 2023
रामरक्षा मिश्र विमत जी
सहयोग राशि - पाँच सौ एक रुपिया


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सुतला मे, जगला में, चेत में, अचेत में। बारी, फुलवारी में, चँवर, कुरखेत में। घूमे जाला कतहीं लवटि आवे सँझिया, चोरवा के मन बसे ककड़ी के खेत में। - संगीत सुभाष के ह्वाट्सअप से


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