कवन खाना खाइल ना जाव? (बतकुच्चन – 183)

by | Mar 20, 2015 | 0 comments

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पिछला बेर दहल, दहलल, आ दलकल के चरचा पर बात रोकले रहीं आजु ओहिजे से आगा बढ़ल चाहब. बाकिर बचपन के याद आवत बा जब सियालदह लोकल में एगो किताब बेचे वाला बुझउवल बुझा बुझा के आपन किताब बेचत रहे. पूछे कि बताईं कि कवन कवन खाना खाइल ना जाव? लोग सोेचे लागे कि खाना खाए जोग ना होखे त ऊ खाना कइसे हो सकेला. आ तब ऊ बतावे कि कारखाना, डाकखाना, जेलखाना, पाखाना, आ पेशाबखाना जइसन बहुते खाना होखेला जवन खाइल ना जाव. ठीक ओही तरह कि सूतेला आदमी बाकिर कहल जाला मच्छरदानी. मच्छरदानी मच्छर के कुछ दान त ना देव उलुटे ओकरा के रोक देला आदमी के खून पिए से. चूहेदानी के इस्तेमाल चूहा पकड़ेला होला बाकिर मच्छरदानी त मच्छर पकड़े खातिर ना लगावल जाव, ओकरा के रोके ला लगावल जाला. त फेर एकर नाम मच्छरदानी काहे आ कइसे पड़ गइल. बा केहू का लगे जवाब? हमरो मन करेला कुछ सुने के. काहे कि कुछ सुनब त कुछ गुने के मउको मिल जाई आ बतकुच्चन लिखे के बहाना.

खैर. बात कल से खाना पर चल गइल त एह चलते कि लिखे बइठनी त दहलल आ दलकल के तुक मिले लागल चटकल आ दमकल जइसन शब्दन से. अब चटकल आ चटकल के फरक ना बताएब त कल ना पड़ी हमरा. एह कल के कलकल से त ना बाकिर कलपल से थोड़ बहुत नाता खोजल जा सकेला. केहू पल भर कलपेला त केहू कलप भर. कलपना माने दुख से रोअल, कलपल. अब एक कलपना के कल्पना से भा कलप से त जोड़ले ना जा सके. कल्पना मन में कुछ सोचला के कहल जाला आ कल्प समय के माप होला. अब एहसे पहिले कि केहू कलपे लागे, हम एकरे तुक से मिलत पल, पलपल, आ पल्प के संबंध के चरचा कर लिहल चाहब. पल्प अंगरेजी के शब्द ह. पल्प माने लुगदी. आ पल्प होखेला पलपल भा पुलपुल. से सोचे जोग बा कि पलपल पल्प से बनल शब्द ह कि अलगे से उपजल. पलपल, पुलपुल, आ पुलुरपुलुर एके बात होला. मोलायम, नरम भा भितरी से खोंखड़ चीझु पुलपुल हो जाला. जइसे कि दलदल ना त दल से बनेला ना दाल से. दलदल असल में ओह पलपल जमीन के कहल जाला जवना में पड़ के आदमी धँसे लागेला. अपराध के दुनियो एक तरह के दलदले होला जवना में गिरला भा पड़ला का बाद निकलल मुश्किल हो जाला. आ हम बात के बतकुच्चन में अइसन अझुरइनी कि दहल दहलल के बतिये दहा गइल. बाकिर ओह पर लवटे से पहिले चटकल आ चटकल से निपट लिहल जरूर चाहब.

भोजपुरी इलाका जइसे गिरमिटिहा मजदूरन से चरचा में आइल वइसने चरचा चटकलियो लोग का चलते भइल. चटकल माने जूट मिल जहाँ जूट से चट बनावल जाला. बाकिर चटकल के एगो अउर मतलब होला चटकल माने कवनो चीझु के अइसन टूटल कि दु टुकड़ो ना होखे आ दुनू का बीचे दरारो लउके. एह चटकल के नाता दरकल आ चरकल से खोजल जा सकेला. जमीन दरकेला आ कपड़ा चरकेला. दरकल में दरार बन जाला आ दरार का दुनू तरफ का बीच फरक मौजूद हो जाला. कपड़ा जब चरकेला त ओकरा से चरचर के आवाज आवेला आ लोग बुझ जाला कि कुछ चरक गइल. चरक एगो ऋषि के नाम रहे जे चिकित्सा के पुरान ग्रंथ चरक संहिता लिखलन. एगो चरक दार्शनिक रहलन जे कह गइलन कि जब ले जीय, सुख से जीय, करजा ले के घीव पीय. चरक एगो बेमारिओ के नाम ह जवना में चमड़ा के रंग उजर हो जाला. हालांकि सिहुलो में चमड़ा उजर होखेला बाकिर छींट जइसन. बात लमहर होखत जात बा त आजु एगो कहाउत से खतम करत बानी कि सुखे सिहुला, दुखे दिनाय, करम फूटे त फटे बेवाय.

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(1)


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(3)


24 जून 2023
दयाशंकर तिवारी जी,
सहयोग राशि - एगारह सौ एक रुपिया


(4)

18 जुलाई 2023
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(7)
19 नवम्बर 2023
पाती प्रकाशन का ओर से, आकांक्षा द्विवेदी, मुम्बई
सहयोग राशि - एगारह सौ रुपिया


(5)

5 अगस्त 2023
रामरक्षा मिश्र विमत जी
सहयोग राशि - पाँच सौ एक रुपिया


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एगो निहोरा बा कि जब सहयोग करीं त ओकर सूचना जरुर दे दीं. एही चलते तीन दिन बाद एकरा के जोड़नी ह जब खाता देखला पर पता चलल ह.


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सुतला मे, जगला में, चेत में, अचेत में। बारी, फुलवारी में, चँवर, कुरखेत में। घूमे जाला कतहीं लवटि आवे सँझिया, चोरवा के मन बसे ककड़ी के खेत में। - संगीत सुभाष के ह्वाट्सअप से


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