– दयाशंकर तिवारी
(एक) नाहीं लउके डहरिया के छोर गोइयाँ
नाहीं लउके डहरिया के छोर गोइयाँ
पीरा पसरे लगलि पोर पोर गोइयाँ।
देहिये भइल आपन अपने के भारी
निरदइया अबहीं ना छोड़े ब्यौहारी।
होइ रहल ओही में तोर मोर गोइयाँ।1।
आंखि कान ठेहुन जबाब दिहलें तन के
काल करे अनगिन सवाल चुन चुन के
होइ गइल बाटें विधनो कठोर गोइयाँ।2।
केतनों जतन केहू करे ना मेटाई
लिलरा कऽ लेख नाहीं पढ़ले पढ़ाई
जानी कबले लगब कवनी ओर गोइयाँ।3।
जिनिगी भर जाहिल गँवार हम रहलीं
मनवा के हर बतिया कहियो ना पवलीं।
अब तऽ बाँचलि जिनिगियां बा थोर गोइयाँ।4।
मटिया आ पनिया के देहियाँ बा छूंछे
अगिया अकसवा बतसवा से पूछे।
टूटति बाटे सनेहियों के डोर गोइयाँ।5।
ना कवनों थान बचल ना कवनो थाती,
रहि रहि के भभकेले तेलवा बिन बाती
इहे दियना कऽ अखिरी अँजोर गोइयाँ।6।
(दू) आगि लगलीं टँवसिया के पानी में
आगि लगलीं टँवसिया के पानी में
जहवाँ कविता फुटलि देवबानी में।
पनिया खउलला से गरम भइल रेती
गिरहस्थी घर में, बरे बहरे खेती।
लवरि लउके लगलि राजधानी में।1।
चिरई डेराइल ना उचरेली अँगना,
गइलें झँउसि सगरी, पिंजरा के सुगना।
जरलें अरमान आल्हर जवानी में।2।
सूघर सपन देखल, हो गइले गारत
जगह जगह लउके अदिमियत नदारत।
पाप के बात होखे पलानी में।3।
मसलि मसलि फूलन के खिले ओकर चेहरा,
जेकरे सिर बन्हल रहल शोहरत कऽ सेहरा।
रौनक छन भर में बदललि बिरानी में।4।
रतिया भर सुनि सुनि, काँपें लोगवा थरथर,
हर हर महादेव, अल्ला हो अकबर।
दहसाति फइललि ओसारी दलानी में।5।
लगलीं सेंकाये सियासत क रोटी,
झाँसे में आ गइलीं तहबन आ धोती।
जोखू जुम्मन झोंकइलें कहानी में।6।
आवऽ सभे मिलि के अगिया बुताईं
उज्जर कबूतर अकासे उड़ाई।
केहू पँखिया ना नोंचे नदानी में।7।
पनपे न पावे दरिंदन कऽ दुनिया,
सेवई आ गुझिया कऽ होखे मिलनिया।
फेरो फर लागे करघा किसानी में।8।
(तीन) छिटाई गइल चिरई कुरूई के दाना
भुइयाँ से कइसे बटोरी खजाना
छिटाइ गइल चिरई कुरूई के दाना।
उचरेलू सभही के अँगना दुआरे,
जनलू ना के, केतना तुहके दुलारे।
छीपल बा ना तुहसे आपन बेगाना।1।
बचवन के खातिर खन भुइयां अकासे
दिनवा भर रहि जालू भूखे पिआसे।
बूझे दरदियो ना जालिम जमाना।2।
घेरे बदरिया ना लउके डहरिया
घमवाँ में पँखिया जरावे दुपहरिया।
अइलें ना जिनिगी के मौसम सुहाना।3।
चरवा पर बा तुहरे सभकर नजरिया
गरवा परलि बा बिपतिया अनेरिया।
घर में ना बहरे बा कवनों ठेकाना।4।
कमवाँ न अइहें कवनों सिकवा खोटा,
जनिहऽ जनि केहू के अपने से छोटा।
जोगवत रहिहऽ आपन रिश्ता पुराना।5।
छिटाइ गइल चिरई कुरूई के दाना!
(चार) घन बँसवरिया में बोले रोज सुगना
घन बँसवरिया में बोले रोज सुगना
नई नई बोलिया सुनावेला हिरमना।।
बरखा में चुवेले पुरनकी मकनियाँ,
खुल जाले अँखिया जगाइ देले बुनियाँ।
राति भर जागि के जराई रोज दियना।1।
लगेले डरावनी हो राति भदवरिया,
चारू ओर कीच काँच अँगना दुअरिया।
कइसे दलनिया में बिछिहें बिछवना।2।
कइसे कऽ जड़वा में परिहें पहलिया,
पुअरो जरावे लोग कहि के परलिया।
जबर जेठनिया मारेले रोज मेहना।3।
तनकि तनकि बोले ढीठ देवरनिया,
सासु जी कऽ पहिरे सोने क करधनिया।
धइले बा लोगवा कहेले ढेर गहना।4।
कइसे क जीहें घरे लरिका परनियाँ,
कइसे क रोकि पाई केहू क जबनियाँ।
राति दिन सुने के परत बा ओरहना।5।
(पांच) एगो साँप मूस के बिल में पइठल
एगो साँप मूस के बिल में पइठल,
कुण्डली मारि के बइठल,
बीखि के बल पर अँइठल,
आपन बता रहल बा।
गाँव क सगरी लोग,
एक जगहा जुटि के,
”सरहंग चोर,
सेन्हि में बिरहा गावे“
वाली कहाउत कहि के,
चिहा रहल बा।
हाथ में लाठी लेइ के
केहू पटकत बा,
बिजुरी नियर,
केहू कड़कत बा,
आ घरवे में लुकाइल,
केहू रोबिआ रहल बा।
बिल के खाली कराई,
मूसन क रिहाई
आ ओकरे हक क लड़ाई,
लड़े खातिर,
एगो मंच बनावे खातिर,
ओपर बहस चलावे खातिर,
कुछ लोग जोर जोर से,
गला फाड़ि के
चिचिआ रहल बा।
साँप के लगे के जाई,
के ओकरा के समझाई,
शांति आ अहिंसा क पाठ पढ़ा के,
के समस्या के सुलझाई,
अबहीं आपस में,
इहे ना फरिआ रहल बा।
कुछ लोगन क विचार बा,
सरकारी खरचा से मूस के,
कवनो दोसर बिल बनवा के,
दे दिहल जाव
आ भविष्य में साँप के
चेतावनी देके,
छोड़ि दीहल जाव।
दूसरे खेमा क विचार बा
साँप के नेउर से,
लड़ा दिहल जाव।
नहला पर दहला,
भिड़ा दीहल जाव।
त मसला सलटि जाई
युग क इहे मांग ह
ना त बाजी पलटि जाई।
देशवो के एही तरे,
कुछ लोग चला रहल बा,
लोगवन के आपस में,
लड़ा रहल बा,
झगरा लगा के,
अझुरा रहल बा,
आ आपन कुर्सी
कइसों, कइसों
बचा रहल बा।
मकान न0. 297, भीटी-मऊ (उ0प्र0-275101)
मो0- 9415680942
(भोजपुरी दिशाबोध के पत्रिका पाती के दिसम्बर 2022 अंक से साभार)
(वरिष्ठ कवि दयाशंकर तिवारी के सहज-सुभाविक लोकभाव के गीत पढ़े-सुने वाला के अनासो अपना भाव-संसार आ समय-संदर्भ में खींच ले जाला। सुभाविक-सुपरिचित भाषाई बिनावट में प्रसंगानुकूल स्मृति-बिम्ब, उपमा आ प्रतीकन से सजल उनकर गीत मानवी-जीवन संवेदन, दर्शन आ लोक-अनुभूति के मार्मिक अर्थच्छवियन आ व्यंजना से भाव विभोर कर देलन सऽ। जीवन-दर्शन वाला उनका गीतन के उनका गीतन के उनका मुँहें, सुपरिचित अंदाज में सुनल, बहुत सुघ्घर आ मनहर लागेला। ‘माटी के महक’ – उनकर पहिला कविता-संकलन रहे।
दयाशंकर तिवारी जी का रचनाकर्म में लोकसम्मत दृष्टि आ सुसंगत विचारशीलता बा। नियति के मार आ मान-मूल्यन दयाशंकर तिवारी जी का रचनाकर्म में लोकसम्मत दृष्टि आ सुसंगत विचारशीलता बा। नियति के मार आ मान-मूल्यन का अवमूल्यन-क्षरन के फिकिर बा। अन्याय, असंगति आ बिपरीत-परिस्थितियन के चिन्ता बा, मानवीय सोच-सरोकारन के अनसुलझल सवाल-जबाब बा, बेवस्था के विडम्बना आ बिद्रूपता बा। कठिन कर्मपथ में पसेना आ आँसुवन से भींजल जीवन बा। एह जीवन के अँजोर खातिर विनम्र भाव आ आस्था से लोक के देवी-देवतन के स्तुति करत कवि सतत् रचनाशील बा।
स्वर आ शब्द-साधना में, अपना सँगे लोककल्यान खातिर परम सत्ता से निहोरा आ विनती कवि का सुभाव में बा। तिवारी जी के (कविताई के) जल्दिये प्रकाशित होखे वाली भोजपुरी के दुसरकी किताब से, उनकर पाँच गो गीत ”पाती“ का सुधी-मर्मज्ञ पाठकन खातिर इहाँ अविकल रूप में दिहल जा रहल बा। एम्में लोक भाव-भंगिमा का साथ, तेजी से बदलत समय-समाज के संघर्ष, पीर आ तस्बीर के अरथवान आ मरम छूवे वाली, अभिव्यक्ति आश्वस्त करे वाला रचनालोक के परतीति कराई। – संपादक पाती)