abhay

– अभयकृष्ण त्रिपाठी

पहचान के जरुरत नइखे हम नारी बानी
मानी न मानी हर केहु पर भारी बानी ||

लुट रहल बा अस्मत चारो ओरि, जानत बानी,
नारी भइल नारी के दुसमन इहो मानत बानी,
कोख मारीं आ सर तान के केतनो चलीं रउआ
जग के जनावर से परिचय हमहीं करावत बानी.
छुपा लीं करिया चेहरा, काहे कि महतारी बानी.
मानी न मानी हर केहु पर भारी बानी ||

गांधी तबही बनेब जब सामने रही कस्तूरबा,
उगत सूरज के पूजले दुनिया के दस्तूर बा,
इन्हवो दाल ना गली ई हमार वारंटी बा,
दुनिया चलावे खातिर औरते गॉरंटी बा,
चाहे मारीं चाहे पूजी हमहीं सहचरी बानी.
मानी न मानी हर केहु पर भारी बानी ||

पहचान के जरुरत नइखे हम नारी बानी
मानी न मानी हर केहु पर भारी बानी ||

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By Editor

2 thoughts on “नारी”
  1. भाई त्रिपाठी जी,
    अब पुरुष के मारल-पीटल ना चली,नारी के सशक्तीकरण के दौर बहुत तेजी में लउकता.अब रउरा कविता के मुखड़ा नारा बन जाई- “पहचान के जरुरत नइखे हम नारी बानी | मानी न मानी हर केहु पर भारी बानी ||”बढ़िया कविता.होली के बहुत-बहुत शुभकामना.
    विमल

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