– डा0 अशोक द्विवेदी
सबुर धरीं कबले , हमहन के मत कंगाल करीं
साठ बरिस किरसवनी/ अब मत जीयल काल करीं !
नोच -चोंथ के खा गइनी सब / कुछऊ ना बाँचल
डर से रउरा पटा गइल सब ,बूझल ना जाँचल
पिन्ड छोड़ दीं अब्बो से; मत अँखिया लाल करीं !
जतना जुरल, न आँटल ओमे / जुटल न लूगा – लत्ता
हमनी खातिर सबुर क थरिया , रउरा खातिर सत्ता
बकरी – लोग बहुत मिमियाइल , तबो हलाल करीं !
सरिहावत – सझुरावत सगरी / मनका छिटा गइल
अदिमी , अदिमी के समाज टुकड़न में बँटा गइल
छोड़ीं हमनी के चिन्ता अब, आपन ख्याल करीं !!
साठ बरिस तड़पवनी ,अब मत जीयल काल करीं !!
छोड़ीं हमनी के चिन्ता अब, आपन ख्याल करीं !!
ऊ अँजोरिया कहाँ, जे सुघर लागे
कतना बदलल इ गँउवाँ नगर लागे
घर में अइला प’ दुसरा क घर लागे !
घर में घुसरल कहाँ से इ दुर्भावना
कुल ओराइल सहजता क संभावना
कवनो डाइन क जइसे नजर लागे ;
घर में अइला प’ दुसरा के घर लागे !
देखि दुसरा क हुलसल करेजा जरे
केहु का मुवलो प’ अब ना रोवाई बरे
देखि अनकर बढ़न्ती, जहर लागे ;
घर में अइला पर दुसरा क घर लागे !
आँख चुन्हियाइल या चकचिहाइल मिले
जगमगाहट में सब कुछ हेराइल मिले
ऊ अँजोरिया कहाँ, जे सुघर लागे ;
कब , कहाँ होई का, ना खबर लागे !!