– जयशंकर प्रसाद द्विवेदी

 

JaishankarDwivediनइकी शादी छंटल  बहुरिया

डिस्को झारत भर दुपहरिया

भइया फ्रिज में पानी राखस

लुग्गा धोवे  रोज तिसरिया

अब मइया न बलाएँ लेती .

बहल गाँव बिलाइल खेती .

 

बइठल दुअरे बब्बा रोवें

घरवां दादी बरतन धोवें

चच्चा  गोबर फेकें घूरे

बुआ चुहानी रोटी पोवें

भावे भउजी  भइया बेती .

बहल गाँव बिलाइल खेती .

 

घर घर घुसरल अइसन टीभी

बनल  बहुरिया  बड़की बीबी

अम्मा  चाय  बनावें सभकर

भलहीं  आवें  सजल  करीबी

मटका फूटल आपन नेती .

बहल गाँव बिलाइल खेती .

 

गवईं  थाती छोह  हेराइल

जाने कहवाँ जा  अझुराइल

टूटल गाँछ छुटलs बइठकी

नाता रिश्ता  सभे भुलाइल

काकी अब ना जोरन देती .

बहल गाँव बिलाइल खेती .

 

हंसुआ  खुरपी  रहे  कुदारी

आपन  सगरों  घरे  दुआरी

आपन सभकर सबही आपन

कब्बों  कवनो खेत  नियारी

गरदन आपन आपन रेती .

बहल गाँव बिलाइल खेती .

 

बाबूजी अब पढ़त इबारत

माई घर – दलान बहारत

घरे खेती अधिया -तीसरी

बेटा  दुअरे शान बघारत

रिस्तन के जड़ जामल रेती .

बहल गाँव  बिलाइल खेती .

 

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2 thoughts on “बहल गाँव बिलाइल खेती”
  1. गाँवन में तेजी से आवत बदलाव पर बढ़िया कविता।
    बहल गाँव कहिके कवि खाली मुहावरा के प्रयोग नइखे करत बलुक गँवई संस्कृति के क्षरण पर आपन गंंभीर चिंता दर्ज करा रहल बा।बिलाइल खेती त ओकर परिणाम बा।

कुछ त कहीं......

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